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मंदिर मार्ग का अगला मोड़

यह शायद 2011-12 की बात है। इलाहाबाद से दिल्ली आने के लिए मैंने जब प्रयागराज एक्सप्रेस के अपने डिब्बे में प्रवेश किया, तो सामने एक भद्र वृद्ध व्यक्ति को विराजे पाया। अपने सामान को व्यवस्थित कर ही रहा...

 मंदिर मार्ग का अगला मोड़
शशि शेखरSat, 19 Oct 2019 08:47 PM
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यह शायद 2011-12 की बात है। इलाहाबाद से दिल्ली आने के लिए मैंने जब प्रयागराज एक्सप्रेस के अपने डिब्बे में प्रवेश किया, तो सामने एक भद्र वृद्ध व्यक्ति को विराजे पाया। अपने सामान को व्यवस्थित कर ही रहा था, तभी उन्होंने पूछा, मैंने आपको कहीं देखा है? उनकी आंखों में झांकने पर मुझे भी लगा कि हम कहीं मिले तो हैं, पर कहां?  

इस संशय को उन्होंने ही दूर किया। अपना दायां हाथ आगे बढ़ाते हुए बुजुर्गवार ने परिचय दिया कि मेरा नाम पलोक बसु है। ओह! दादा, मेरे मुंह से अनायास निकला। पलोक दा हाईकोर्ट के माननीय न्यायमूर्ति हो गए थे, पर इलाहाबाद शहर के लोगों से उन्होंने अपना भाईचारा कभी नहीं गंवाया। मैं जब उनसे पहली बार मिला था, तब उनका शुमार शहर के प्रख्यात न्यायविदों और संस्कृतिकर्मियों में होता था। 

न्यायमूर्ति बसु स्वभाव से इतने गर्मजोश थे कि उन्होंने मुलाकातों के बीच पसरे लंबे अंतराल को कुछ ही पलों में पाट दिया। मैंने उनसे पूछा कि आप किस सिलसिले में दिल्ली जा रहे हैं? जवाब मिला, अयोध्या मसले को सुलझाने की कोशिश कर रहा हूं। इसी सिलसिले में दिल्ली आना-जाना लगा रहता है। उनकी इस बात ने मेरे अंदर के पत्रकार को चौकन्ना कर दिया। मैंने उनसे तमाम सवाल पूछे और उन्होंने हरेक का सिलसिलेवार जवाब दिया। पलोक दा आश्वस्त थे कि इस लंबे विवाद का हल बहुत जल्दी निकल आएगा। आज न्यायमूर्ति बसु हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन उनका आशावाद इतने बरस बीत जाने के बाद भी बेसाख्ता याद आता है। 

इस अनायास मुलाकात के हफ्ते भर बाद लुटियंस दिल्ली के एक जमावड़े में मैंने उनसे हुई बातचीत का जिक्र छेड़ा। तमाम पक्ष और विपक्ष के सांसद वहां मौजूद थे। लगभग सभी की राय थी कि ऐसा होना संभव नहीं। वजह? मामला राजनीतिक हो चुका है। राजनीतिज्ञ लोगों की ‘राजनीति’ पर इससे अधिक दिलचस्प टिप्पणी नहीं हो सकती। हम सब जानते हैं कि अयोध्या का मामला धार्मिक आस्था से भले ही शुरू हुआ हो, परंतु उस पर शुरू से सियासत की स्याह छाया मंडराती रही है। अगर बाबर के सिपहसालार मीर बाकी ने मंदिर को सचमुच ध्वंस किया था, तो उसका कारण धार्मिक से ज्यादा राजनीतिक था। मध्यकाल में पूजागृहों को नुकसान जनता का मनोबल तोड़ने के लिए पहुंचाया गया, यह एक जाना-पहचाना सच है।

इतिहास के सीले कपाटों को खोलने की बजाय मैं मौजूदा वक्त के एक निर्णायक मुकाम से बात शुरू करना चाहूंगा। वर्ष 1986 में फैजाबाद के जिला जज ने मंदिर का ताला खोलकर हिंदुओं को पूजा करने की इजाजत दे दी थी। इस फैसले की नींव 1949 में ही उस समय रख दी गई थी, जब 22-23 दिसंबर की रात विवादित परिसर में राम, सीता और लक्ष्मण की मूर्तियां ‘प्रकट’ हो गई थीं। कुछ ही समय में इस संपत्ति को कुर्क कर रिसीवर तैनात कर दिया गया था। आप चाहें, तो याद कर सकते हैं, 1949 में पंडित जवाहरलाल नेहरू  और 1986 में राजीव गांधी देश के प्रधानमंत्री हुआ करते थे।  

इस मामले में दूसरा फैसलाकुन मोड़ सितंबर 1990 में आया, जब लालकृष्ण आडवाणी अपनी मशहूर ‘रथयात्रा’ पर निकले। 23 अक्तूबर को बिहार के समस्तीपुर में उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। भारतीय जनता पार्टी के इतिहास में यह तारीख हमेशा महत्वपूर्ण मानी जाएगी। इसके बाद देश भर में जैसी प्रतिक्रिया हुई, उससे तय हो गया कि अब मामला मंदिर-मस्जिद से आगे बढ़कर सरकारों को बनाने और बिगाड़ने का बन चुका है। ऐसा नहीं है कि महज कांग्रेस और भाजपा इस खेल में शामिल रहे हैं। इसका फायदा सूबाई क्षत्रपों को भी मिला है। आडवाणी की गिरफ्तारी के आदेश लालू यादव ने दिए थे। उस दौरान उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह मुख्यमंत्री हुआ करते थे। मुलायम के वक्त में ही फैजाबाद में पुलिस ने गोली चलाई थी, जिसमें करीब दस लोग मारे गए थे। बरसों बीत गए, पर आज भी बिहार में लालू यादव और उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह अल्पसंख्यक मतदाताओं के मन पर राज करते हैं। 

नवंबर 1990 के बाद उत्तर भारत के सामाजिक ढांचे में जैसा कंपन हुआ, वह वैसा ही था, जैसे भीषण भूकंप आने से पहले धरती अंदर ही अंदर डोल रही होती है, पर उसके ऊपर रह रहे लोगों को इसका आभास नहीं होता। इस जानलेवा जलजले का प्राकट्य छह दिसंबर, 1992 को अयोध्या में बाबरी मस्जिद ध्वंस के साथ हुआ। इसके बाद हुए देशव्यापी दंगों में लगभग दो हजार लोग मारे गए और करोड़ों की संपत्ति स्वाहा हो गई। बताने की जरूरत नहीं कि राजनीतिज्ञों के लिए जो हालात वरदान साबित होते हैं, उन्हें अभिशप्त आम आदमी अपने खून-पसीने से सींचता है।

वह दौर बीत चुका। अब देश की आला अदालत को इस मामले पर फैसला सुनाना है। इंतजार की ये अंतिम घड़ियां अधीर करने वाली हैं, पर भारतीय मनीषा के सामने एक शानदार अवसर भी उपस्थित हुआ है। विवादों पर निर्णय सुनाना अदालतों का कर्तव्य है और इन फैसलों पर अमल करना आम नागरिक का दायित्व। आला अदालत का आदेश किसी एक पक्ष को खुश कर सकता है, तो दूसरे को नाखुश। 21वीं शताब्दी जी रहे हिन्दुस्तानियों के सामने यह अवसर है, जब वे आने वाली पीढ़ियों को संदेश दे सकें कि सह-अस्तित्व की भावना हमारी रगों में बहती है। इस बीच सुलह के प्रयासों की भी चर्चा है। तय मानिए, समझौते का तो कोई विकल्प हो ही नहीं सकता। इसके कुछ शानदार उदाहरण हमारे अतीत में छिपे हैं।

आपको इतिहास के गुममान पन्नों में खोई एक अद्भुत दास्तां से रूबरू करता हूं। गुरु हरगोबिंद सिंह ने 1634 में मुगलों को लड़ाई में परास्त करने के बाद स्थानीय मुसलमानों के लिए एक मस्जिद बनवाई  थी। आजादी के बाद मस्जिद निहंग सिखों के हाथों में आ गई। दशकों तक निहंगों ने वहां गुरुग्रंथ साहिब का प्रकाश किया, लेकिन आठ फरवरी, 2001 को उन्होंने बाकायदा एक सहमति-पत्र पर हस्ताक्षर के जरिए उसे मुसलमानों को फिर सौंप दिया। अब गुरु की मसीत में अजान होती हैं और नमाज पढ़ी जाती है। अगर श्रीहरगोबिंदपुर में सह-अस्तित्व का भाव मुखरित हो सकता है, तो अयोध्या में क्यों नहीं?

 

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