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नारों के हिंडोले और हमारी हकीकत

अपनी 72 साला आजादी में भारत ने कुलजमा 16 आम चुनाव देखे हैं। इसके बावजूद सवाल कायम है कि हमारा लोकतंत्र सही दिशा में बढ़ रहा है या नहीं? क्या वजह है कि विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र अपने विशाल आकार को अभी...

नारों के हिंडोले और हमारी हकीकत
शशि शेखरWed, 24 Apr 2019 06:16 PM
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अपनी 72 साला आजादी में भारत ने कुलजमा 16 आम चुनाव देखे हैं। इसके बावजूद सवाल कायम है कि हमारा लोकतंत्र सही दिशा में बढ़ रहा है या नहीं? क्या वजह है कि विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र अपने विशाल आकार को अभी वांछित प्रकार से व्यवस्थित नहीं कर सका है? 
बताने की जरूरत नहीं कि आजादी के बाद पहला आम चुनाव 1951-52 में हुआ था। उस समय हिन्दुस्तान का चेहरा-मोहरा अलग था।

जवाहरलाल नेहरू भले ही अपने को लोकतंत्र का मुखिया मानते रहे हों, पर हकीकत यह है कि पूरे देश में राजे-रजवाड़ों, जमींदारों और भूपतियों का दबदबा बरकरार था। उस चुनाव में कुल 17.3 करोड़ मतदाता पंजीकृत हुए थे, जिनमें से 44.87 प्रतिशत मतदाताओं ने वोट डाले थे। तब की 489 सीटों के लिए हुए चुनाव में 53 राजनीतिक दलों ने हिस्सा लिया था और कुलजमा 1,874 प्रत्याशी मैदान में आ डटे थे। भारत उन दिनों निर्धन हुआ करता था। हमारी प्रति व्यक्ति सालाना आय थी 7,651 रुपये और साक्षरता दर भी मात्र 18.33 प्रतिशत होती थी। 

कांग्रेस ने 489 में से 364 सीटें जीतकर सरकार बनाई और उसी साल जवाहरलाल नेहरू ने जमींदारी प्रथा खत्म कर दी। तब लगा था कि भारतीय लोकतंत्र आज नहीं तो कल, वाजिब स्वरूप को हासिल कर सकेगा, क्योंकि आगे जो सरकारें चुनी जाएंगी, वे सही अर्थों में जनता के लिए, जनता द्वारा निर्वाचित की जाएंगी। हमारे पुरखों को उस लम्हे में गुमान न रहा होगा कि रजवाड़ों से तो मुक्ति मिल रही है, पर राजनीति में नए दलपतियों का वक्त आने वाला है। आज देश का कोई हिस्सा ऐसा नहीं है, जहां इन राजनीतिक खानदानों का सिक्का न चलता हो। 

तब से अब तक देश की नदियों में बहुत पानी बहा और भारत की जनसंख्या वृद्धि के साथ आमदनी बढ़ी। अगर 2014 के चुनावों को याद करें, तो 83.4 करोड़ मतदाता पंजीकृत किए गए थे, जिनमें से 66.44 फीसदी ने मताधिकार का प्रयोग किया था। इस बार 543 सीटों के लिए 464 पार्टियां और 8,251 प्रत्याशी मैदान में थे। देश की साक्षरता दर ने भी 74.04 फीसदी का मुकाम हासिल कर लिया था। प्रति व्यक्ति सालाना आय भी एक लाख रुपये का आंकड़ा पार कर चुकी थी। मौजूदा चुनाव यकीनन इस रिकॉर्ड को तोड़ने वाले साबित होंगे और यही वह मुकाम है, जो मुझे चिंतित करता है। हम चुनावों के कीर्तिमान तोड़ सकते हैं, जन समस्याओं के समाधान के नहीं।

प्रसंगवश यहां सात चरणों के चुनाव का रोना रो रहे लोगों को बताता चलूं कि पहले चुनाव 68 चरणों में हुए थे और इन्हें संपन्न होने में चार महीने का वक्त लगा था। कांग्रेस ने उस समय 364 सीटें हासिल की थीं, जबकि 2014 के चुनाव में भाजपा 282 सीटों के साथ बहुमत पाने में सफल रही। 1957 से लेकर आज तक की तारीख उठाकर देख लीजिए, चाहे वे बहुमत की सरकारें रही हों या कई दलों के गठबंधन का जोर रहा हो या किसी खास शख्सियत का, तथ्य की बजाय कथ्य पर चुनाव जीते गए। 

नेहरू ने कहा था- आराम हराम है।  उनके अल्पजीवी उत्तराधिकारी लाल बहादुर शास्त्री ने 1965 की भारत-पाक जंग के दौरान जोशीला नारा उछाला था- जय जवान, जय किसान।  1971 में इंदिरा गांधी गरीबी हटाओ  की उद्घोषणा के साथ मैदान में थीं, तो 1977 के चुनाव में इंदिरा हटाओ, देश बचाओ  की अनुगूंज हमें सुनाई पड़ी। 31 अक्तूबर, 1984 को इदिरा गांधी की शहादत के बाद हुए चुनावों में कांग्रेस ने मार्मिक नारा उछाला- जब तक सूरज-चांद रहेगा, इंदिरा तेरा नाम रहेगा  और राजीव गांधी 404 सीटों के अपरंपार बहुमत के साथ शीर्ष पर जा विराजे। 

बाद में 1996 में भाजपा ने जनता के नैराश्य को हवा देते हुए नारा दिया- सबको देखा बारी-बारी, अबकी बारी अटल बिहारी।  पिछला चुनाव मोदी ने अच्छे दिन आने वाले हैं  के नारे के साथ लड़ा और जीता। इस बार वह और उनके हमसाये बोल रहे हैं- मोदी है तो मुमकिन है। 

यहां सवाल उठना जायज है कि अब तक इन चुनाव जिताऊ नारों ने देश का कितना भला किया? आज भी भारत को आदर्श कार्यस्थल के तौर पर नहीं देखा जाता और न ही हमने गरीबी से मुक्ति पाई है। धार्मिक असहिष्णुता हमारा स्थाई रोग है और पाकिस्तान को हम अब तक काबू में नहीं ला सके। पाक समर्थक अलगाववादियों ने संसार की सबसे खूबसूरत सरजमीं कश्मीर को आग में झोंक रखा है। हालात इस कदर विषम हैं कि चुनाव आयोग वहां विधानसभा और लोकसभा के चुनाव एक साथ कराने की हिम्मत नहीं जुटा पाया। यही नहीं, घाटी में पहली बार ऐसा हो रहा है कि सिर्फ एक लोकसभा क्षेत्र अनंतनाग में तीन चरणों में मतदान होगा। नौजवानों के लिए रोजगार सपना है, तो नारियों के लिए सम्मान। देश के करोड़ों लोगों के लिए रोटी, कपड़ा और मकान अलभ्य है।

अगर इन अवसाद भरी स्थितियों की चर्चा करूं, तो बात खिंचती चली जाएगी, पर यह सच है कि लोक-लुभावन नारों ने नेताओं अथवा गठबंधनों का चाहे जितना फायदा किया हो, देश अब भी आशा और निराशा के बीच झूलने को बाध्य है। अब जब हम 17वीं लोकसभा के लिए वोट डालने जा रहे हैं, तो हमें यकीनन इस बात पर गौर करना होगा कि लगभग 80 फीसदी साक्षरता दर वाले इस देश को भावना के हिंडोलों में झूलना पसंद है, या फिर यथार्थ की धरती पर चलना?

इटली  के राष्ट्रवादी महानायक गैरीबाल्डी ने कभी कहा था- मुझे बात करने वाले लोगों की बजाय काम करने वाले लोग दीजिए। समय आ गया है, जब हम अपने नेताओं के काफिले रोककर उन्हें यह कथन याद दिलाएं। यकीन मानिए, इसी में हमारी मुक्ति निहित है। हम कब तक जोशीले नारों से उपजेअद्र्धसत्य के शिकार बनते रहेंगे? 

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