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विपक्षी एकता और कुछ हिचकिचाहटें

सियासी पटकथाएं गुपचुप लिखी जाती हैं। विचारों का अंकुरण कहीं होता है, बीज किसी और के हाथों डाला जाता है और जब तक फसल न कट जाए, तब तक मालूम नहीं पड़ता कि उस पर किसकी मिल्कियत होने जा रही है? गुजरे हफ्ते...

विपक्षी एकता और कुछ हिचकिचाहटें
शशि शेखरSat, 16 Feb 2019 09:56 PM
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सियासी पटकथाएं गुपचुप लिखी जाती हैं। विचारों का अंकुरण कहीं होता है, बीज किसी और के हाथों डाला जाता है और जब तक फसल न कट जाए, तब तक मालूम नहीं पड़ता कि उस पर किसकी मिल्कियत होने जा रही है? गुजरे हफ्ते लुटियंस दिल्ली स्थित शरद पवार के घर जब प्रमुख विपक्षी दलों के अगुवा इकट्ठा होना शुरू हुए, तो खबरनवीसों तक को एहसास न था कि एक ‘ब्रेकिंग न्यूज’ दबे पांव आकार ले रही है।

बैठक के बाद शीर्ष विपक्षी नेता पत्रकारों से एक साथ रू-ब-रू हुए और मोदी सरकार को ‘उखाड़ फेंकने’ के लिए न्यूनतम साझा कार्यक्रम बनाने की घोषणा कर डाली। पिछली 19 जनवरी को कोलकाता में जिस तरह मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के आह्वान पर कांग्रेस सहित विपक्ष के तमाम दिग्गज एक मंच पर जुटे, उससे साफ हो गया था कि मोदी सरकार के विरुद्ध लामबंदी की शुरुआत हो चुकी है।

इसके बाद फरवरी के तीसरे हफ्ते की शुरुआत में आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री एन चंद्रबाबू नायडू लाव-लश्कर के साथ दिल्ली आए और आंध्र भवन में धरने पर बैठ गए। कोलकाता जुटान के तमाम सहभागी उनके साथ इकट्ठा हो आए। तीन दिन बाद अरविंद केजरीवाल ने राजधानी के जंतर-मंतर पर ‘तानाशाही हटाओ, देश बचाओ’ रैली आयोजित की। लगभग सभी विपक्षी दल इसमें शरीक थे। कोलकाता में माकपा नदारद थी, पर यहां ममता बनर्जी के आने से ऐन पहले तक उसके नेता मंच पर मौजूद थे। क्या यह संयोग है? नहीं, सियासत में कुछ भी बेमकसद नहीं होता। यहां उपस्थिति, अनुपस्थिति, मौन हो या मुखरता, सबकी अपनी अहमियत होती है। 

आप गौर करें, तो पाएंगे कि 1977 में जनता पार्टी, 1989 में राष्ट्रीय मोर्चा और तमाम बार सुलगकर खाक हो चुके तीसरे मोर्चे की असफलताओं से आशंकित विपक्ष इस बार फूंक-फूंककर कदम रख रहा है। वह कुछ मुद्दों पर सामूहिक प्रतिबद्धता तो जताता है, पर जहां अपने सूबाई हित का ख्याल सामने आता है, वहां उसके तेवर बदल जाते हैं। इसीलिए बुधवार की घोषणा के बावजूद फिजां में सवाल तैर रहे हैं कि यह कैसे मान लिया जाए कि सारे विवाद सुलझा लिए गए हैं? अब कोई खटपट नहीं रह बची?

यह ठीक है कि ममता बनर्जी ने पत्रकारों से कहा कि हम साझा कार्यक्रम बनाने के साथ चुनाव से पहले सीटों का बंटवारा कर लेंगे, ताकि बाद में कोई दिक्कत न आए, पर इस मंजिल तक पहुंचने से पहले कई बाधाएं लांघनी होंगी। शायद इसीलिए कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने कुछ देर बाद स्थिति साफ कर दी कि अभी दिल्ली और बंगाल में साथ मिलकर लड़ने की सहमति नहीं बनी है। इस बैठक में सपा प्रतिनिधि की अनुपस्थिति के भी अर्थ-अनर्थ निकाले गए।

इसकी सबसे बड़ी वजह रही मुलायम सिंह यादव का कुछ देर पहले दिया गया एक भाषण। मौजूदा लोकसभा के आखिरी सत्र के अंतिम दिन सदन में बोलते हुए उन्होंने प्रधानमंत्री को दोबारा सत्ता में आने की शुभकामनाएं दे डाली थीं। इस बयान से सनसनी फैलनी ही थी। भाजपा के तर्करथी इसे ले उडे़। सपा प्रवक्ताओं ने उन पर ढक्कन डालने की कोशिश की, मगर जिन्न बोतल से बाहर आ चुका था। भाजपा के उत्साहित कार्यकर्ताओं ने तो लखनऊ की सड़कों पर बेहद कम समय में पोस्टर तक चिपका डाले। इनमें मुलायम सिंह का बयान ‘हाईलाइट’ किया गया था।

सपा के सामने अकल्पनीय संकट आ खड़ा हुआ था। कल तक उसके अध्यक्ष सड़क पर पुलिस से जूझ रहे थे, कार्यकर्ता लाठी खा रहे थे। यही नहीं, मुलायम के भाषण से पहले संसद में धर्मेंद्र यादव सिर पर पट्टी बांधकर भाजपा के ऊपर हिंसा का आरोप लगा रहे थे और उधर केजरीवाल की सभा में रामगोपाल यादव संघर्ष का आलाप भर रहे थे। ‘नेताजी’ के बयान ने वक्ती तौर पर सही, लेकिन सपा की सारी कसरत पर पानी फेर दिया था।

विपक्ष के बीच पसरे ऐसे और भी द्वैत हैं, जिनका लाभ भाजपा उठाना चाहती है। उसके नुमाइंदे हर मंच पर पूछते मिल जाएंगे कि आपस में लड़ने-कटने का इतिहास रखने वाले ये दल अपना नेता किसे मानते हैं? हमारे पास तो नरेंद्र मोदी हैं। आपके पास?  

प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि अगर अभी तक साथ चुनाव लड़ने पर सहमति नहीं बनी है, तो फिर यह हंगामा क्यों? इस प्रश्न के दो उत्तर हैं। पहला, मोदी और शाह की सियासी आक्रामकता ने इन दलों को डरा रखा है। दूसरा, पिछले कुछ महीनों में जिस तरह सुप्रीम कोर्ट और सीबीआई सहित तमाम सांविधानिक संस्थाओं पर सवाल उठे हैं, वे उन्हें आशंकित करते हैं। विपक्ष की हस्तियों को लगता है कि इनके ‘दुरुपयोग’ के जरिए उन्हें नेस्तनाबूद करने की कोशिश की जा रही है। वे मजबूरी में एकता प्रदर्शित तो कर रहे हैं, पर उनके अंदर की हिचकिचाहटें कायम हैं। दिल्ली में प्रतिबद्धता घोषित करने के बाद वे अपने आग्रहों पर कैसे काबू पाएंगे, यह देखना दिलचस्प होगा।

इस सियासी कोलाहल में रह-रहकर सांविधानिक संस्थाओं का जिक्र आता है। कोई दो राय नहीं कि लोकतंत्र के सुचारु संचालन के लिए ये संस्थाएं बेहद जरूरी हैं। इनकी मर्यादा की रक्षा के लिए आवश्यक है ऐसा निजाम, जो पूरी तरह पारदर्शी और आम जन के प्रति जवाबदेह हो। अफसोस! पिछले तीन दशक के दौरान सरकारें आईं-गईं, पर इनमें से किसी ने भी इस ओर ध्यान नहीं दिया। यह प्रवृत्ति डराती है। स्वतंत्र न्यायपालिका और सक्षम सार्वभौमिक संस्थाएं लोकतंत्र की रीढ़ होती हैं। कौन ऐसा अभागा होगा, जो अपने लोकतंत्र को रीढ़-विहीन देखना चाहता हो? 

क्यों न सभी सियासी क्षत्रप देश के वोटर से वादा करें कि अगली लोकसभा के गठन के साथ ही इस दिशा में सार्थक कदम उठाए जाएंगे? ऐसा होता दीख नहीं रहा। 

इसके उलट 2019 के चुनाव ज्यों-ज्यों करीब आ रहे हैं, सियासी लड़ाइयां निजी दुश्मनियों में तब्दील होती दिख रही हैं। इससे देश का राजनीतिक विमर्श पटरी से उतर गया है। हम मुद्दों की बजाय नेताओं के चाल, चेहरे अथवा परिवार पर विचार व्यक्त करते नजर आ रहे हैं? ऐसे में चिंता होनी लाजिमी है कि हमारे शीर्षस्थ नेताओं की बदजुबानी कहीं उस अवधारणा पर तो प्रहार नहीं कर रही, जिसे दुनिया भारत के नाम से जानती है।

सत्ताकांक्षा में अकुलाए माननीयों से अनुरोध है कि एक बार इन प्रश्नों पर विचार जरूर कर देखें। अगर चुनाव जीतने की जुगत उनका हक है, तो जनहित के सवालों का जवाब देना कर्तव्य। क्या वे अपने दायित्व का पालन नहीं करना चाहेंगे?

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