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पटना की दुर्गति और देश की दास्तां

पटना की सड़कों पर जमा जल अपनी भयावह यादें छोड़कर विदा हो चुका है। पीछे रह बचे हैं- मच्छर, डेंगू और संक्रामक रोगों के खतरे। हमारे शहरों की दुर्दशा की यह अकेली नुमाइश नहीं थी। इससे पहले मुंबई समान दंश को...

पटना की दुर्गति और देश की दास्तां
शशि शेखरSat, 12 Oct 2019 09:58 PM
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पटना की सड़कों पर जमा जल अपनी भयावह यादें छोड़कर विदा हो चुका है। पीछे रह बचे हैं- मच्छर, डेंगू और संक्रामक रोगों के खतरे। हमारे शहरों की दुर्दशा की यह अकेली नुमाइश नहीं थी। इससे पहले मुंबई समान दंश को भुगत चुकी है। क्या कमाल है? वेगवती नदियों अथवा सागर के किनारे बसे हमारे नगर अतिवृष्टि होने पर जल-जमाव के शिकार हो जाते हैं और जरा सी गरमी पड़ते ही प्यास से उनका हलक सूखने लगता है! 

विरोधाभासों से उपजी ऐसी विडंबनाएं हमारी जिंदगी का हिस्सा बन चुकी हैं। हम हर आपदा के बाद सरकारों को कोसने लगते हैं। नगर-निगम के पोल-पट्टे तलाशते हैं और सोशल मीडिया पर अपनी भड़ास जमकर निकालते हैं। नतीजतन, समस्याएं हैं, शिकायतें हैं, शोर है, पर समाधान सिरे से नदारद है। वक्त आ गया है, जब हम अपने नगरों और महानगरों के हालात की समीक्षा करें। उनके सुधार की दिशा में कदम उठाएं। इतिहास के इस सबक पर ध्यान दें, आपदाओं से अगर सबक नहीं लिया जाता, तो वे अगली बार और विकराल होकर लौटती हैं। 

सबसे पहले नगर प्रशासन की बात। आजादी के बाद से ही हमारे हुक्मरां स्थानीय स्व-शासन की बात करते रहे हैं। राजीव गांधी ने 1989 में इस स्व-शासन को सांविधानिक दर्जा देने के लिए लोकसभा में 64वां संविधान संशोधन विधेयक पेश किया था। उसी दौर में अपने एक भाषण में राजीव ने सत्ता के विकेंद्रीकरण पर जोर देते हुए कहा था कि हम केंद्र से एक रुपया भेजते हैं, तो गांवों तक पहुंचते-पहुंचते सिर्फ 15 पैसे रह जाते हैं। हालांकि, उनका ख्वाब जीते-जी पूरा न हो सका। राज्यसभा में यह विधेयक लटक गया। बाद में नरसिंह राव के समय में 73वें संविधान संशोधन विधेयक के जरिए इसे साकार रूप दिया गया। यह ठीक है कि यह विधेयक गांवों को, मूलत: ग्रामसभाओं को मजबूत बनाने के लिए लाया गया था, पर सत्ता का विकेंद्रीकरण इसके मूल में था। इससे बहुत पहले, अंग्रेजों के वक्त में नगर निकाय भी इसी भावना से स्थापित किए गए थे। 

मुझे याद है, उत्तर प्रदेश में जब 1990 के दशक में भाजपा सरकार ने फिर से नगर निगम चुनाव कराने की ठानी, तो सवाल उठे थे कि महानगरों में मेयर करेगा क्या? इतने सारे विधायक, सांसद और सरकारी अमला जो नहीं कर पाते, क्या उसकी कमी पूरी हो सकेगी? हम अपने जर्जर सिस्टम पर कहीं एक और सफेद हाथी तो नहीं लादने जा रहे? इन सवालों के जवाब जानने हों, तो पटना की दुर्गति पर नजर डाल देखिए। आज मेयर, नगरपालिका अध्यक्ष अथवा सभासद जैसे पदों को महज आलंकारिक बना दिया गया है। इसके साथ ही सत्ता के विकेंद्रीकरण का सपना खाक में मिल गया है। 
मैं यहां अमेरिका का एक उदाहरण देने को बाध्य हूं। 11-9-2001 को जब न्यूयॉर्क के वल्र्ड ट्रेंड सेंटर को जमींदोज कर दिया गया, तब शहरवासियों का मनोबल न टूटे, इसके लिए मेयर रूडी गुलियानी ने खुद कमान संभाली। वह उस समय कैंसर जैसी सांघातिक बीमारी की चपेट में थे, पर उन्होंने दिन-रात एक कर दिया। रूडी हर समय घटना-स्थल के आस-पास नजर आते और वहीं से सारे फैसले करते। एक-एक चीज पर उनकी पैनी नजर रहती। कहने की जरूरत नहीं कि लड़खड़ाता न्यूयॉर्क फिर से उठ खड़ा हुआ। आज ‘ग्राउंड जीरो ’ पर शानदार स्मारक खड़ा हुआ है, जिस पर लिखा है- ‘हम कभी नहीं भूलेंगे’। मोटे तौर पर इसे आतंकवादी वारदात से जोड़ा जाता है, पर यहां आने वाले न्यूयॉर्कर गुलियानी के शब्दों को जरूर याद करते हैं। उन्होंने हादसे के बाद कहा था- ‘कोई हमला हमें आगे बढ़ने से नहीं रोक सकता। हम नया न्यूयॉर्क बनाएंगे, जो पहले से भी ज्यादा मजबूत और शानदार होगा।’

न्यूयॉर्क के मेयर ने अपने शानदार काम से साबित किया कि मेयर वास्तव में शहर का ‘प्रथम नागरिक’ होता है। दुर्भाग्य से भारत में इसे महज प्रोटोकॉल तक सीमित कर दिया गया है। यही नहीं, जिन क्षेत्रों में राज्य सरकार और निकायों में अलग-अलग दलों के लोग पदस्थ होते हैं, वहां अक्सर तू-तू, मैं-मैं सुनाई पड़ती है। दिल्ली के तीन नगर निगम इसके उदाहरण हैं। ऐसा नहीं है कि नगर निगमों के पास संसाधनों की कमी है। बंबई नगर निगम ने इस साल 30,692 करोड़ का बजट पेश किया। नई दिल्ली म्युनिसिपल कॉरपोरेशन के आय-व्यय का लेखा-जोखा 4,172 करोड़, तो पटना नगर निगम का बजट 4,065 करोड़ का है। यदि इतना धन ईमानदारी से खर्च किया जाए, तो क्या हालात सुधरेंगे नहीं? 

प्रशासकों और शहर-वासियों द्वारा संसाधनों के सदुपयोग का एक भारतीय उदाहरण भी देना चाहूंगा। 1994 में सूरत में प्लेग फैला था। 50 से अधिक लोग इसके शिकार हो गए। नतीजतन भगदड़ मच गई। लाखों लोग शहर छोड़कर भाग गए। सारा कारोबार धराशायी हो गया। ऐसे में, निगम आयुक्त सूर्यदेवड़ा रामचंद्र राव आगे आए। उनकी अगुवाई में सफाई का काम शुरू हुआ। समूचे शहर को कई जोन में बांटा गया। हर रोज रिपोर्ट तलब की जाती और उस दिन तक हुए काम की जांच भी होती। गंदगी फैलाने वालों को भारी जुर्माना भरना पड़ता। तीन वर्ष से भी कम समय में सूरत देश के सबसे साफ-सुथरे शहरों में शुमार हो गया। आज वहां कचरे को अलग-अलग छांटने और ‘रिसाइकिल’ करने के संयंत्र लगे हैं। सैकड़ों वाहन लाखों घरों से हर रोज कचरा इकट्ठा करते हैं, जिसका वैज्ञानिक रीति-नीति से निस्तारण होता है। इंदौर, भोपाल, विशाखापट्टनम जैसे शहरों की भी यही कहानी है। दुर्भाग्य से उत्तर प्रदेश और बिहार के अधिकांश नगर ऐसे सकारात्मक प्रयासों का अभी तक इंतजार कर रहे हैं। 

यहां मैं नागरिकों की नीयत को भी झकझोरना चाहता हूं। जिन लोगों ने शहरों की सूरत बिगाड़ी, वे दूसरे ग्रह से आए लोग नहीं हैं। बात-बेबात बढ़ती जनसंख्या को दोष देना भी उचित नहीं। सफाई हो या अतिक्रमण, निगम द्वारा उपलब्ध कराए गए संसाधनों का रख-रखाव हो या सामान्य ‘सिविक सेन्स’, जनता की भूमिका हमेशा हुकूमत से कहीं अधिक महत्वपूर्ण होती है। कृपया अपने अंदर झांकिए और खुद से पूछिए कि हम और हमारे पड़ोसी क्या अपने नागरिक धर्म का पालन कर रहे हैं? 

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