मोदी का आरक्षण दांव और विपक्ष
गरीब सवर्णों को आरक्षण से कितनों का भला होगा, इस सवाल पर सार्थक बहस की जगह हर ओर शोर बरपा है कि इससे दिल्ली दरबार पर काबिज भाजपा का कितना फायदा होगा? क्या इस दांव से सरकार ने विपक्ष के हमलों की धार...
गरीब सवर्णों को आरक्षण से कितनों का भला होगा, इस सवाल पर सार्थक बहस की जगह हर ओर शोर बरपा है कि इससे दिल्ली दरबार पर काबिज भाजपा का कितना फायदा होगा? क्या इस दांव से सरकार ने विपक्ष के हमलों की धार कुंद कर दी है? चुनावी साल में ऐसे सवाल उठने लाजिमी हैं।
इस चर्चा की एक और बड़ी वजह यह है कि मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनावों में भारतीय जनता पार्टी को सवर्ण मतदाताओं की नाराजगी का सामना करना पड़ा था। इन मतदाताओं ने मतदान से पहले ही अपने गुस्से का इजहार करना शुरू कर दिया था। चुनावी नतीजे इसकी अनुगूंज मात्र थे। भाजपा के लिए हताशाजनक परिणाम गढ़ने वाले मतदाताओं का यह वर्ग कभी उसका ‘बेस वोट बैंक’ हुआ करता था।
भाजपा ने हालांकि ‘सोशल इंजीनिर्यंरग’ की शुरुआत बहुत पहले कर दी थी, लेकिन शहरी सवर्णों पर उसका पहला हक कायम रहा। इस दौरान पार्टी के कर्णधार अपने मतों का दायरा बढ़ाने में इतने मशगूल हो गए कि उन्हें पता ही नहीं चला कि पुराने नाते दरक उठे हैं। गुजरात के परिणामों ने पिछले बरस इसे जगजाहिर करना शुरू किया, पर गुजरे दिसंबर के परिणाम इतने ध्वंसकारी थे कि पार्टी संचालकों को लगा कि अब विचार नहीं, कुछ कर गुजरने का वक्त आ गया है। भाजपा का आरक्षण दांव इस धारणा को बदलने की कोशिश है।
इसीलिए सवाल उठ रहा है कि क्या नरेंद्र मोदी की दोबारा वापसी के लिए सवर्ण एक बार पुन: जी-जान एक करेंगे? आरक्षण प्रस्ताव पर बहस के दौरान संसद में प्रमुख विपक्षी दलों के बीच जो बेचैनी देखी गई, वह इसकी पुष्टि करती है। पिछले साढ़े चार वर्षों के दौरान सरकार के हर फैसले की बखिया उधेड़ने वाले लोग संसद के दोनों सदनों में बुझे मन से इस प्रस्ताव का समर्थन करते नजर आए। उनके पास कहने के लिए बस एक ही बात थी, जिसे उन्होंने पूरी शिद्दत से बार-बार दोहराया कि इस फैसले के पीछे नेकनीयती नहीं, बल्कि चुनावी हित-कामना है।
वे सवाल उठा रहे थे, अगर सरकार को वाकई गरीब अगड़ों की चिंता थी, तो उसे यह नेक काम चार वर्ष पूर्व करना चाहिए था? ऐसा होता, तो इस फैसले की राह में रोडे़ अटकाने वालों से सत्तारूढ़ गठबंधन समय रहते निपट पाता। यही नहीं, आरक्षण की फलप्रदता पर भी प्रश्न उठाए गए। विपक्षी सांसदों का कहना था कि यह संशोधन उतना कारगर नहीं होगा, जितना बताया जा रहा है। आरक्षण का मामला उम्मीद के अनुरूप सर्वोच्च न्यायालय तक पहुंच गया है। सुप्रीम कोर्ट कोई भी फैसला सुनाए, पर तय है चुनावी सर्कस में इस डुगडुगी को विपक्ष जोर से बजाएगा।
याद करें। गुजरे नवंबर में जब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की अगुवाई में अयोध्या में ‘धर्म संसद’ हुई थी, तब भी यही कहा गया था कि साढे़ चार साल बीत जाने के बाद राम मंदिर की सुधि क्यों आई? अगर सत्तारूढ़ दल और उसके सहयोगी संगठन इस मुद्दे पर गंभीर थे, तो उन्हें अपनी हुकूमत की शुरुआत में ही सार्थक कार्रवाई कर देनी चाहिए थी। टेलीविजन चैनलों की बहस में उभरा यह मुद्दा पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में लगातार भाजपा का पीछा करता रहा। परिणाम सामने है, भगवा पार्टी को तीन राज्य गंवाने पड़ गए।
क्या मोदी के आरक्षण दांव का भी यही हश्र होगा?
नतीजे पर पहुंचने से पूर्व हमें भूलना नहीं चाहिए कि राम जन्मभूमि का मुद्दा दशकों पुराना हो गया है। धर्म सनातन हो सकता है, पर उसके जरिए उपजे या उपजाए गए विवाद सदा-सर्वदा नहीं खींचे जा सकते। इसके उलट नौकरियों में आरक्षण का मुद्दा पेट से जुड़ा मसला है। पिछले 70 सालों से समाज का एक बड़ा तबका आरक्षण की मौजूदा व्यवस्था की वजह से खुद के वंचित होने के एहसास के साथ जी रहा था। अगर यह कसक इस फैसले से कुछ कम होती है, तो इसका लाभ मिल सकता है। विपक्ष अगर इससे उबरना चाहता है, तो उसे प्रखर तर्कों के साथ जनता की अदालत में हाजिर होना होगा।
यहां एक यक्ष प्रश्न सिर उठाता है। देश में आरक्षण लागू हुए 70 साल होने को हैं। इतने वर्षों में हिन्दुस्तान में सामाजिक और आर्थिक परिवर्तनों के कई दौर आए। यह समय इस व्यवस्था पर गौर करने का भी है। कहीं हम दमित वर्गों के उत्थान के साथ वंचितों का एक नया वर्ग तो तैयार नहीं कर रहे? अगर ऐसा है, तो सामाजिक संतुलन के नाम पर एक नए असंतुलन की नींव रखना कहां तक उचित है?
आरक्षण व्यवस्था के अवगुण नापने वालों का आरोप रहा है कि रेवड़ी बांटते आए सियासी दलों ने सिर्फ अपने राजनीतिक हितों पर ध्यान दिया। इसकी एवज में समाज की निचली सीढ़ियों पर बैठे लोगों की शिक्षा, सेहत और खुशहाली को दरकिनार कर दिया गया। हम एक ऐसी अर्थव्यवस्था बनाने में नाकाम रहे, जो लोगों को आर्थिक तौर पर आत्मनिर्भर बना सके। यही वजह है कि कुछ लोगों को सरकारी नौकरियां तो मिलीं, पर सर्वजन की समवेत तरक्की की राह संकरी होती चली गई। भरोसा न हो, तो कृपया इन आंकड़ों पर गौर फरमा देखिए। देश की कुलजमा धन संपदा के 53 फीसदी हिस्से पर महज एक प्रतिशत लोगों का कब्जा है।
हम इस विभेद को महज सरकारी नौकरियों में आरक्षण के जरिए नहीं पाट सकते। यहां यह जान लेना भी जरूरी है कि देश में सरकारी नौकरियों की तादाद सीमित है। अगर सारे रिक्त पद भर भी दिए जाएं, तब भी इस महारोग से मुक्ति नहीं मिलने वाली। यह दुखद है कि पिछले एक दशक के दौरान देश में रोजगार बढ़ोतरी के तमाम उपाय नाकाफी साबित हुए हैं। इस दौरान मनमोहन और मोदी, दोनों ने हुकूमत की। यह सरकारों की अक्षमता है या व्यवस्था की?
चुनावी साल में हमारे राजनेता दलगत स्वार्थ भुलाकर इस मुद्दे पर आम राय बनाते, तो अच्छा होता, पर उनकी लीक की फकीरी कायम है। वक्त बदल गया, हमारे नेता कब बदलेंगे?
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