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प्रणब की पाठशाला के सबक

नागपुर में ‘संघ शिक्षा वर्ग’ को संबोधित करते हुए पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने भारतीय राष्ट्र और राष्ट्रीयता की सहिष्णुता, सेक्युलरिज्म, बहुलता आदि शब्दों के जरिए जो व्याख्या की, उससे...

प्रणब की पाठशाला के सबक
शशि शेखरSun, 10 Jun 2018 12:13 AM
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नागपुर में ‘संघ शिक्षा वर्ग’ को संबोधित करते हुए पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने भारतीय राष्ट्र और राष्ट्रीयता की सहिष्णुता, सेक्युलरिज्म, बहुलता आदि शब्दों के जरिए जो व्याख्या की, उससे यही लग रहा था कि हम नागरिक शास्त्र की किसी कक्षा में पहुंच गए हैं। आसपास के कोहराम से अछूता एक ऐसा अध्यापक वहां व्याख्यान दे रहा है, जिसमें हर छात्र के ग्रहण करने लायक बहुत कुछ है। नागपुर के जमावड़े और किसी पाठशाला में फर्क बस इतना था कि यहां जिज्ञासा से उफनते श्रोताओं में छात्र नहीं स्वयंसेवक थे, कहीं दूर टीवी पर नजरें गड़ाए तमाम पार्टियों के नुमाइंदे थे और कांग्रेस के वे लोग थे, जो बरसों उनका हमसाया रहे। अब यह देखना शेष है कि उनके इस संबोधन से कौन क्या हासिल करता है?

दादा का लंबा सियासी सफर गवाह है कि उनके मुंह से निकली हर बात दूर तक जाती है और देर तक उसकी अनुगूंज सुनाई देती रहती है। इस सभा में शामिल होने के लिए प्रणब मुखर्जी ने पिछले कुछ हफ्तों में जो कुछ सुना और सहा, उसकी खुद उन्हें भी उम्मीद न रही होगी। आधी शताब्दी से लंबे राजनीतिक जीवनकाल में उन्होंने तमाम उतार-चढ़ाव देखे, पर विरोधियों ने भी कभी उनकी ‘सेक्युलर’ विचारधारा पर प्रश्न नहीं उठाए, लेकिन इस बार तो अपने ही परायों-सा व्यवहार कर रहे थे। दादा ने इस राजनीतिक वृंदगान को अनसुना किया। वह जानते हैं कि विचार थोपने की बजाय बांटे जाने पर अधिक असरकारी हो जाते हैं। यही भाव उन्हें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुख्यालय तक ले गया।

उन पर छींटाकशी की शुरुआत पी चिदंबरम से हुई, जिसे बाद में धीर-गंभीर अहमद पटेल और आनंद शर्मा का सहारा मिला। देखते-देखते तमाम कांग्रेसी नेता इस कोरस में अपनी तूती के साथ हाजिर हो गए। कमाल देखें। खुद उनकी पुत्री शर्मिष्ठा ने ट्वीट कर अपने पिता को सार्वजनिक तौर पर नसीहत दे डाली कि आपकी तस्वीर का भविष्य में दुरुपयोग किया जा सकता है। सियासत का यह गजब चलन है- यहां का! क्या और कितना बोलना है, इसे नेता नहीं, समय तय करता है। स्वयं प्रणब मुखर्जी इस विरोधाभास के अपवाद नहीं हैं। उन्हें सुनते हुए मुझे बेसाख्ता याद आ रहा था कि यह वही दादा हैं, जिन्होंने 2010 में कांग्रेस का वह प्रस्ताव पेश किया था, जिसमें संघ और इसके सहयोगी संगठनों के कथित भगवा आतंकी संगठनों से रिश्ते की जांच कराने की मांग थी।

हमारे नेतागण हालात के साथ खुद को बदल लेते हैं। पहले ऐसा नहीं था। गांधीजी संघ की विचारधारा से असहमत होने के बावजूद आजादी से पहले इसी कार्यक्रम में शामिल हुए थे। सन् 1962 की जंग में संघ के स्वयंसेवकों के योगदान से प्रभावित जवाहरलाल नेहरू ने उन्हें गणवेश में 26 जनवरी, 1963 की परेड में शामिल होने का न्योता दिया था। तब तक गांधीजी की हत्या को महज डेढ़ दशक  बीता था और कुछ लोगों का आरोप था कि हत्यारों के साथ संघ की सहानुभूति अथवा मिलीभगत है, पर नेहरू न डरे, न ही हिचके। 1966 के गणतंत्र दिवस समारोह में लालबहादुर शास्त्री ने इसे दोहराया, क्योंकि संघ कार्यकर्ता 1965 के पाकिस्तान युद्ध में भी देश के काम आए थे। जब गांधी, नेहरू और शास्त्री नहीं सकुचाए, तो आज यह बावेला क्यों? 

आलोचना और खेमेबंदी के इस विरल वक्त में ध्यान रखना चाहिए, अधूरे अथवा असत्य आरोपों के बल पर राजनीति तो चमकाई जा सकती है, पर स्वस्थ लोकतंत्र के लिए जरूरी है कि हम हर वैधानिक संगठन के साथ विचार विनिमय को तैयार रहें। गांधी कहते थे कि अंग्रेजों से नफरत करने की बजाय उन्हें समझने की कोशिश करो और उसके बाद अपनी बात उन्हें समझाओ। प्रणब मुखर्जी ने नागपुर जाकर गांधीवादी होने का सुबूत दिया है या गांधीद्रोही होने का?

यहां यह बताना जरूरी है कि संघ के प्रति जरूरत से ज्यादा बयानबाजी ने भी उसे साल-दर-साल मजबूत किया है। आज उसकी राजनीतिक भुजा भाजपा दिल्ली सहित 20 सूबाई राजधानियों पर इसी वजह से काबिज है। आप इतने ताकतवर संगठन को सदा-सर्वदा अछूत कैसे बनाए रख सकते हैं? पहले इसी तरह के समारोह में वामपंथियों के अलावा डॉक्टर एपीजे अब्दुल कलाम शामिल हो चुके हैं। नीलम संजीव रेड्डी तो राष्ट्रपति रहते हुए संघ के कार्यक्रम में शरीक हुए थे। सब जानते हैं कि राष्ट्रपति बनने के बाद कोई किसी पार्टी का सदस्य नहीं रह जाता, फिर यह विवाद क्यों? 

इस विषय पर विचार करते हुए हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि प्रणब मुखर्जी के वक्त में राष्ट्रपति भवन के दरवाजे हर वर्ग के लोगों के लिए हमेशा खुले रहते थे। एक निजी अनुभव आपसे बांटना चाहता हूं। मैं काशी हिंदू विश्वविद्यालय में पढ़ा। एक बार वहां के एक अति महत्वपूर्ण पदाधिकारी ने मुझे फोन कर कहा कि अपने विश्वविद्यालय के लिए कुछ करिए। हम साधनों की कमी से जूझ रहे हैं। मैंने उनसे विनम्रतापूर्वक पूछा कि मुझे क्या करना चाहिए? उन्होंने सुझाव दिया कि राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी विश्वविद्यालयों की स्थिति को लेकर बेहद संवेदनशील हैं, आप उनसे मिलिए। मैंने समय मांगा और दो दिन बाद मैं प्रथम नागरिक के समक्ष था। 

प्रणब दा ने मुझे धीरजपूर्वक सुना और कहा कि अगर आप सभी जरूरियात का प्रेजेंटेशन मुझे भेज दें, तो सुविधा होगी, क्योंकि दिक्कतें सिर्फ एक विभाग से जुड़ी हुई नहीं हैं। मैं स्वयं संबंधित मंत्रियों से बात करूंगा। इसके बाद देर तक वह विश्वविद्यालयों की पस्त होती हालत पर बात करते रहे। बड़ी शिद्दत से उन्होंने बताया कि किस जतन से रवींद्रनाथ ठाकुर और मदन मोहन मालवीय ने दो महान विश्वविद्यालयों की नींव रखी थी। अब उन्हें नए खाद-पानी की जरूरत है। घाघ और स्वार्थी राजनीतिज्ञों के दुखद दौर में प्रणब मुखर्जी एक अलग आभा रखते हैं। नागपुर जाकर उन्होंने भला किया या बुरा? इसका फैसला देश के जनमानस पर छोड़ दीजिए। आगे भी वह राष्ट्रपतियों के लिए मिसाल बने रहेंगे। 

दरअसल, इन दिनों हम वैचारिक असहिष्णुता और अविश्वास के दौर से गुजर रहे हैं। सभी मत और वर्ग के लोग इस संक्रमण के शिकार हो चुके हैं। यहां यह सवाल भी उठता है कि जो लोग सांविधानिक संस्थाओं में छेड़छाड़ का आरोप लगाते हैं, वे सुविधानुसार इनकी मर्यादाओं को बिसरा कैसे सकते हैं? अगर आप इन संस्थाओं की गरिमा बहाल रखना चाहते हैं, तो उन्हें चलाने वालों पर यकीन भी करना होगा। प्रणब दा की पाठशाला का एक पाठ यह भी है।

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