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घृणा के बीज जो बरगद बन गए

सईद मोलाई का नाम सुना है आपने? जूडो का यह पूर्व विश्व चैंपियन इन दिनों संकट में है। तेहरान की हुकूमत ने उसे विश्व चैंपियनशिप प्रतियोगिता से दूरी बरतने को कहा था। ऐसी संभावना थी कि इस प्रतियोगिता में...

घृणा के बीज जो बरगद बन गए
शशि शेखरSat, 21 Sep 2019 08:22 PM
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सईद मोलाई का नाम सुना है आपने? जूडो का यह पूर्व विश्व चैंपियन इन दिनों संकट में है। तेहरान की हुकूमत ने उसे विश्व चैंपियनशिप प्रतियोगिता से दूरी बरतने को कहा था। ऐसी संभावना थी कि इस प्रतियोगिता में उसका मुकाबला एक इजरायली जुडोका से हो सकता है। आधुनिक विश्व को पहली इस्लामिक-क्रांति देने वाला यह देश भला कैसे स्वीकार कर सकता है कि उसका कोई नौजवार्न रंग में किसी यहूदी से हाथ मिलाए?
 

सईद को यह हुक्म नागवार गुजरा। उसने आगे बढ़ने का फैसला किया। नतीजतन, उसकी अपनी हुकूमत उसके खिलाफ हो गई और अब उसे जर्मनी के किसी शहर में शरण लेनी पड़ रही है। अंतरराष्ट्रीय जूडो महासंघ जरूर उसके साथ खड़ा है, पर मामला खेल के मैदान से हटकर सियासी खेल में तब्दील हो गया है। सईद को डर है कि कहीं ईरान में उसके घरवाले राज्य पोषित हिंसा के शिकार न हो जाएं? आप 2016 का रिओ ओलंपिक याद करें। तब मिस्र के जूडोका इस्लाम अल शहाबी ने मैच हारने के बाद इजरायली खिलाड़ी से हाथ मिलाने से मना कर दिया था।

2004 में एथेंस ओलंपिक के दौरान दो बार जूडो के विश्व चैंपियन रह चुके ईरानी अर्श मीरइस्माइली ने भी इजरायल के जूडोका एहुद वक्स का सामना करने से किनारा कर लिया था। खेलों में नस्लीय और सांप्रदायिक विद्वेष का शर्मनाक इतिहास है। पहले इसेशासकों ने रचा, अब इन देशों का समाज उसे पोस रहा है। 


राज्य पोषित हिंसा ने इन देशों की रौनक छीन ली है। कभी दूसरों को सरेआम नुचवा डालने वाले लीबिया के तानाशाह कर्नल गद्दाफी खुद ‘लिंचिंग’ के शिकार हो गए थे। नफरत का दस्तूर है। वह दुश्मनों के साथ विद्वेष रचने वालों का भी खात्मा करती चलती है। इसके शिकार अरब हुक्मरानों की लिस्ट लंबी है।


घोर कट्टर इस्लामी देशों को छोड़िए, अब इस छूत का असर विश्व के सर्वाधिक समावेशी पश्चिमी समाज पर भी पड़ रहा है। अमेरिका में सिख अक्सर इस अंदेशे में पिट जाते हैं कि वे अरब कट्टरपंथी हैं। खुद को प्रगतिशील विचारों का अगुवा कहने वाले पेरिस में भारत से गए एक सरकारी प्रतिनिधि-मंडल को तब आश्चर्य का सामना करना पड़ा, जब एफिल टावर के पास देर शाम कुछ लोगों ने उन्हें ‘पाकी-पाकी’ कहकर दौड़ा लिया। एक भुक्तभोगी ने बताया कि अगर हमारा होटल वहां पास में नहीं होता, तो यकीनन जबर्दस्त हिंसा के शिकार हो गए होते, क्योंकि हमें घेरने वालों की तादाद बढ़ती जा रही थी। 


खुद हमारे देश में भीड़ हिंसा की घटनाएं आम होती जा रही हैं। पहले तो कुछ तथाकथित गोरक्षकों ने कानून हाथ में लिया, अब सामान्यजन अलग-अलग कारणों से इसके शिकार बन रहे हैं। हिंदीभाषी राज्यों के विभिन्न कोनों से हर रोज बच्चा चोरी के आरोप में सांघातिक पिटाई की खबरें आ रही हैं। अलग-अलग वजहों से लोग हिंसा के खूनी आवेग का निवाला बन रहे हैं।

राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में कुछ समय पहले दो नौजवानों ने एक मोटर साइकिल सवार को सिर्फ इसलिए पीट-पीटकर मार डाला कि वह आगे निकलने की फिराक में बार-बार हॉर्न बजा रहा था। ऐसा लगता है, जैसे हमने एक हिंसक समाज रच दिया है, जो मौका मिलते ही फट पड़ता है। ये लोग लम्पट अथवा गुण्डे नहीं, ‘आम आदमी’ हैं। आम आदमियों का समूह आम आदमी का शिकार करे, क्या ऐसा कभी सोचा था?

क्या हमारा भरोसा विधि-व्यवस्था से उठने लगा है? कुछ सवालों के जवाब हां या न की सामान्य कवायद से पूरे नहीं होते, पर स्थिति विकराल है। कब, कौन, कैसी हिंसा का शिकार हो जाएगा, इसका कुछ पता नहीं। 

राजनीतिज्ञ ऐसी घटनाओं पर अक्सर एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप जड़ अपना मतलब साधने की कोशिश करते हैं, लेकिन क्या किसी खास विचारधारा की सरकारें इसके लिए जिम्मेदार हैं? ऐसा कैसे कह सकते हैं? पिछले दिनों भाजपा शासित झारखंड में भीड़ हिंसा के मामले में 11 दोषियों को आजन्म कारावास की सजा सुना दी गई, जबकि बहुचर्चित पहलू खान हत्याकांड में अलवर की अदालत ने अपराधियों को बाइज्जत बरी कर दिया। वहां कांग्रेस हुकूमत में है। पहलू खान की हत्या के वीडियो आज भी सोशल मीडिया पर मौजूद हैं। इसके बावजूद राज्य पुलिस अपराध क्यों नहीं साबित कर सकी? मतलब साफ है कि यह राजनीति नहीं, बल्कि धरती पर नई उपजी उस ताप धारा का कमाल है, जिसने अलवर से अटलांटा तक लोगों को अपनी जद में ले लिया है। 


पिछले दिनों बुलंदशहर में उत्तर प्रदेश पुलिस के इंस्पेक्टर सुबोध कुमार सिंह भीड़ हिंसा के शिकार हुए थे। कुछ समय पहले उनके हत्यारोपियों को जमानत मिली। जब वे जेल से बाहर आए, तो बड़ी संख्या में लोगों ने उनका ऐसे स्वागत किया, मानो वे कोई जंग जीतकर लौट रहे हों। कुछ जोशीले लोगों ने ‘भारत माता की जय’ और ‘वंदे मातरम्’ के नारे तक लगा डाले। ये नारे लगाते हुए कभी अशफाक उल्ला खां और भगत सिंह जैसे क्रांतिकारी फांसी के फंदे पर चढ़े थे। उस कठिन लम्हे में देश के उन महान बलिदानियों ने यह सोचा भी न होगा कि इन अनमोल नारों की कभी ऐसी दुर्गति होगी। कहने की जरूरत नहीं कि हत्यारों का सार्वजनिक अभिनंदन सिर्फ हिंसक समाज की संरचना कर सकता है। 

संकट के इन क्षणों में अक्सर 540 ईसा पूर्व के महान ग्रीक तर्कशास्त्री हेराक्लाइटस याद आते हैं। उन्होंने कहा था, आपका चरित्र कैसा होगा, यह आप खुद तय करते हैं। दिन-प्रतिदिन, आप जैसा चुनते हैं, आप जैसा सोचते हैं और आप जैसा करते हैं, आप वैसे ही हो जाते हैं। 

आज नहीं तो कल हमें उन लोगों से जूझना ही होगा, जो सोशल मीडिया के जरिए सामान्य जन की मति पर परदा डालने में जुटे हैं।

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