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अपनी जिम्मेदारी से भागता विपक्ष

आपको कुछ देर के लिए लगभग साढे़ चार सौ साल पीछे लिए चलता हूं। पानीपत के उस मैदान में, जहां हेमचंद्र विक्रमादित्य (हेमू) के सामने बैरम खां मुगल फौज लिए खड़ा था। इस फौज को हेमू ने एक महीना पहले न केवल...

अपनी जिम्मेदारी से भागता विपक्ष
शशि शेखरSun, 04 Aug 2019 07:07 AM
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आपको कुछ देर के लिए लगभग साढे़ चार सौ साल पीछे लिए चलता हूं। पानीपत के उस मैदान में, जहां हेमचंद्र विक्रमादित्य (हेमू) के सामने बैरम खां मुगल फौज लिए खड़ा था। इस फौज को हेमू ने एक महीना पहले न केवल हराया था, बल्कि दिल्ली पर कब्जा कर खुद को सम्राट घोषित कर दिया था। बैरम खां के सामने मुगलिया सल्तनत की दिल्ली के तख्त पर वापसी और 13 वर्षीय सम्राट अकबर को स्थापित करने की दो बड़ी जिम्मेदारियां थीं। बैरम खां जानता था कि मुगल सेना का मनोबल बुरी तरह से हिला हुआ है। खुद उसे अपनी जीत का भरोसा न था। इसीलिए उसने अकबर को युद्धक्षेत्र से थोड़ी दूर पांच हजार भरोसेमंद सिपाहियों की निगहबानी में रख छोड़ा था। उस दस्ते को आदेश था कि अगर मुगलिया फौज हार जाती है, तो अकबर को सकुशल काबुल पहुंचाने की जिम्मेदारी उसे निभानी होगी।

जंग शुरू हुई। हेमू हाथी पर सवार होकर बढ़ा चला आ रहा था। दोनों ओर के योद्धा जान पर खेलकर शत्रु के प्राण लेने को आमादा थे। इसी बीच एक तीर हेमू की आंख में जा घुसा। वह हौदे से गिर पड़ा। घबराया हुआ हाथी अपनी ही सेना को कुचलता हुआ पीछे की ओर दौड़ पड़ा। हौदे पर अपने सम्राट को न पाकर हेमू के सैनिकों का जोश ठंडा पड़ गया और वे खुद-ब-खुद तितर-बितर होने लगे। कहते हैं, मुगल सेना के साथ हेमू के हाथियों ने भी अपनी फौज को क्षति पहुंचाई। हाथियों पर सवारी के नुकसान राजस्थान के कुछ और राजाओं को भी उठाने पडे़ थे।

छात्र जीवन के दौरान इतिहास की पोथियां पलटते हुए मेरे मन में सवाल उठता था कि यदि ये राजा हाथियों पर सवार नहीं होते, तो न केवल जंग का रुख कुछ और होता, बल्कि भारतीय इतिहास के नायक और खलनायक भी बदले हुए होते। वक्त बदल गया है, अब लड़ाइयां जमीन के लिए नहीं, बल्कि वोटों के लिए होती हैं और हाथियों की जगह अब सियासी सफेद हाथियों ने ले ली है। कहने की जरूरत नहीं कि इन पर भरोसा करने वाले नेताओं को सत्ता-सुख गंवाना पड़ता है। ये सफेद हाथी चुनावी जंग में जो नुकसान पहुंचाते हैं, वह अपनी जगह है, पर उनके आका बाद में भी इनकी वजह से संताप और संत्रास झेलते हैं। राज्यसभा में तीन तलाक बिल पर बहुमत विहीन सरकार की जीत पानीपत की दूसरी लड़ाई की याद दिलाती है। विपक्ष संख्या बल के बावजूद शिकस्त को सिर्फ इसलिए हासिल हुआ, क्योंकि छोटी-बड़ी पार्टियों के 20 से अधिक सांसदों ने मतदान में हिस्सा नहीं लिया। इससे पहले आरटीआई बिल के दौरान भी कुछ ऐसे ही हालात देखने को मिले थे।

आजाद भारत के लोकतांत्रिक इतिहास में सत्तारूढ़ दल का ऐसा दबदबा इससे पूर्व कभी देखने को नहीं मिला। आप चाहें, तो इसके लिए नरेंद्र मोदी और अमित शाह की जोड़ी को बधाई दे सकते हैं। कहने की जरूरत नहीं कि लोकतंत्र में विपक्ष संख्या बल नहीं, बल्कि नैतिक बल के आधार पर संसद और विधानमंडलों में सत्ता पक्ष का विरोध करता है। जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा गांधी लोकप्रियता के शिखर पर थे। संसद के दोनों सदनों में कांग्रेस के पास शानदार बहुमत था, पर राम मनोहर लोहिया, मधु लिमये, पीलू मोदी, अटल बिहारी वाजपेयी जैसे लोग संसद में उनकी बखिया उधेड़ देते थे। आज संसद में हो-हल्ला जो भी मचे, पर जब परिणामों की बारी आती है, तो विपक्ष का सहमापन साफ नजर आता है।

ऐसा होना स्वाभाविक है। संसद के दोनों सदनों में विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी है कांग्रेस। आरटीआई और तीन तलाक जैसे मुद्दों पर पार्टी की राय जगजाहिर है। होना तो यह चाहिए था कि राहुल गांधी खुद इस बहस की अगुवाई करते, पर वह नदारद थे। यही हाल बिहार में प्रमुखतम विपक्षी पार्टी राष्ट्रीय जनता दल का है, वहां पर तेजस्वी यादव लापता हैं। पानीपत की दूसरी लड़ाई में हेमू का खाली हौदा देखकर भगदड़ मची थी, आज वही कहानी दोहराई जा रही है। जिस दिन तीन तलाक पर मत विभाजन होना था, उसी दिन कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और राज्यसभा सदस्य संजय सिंह यह कहते हुए त्यागपत्र दे देते हैं कि हमारे यहां नेतृत्व की शून्यता है। अगले दिन महाराष्ट्र में राष्ट्रवादी कांग्रेस के तीन और कांग्रेस का एक विधायक भगवा दल की गोद में जा बैठता है। इससे पूर्व कर्नाटक में कांग्रेस के 14 विधानसभा सदस्य पार्टी छोड़ देते हैं, हफ्ता भर से अधिक सियासी ड्रामा चलता रहता है, सरकार तक गिर जाती है, परंतु वह आलाकमान नदारद रहता है, जिसके इशारे पर कर्नाटक कांग्रेस ने अपने से छोटी पार्टी जनता दल (एस) के कुमारस्वामी को मुख्यमंत्री बना दिया था। इसी दौरान पड़ोसी राज्य गोवा में 15 में से 10 कांग्रेस विधायक भगवा पार्टी की शरण में चले जाते हैं। उन्हें रोकने-टोकने वाला कोई नहीं था।

खाली हौदे देखकर सैनिकों में भगदड़ की परंपरा पुरानी है। इस साल के अंत में महाराष्ट्र, हरियाणा, झारखंड और जम्मू-कश्मीर में विधानसभा के चुनाव होने हैं। कांग्रेस इनमें से तीन राज्यों में स्पष्ट तौर पर प्रमुख विपक्षी पार्टी है। अगर यही हाल रहा, तो देश की सबसे पुरानी पार्टी को कुछ और बुरी खबरें सुनने के लिए तैयार रहना चाहिए। मैं यहां विनम्रतापूर्वक एक बार फिर बैरम खां की याद दिलाना चाहूंगा। बैरम खां ने हारी हुई मुगल फौज के मनोबल को फिर से जगाने और जमाने में सफलता पाई थी। क्या राहुल गांधी, अखिलेश यादव, तेजस्वी यादव और उन जैसे तमाम विपक्षी नेताओं ने इस कहानी को नहीं सुना है? उन्हें याद रखना चाहिए कि जंग चाहे बादशाहों की हो, अथवा लोकतांत्रिक नेताओं की, इसमें हार-जीत कभी स्थाई नहीं रहती। जो कल जीते थे, वे आज हारे हुए हैं और उस समय के पराजित आज के विजेता हैं। विपक्ष को यह समझना ही चाहिए कि अगर वे अपनी जिम्मेदारी से भागेंगे, तो अगली लड़ाइयों के परिणाम भी अनुकूल नहीं होंगे। देश का मतदाता उन्हें देख रहा है।

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