राहुल का रण अभी शेष है
कौन कहता है कि चांदी का चम्मच मुंह में लेकर पैदा होने वाले सदा-सर्वदा फायदे में रहते हैं? विश्व का इतिहास उठा देखिए, नामी-गिरामी खानदान के नौनिहालों से सार्वजनिक जीवन में बेहतर आचरण और प्रदर्शन की...
कौन कहता है कि चांदी का चम्मच मुंह में लेकर पैदा होने वाले सदा-सर्वदा फायदे में रहते हैं? विश्व का इतिहास उठा देखिए, नामी-गिरामी खानदान के नौनिहालों से सार्वजनिक जीवन में बेहतर आचरण और प्रदर्शन की उम्मीद की जाती है। यही नहीं, खानदानी परंपराओं का बोझ पैदा होते ही उनके कंधों पर लाद दिया जाता है। कभी न उतरने वाला यह भार हमेशा उनकी गति को चुनौती देता रहता है।
राहुल गांधी को लें। विरोधी खिल्ली उड़ाते आए हैं कि पैदा होते ही तय हो गया था कि वह भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष बनेंगे। ऐसा कहते समय आसानी से बिसरा दिया जाता है कि उनकी जिम्मेदारियों का पहाड़ कितना दुरूह है! उन्हें हरदम देश के तीन यशस्वी प्रधानमंत्रियों से प्रतिस्पद्र्धा करनी पड़ती है। बाहर वाले से तुलना हो, तो आप उसके बारे में मन की बात कह सकते हैं, पर जब पिता, दादी या परनाना मुकाबिल हों, तब? कांग्रेस जैसी बहुलवादी पार्टी की अध्यक्षता वैसे भी किसी अग्नि-परीक्षा से कम नहीं।
आज ही के दिन एक साल पहले उन्होंने बतौर अध्यक्ष पार्टी की कमान संभाली थी। हिंदी पट्टी के तीन राज्यों को जीतने के बाद कल तक उनकी आलोचना कर रहे लोगों को उनमें अब नई रोशनी दिखाई पड़ती है, पर यहां तक पहुंचने के लिए राहुल ने भीषण संघर्ष किया है।
याद करें। 2004 में वह पहली बार अमेठी संसदीय क्षेत्र से लोकसभा के लिए चुने गए। तब तक पिता राजीव गांधी को गुजरे 13 साल हो चुके थे और इस दौरान उनके परिवार को राजनीति से बेदखल करने के लिए क्या-क्या कोशिशें नहीं हुईं? कल तक जो लोग उनकी दादी और पिता की महज एक नजर के लिए तरसते थे, वे मुखालफत पर उतर आए थे। अपनी पांच साला हुकूमत के दौरान नरसिंह राव ने लंबी लकीर खींचने की कोशिश की और वर्षों तक ‘वफादार’ रहे सीताराम केसरी की भी आकांक्षाओं के पर उग आए थे। इन्हीं ‘चचा’ केसरी ने एक बार मुझसे कहा था, नेहरू-गांधी परिवार उस सूरज की तरह है, जिसके बहुत पास जाओगे, तो ताप से झुलस जाओगे, ज्यादा दूर रहोगे, तो ठंड से मर जाओगे। वह कठिन समय था। संन्यास की उम्र हासिल कर चुके लोगों की सत्ता लालसा लहलहा रही थी और नौजवान कार्यकर्ताओं को गांधी परिवार में उम्मीद नजर नहीं आती थी।
राव की पांच साला हुकूमत के बाद मंदिर की आस्था और सोशल इंजीनियरिंग की कॉकटेल के सुरूर पर सवार अटल बिहारी वाजपेयी 7, रेसकोर्स रोड में विराज चुके थे। कांग्रेसियों के लिए चरम हताशा के इस गर्त से उबरने का एक ही आसरा था- गांधी परिवार। सोनिया गांधी ने एकाकी चुप्पी की चादर ओढ़ रखी थी, पर कांग्रेसियों ने खुद उनका दरवाजा खटखटाया। आगे का चुनाव उम्मीदें लेकर आया। राहुल के राजनीतिक अवतरण के साथ ही सोनिया गांधी के संयुक्त प्रगतिशील मोर्चे ने 2004 में देश के सत्ता-शीर्ष पर फिर आसन जमा लिया। मोर्चे की कमान भले ही सोनिया गांधी के हाथ में थी, मगर प्रधानमंत्री की कुरसी पर मनमोहन सिंह आसीन थे। इस द्वैत को चलाना आसान न था। इसी दौरान 24 सितंबर, 2007 को कांग्रेस अध्यक्ष ने राहुल को पार्टी का महासचिव बना दिया।
मुझे याद है। इससे कुछ महीने पूर्व उत्तर प्रदेश में विधानसभा के चुनाव थे। मैं एक राष्ट्रीय चैनल पर बहैसियत विशेषज्ञ बहस में हिस्सा ले रहा था। जिस दिन परिणाम आए, उस दिन खास तौर पर यह खोज की गई कि राहुल जहां-जहां प्रचार करने गए थे, वहां कांग्रेस का क्या हुआ? मैंने कहा भी कि सिर्फ राहुल क्यों, आप औरों की भी तो समीक्षा कीजिए? पर नहीं। थोड़ी देर में टीवी के परदे पर हेडलाइन उभर रही थी, राहुल उत्तर प्रदेश के रण में फेल। उन्हें बंटती-बिखरती पार्टी के साथ नकारात्मक अवधारणा से भी निपटना था। निस्संग राहुल का रण चौतरफा था।
ध्यान दें। पार्टी के अंदर 90 साल के खुर्राट नेताओं से लेकर नौजवान कार्यकर्ताओं के बीच तीन पीढ़ियों का फासला था। इसे पाटना कठिन था। राहुल गांधी ने धीमे-धीमे इनके बीच सामंजस्य का नया रसायन विकसित किया। पिछले दिनों संपादकों के साथ अनौचारिक मुलाकात में उन्होंने कहा भी कि कांग्रेस अकेली ऐसी पार्टी है, जिसके पास मनमोहन सिंह और चिदंबरम जैसे बुजुर्ग मेधावी हैं, तो ज्योतिरादित्य सिंधिया और सचिन पायलट जैसे ऊर्जस्वित नौजवान भी। मैं इस सामंजस्य को पार्टी का सौभाग्य मानता हूं। किसी और पार्टी के पास ऊर्जा, मेधा और अनुभव का ऐसा सामंजस्य नहीं है। मैं इसे भला क्यों तोड़ूं?
इसी दौरान पिछले पांच सालों में उन्हें भद्दी आलोचनाओं का सामना करना पड़ा। सोशल मीडिया के अदृश्य जादूगरों ने राहुल को ‘पप्पू’ साबित करने की कोशिश की। वह कैसे बोलते हैं, कैसे उठते-बैठते हैं, क्या पहनते हैं, छुट्टी पर क्यों जाते हैं, उनकी निजी जिंदगी में क्या हो रहा है? उन्हें सवालों के बोझ तले कुचल देने की कोशिश की गई। सियासी विरोधी कोई कसर नहीं छोड़ना चाहते थे, लिहाजा उनके पूर्वजों को भी कपोल-कल्पित कथाओं के जरिए जलील किया जा रहा था, पर वह डटे रहे। नेहरू-गांधी परिवार के किसी भी सदस्य को घर और बाहर कभी इतना लंबा संघर्ष नहीं करना पड़ा। छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और राजस्थान जीतकर उन्होंने साबित कर दिया है कि हर ठोकर ने उन्हें सुर्खरू बनाया। अपमान की हर ज्वाला ने उन्हें निखारा। बिना तपे सोना कहां कुंदन बनता है?
इन चुनावों में जीत के बाद राहुल गांधी ने पहली पे्रस कॉन्फ्रेंस में जिस विनम्रता का परिचय दिया, उससे स्पष्ट है कि वह राजनीति में धूमिल पड़ती जा रही मर्यादाओं को फिर से जिंदा करना चाहते हैं। उम्मीद है, वह यह भी समझते होंगे कि काम अभी अधूरा है। 2019 में उनका सामना मोदी और शाह की बेहद आक्रामक एवं साधन संपन्न जोड़ी से होना है। इनकी चुनावी रणनीति को ध्यान से परखने वाले समझते हैं कि वे सिर्फ जीत के लिए चुनाव लड़ते हैं। इन तीन झटकों के बाद तय है कि वे पहले के मुकाबले कहीं अधिक सतर्क, सजग और सन्नद्ध भाव से 2019 के चुनावी समर में उतरेंगे।
राहुल गांधी की अग्नि-परीक्षा अभी खत्म नहीं हुई है।
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