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केजरीवाल को जो समझना है

दिल्ली नगर निगम चुनाव की मतगणना ने अभी कुछ संकेत भर जाहिर किए थे कि ‘आप’ की ओर से आरोप उछला कि यह भाजपा की नहीं, बल्कि ईवीएम की लहर है। जाहिर है, वे हार का दोष ईवीएम पर मढ़ रहे थे। क्यों...

केजरीवाल को जो समझना है
शशि शेखरTue, 23 May 2017 09:07 PM
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दिल्ली नगर निगम चुनाव की मतगणना ने अभी कुछ संकेत भर जाहिर किए थे कि ‘आप’ की ओर से आरोप उछला कि यह भाजपा की नहीं, बल्कि ईवीएम की लहर है। जाहिर है, वे हार का दोष ईवीएम पर मढ़ रहे थे। क्यों नहीं आप के कर्णधार अपने इन आरोपों को साबित करने के लिए चुनाव आयोग को अपनी ओर से ईवीएम परीक्षण की चुनौती देते?

उनके नेता अरविंद केजरीवाल देश के सर्वोच्च शिक्षण संस्थान- आईआईटी से स्नातक हैं। मतदाता उनसे अपने दावे के सत्यापन की उम्मीद तो कर ही सकता है। ‘आप’ के अतीत को देखकर लगता नहीं कि वे अपनी बयानबाजी से आगे बढ़ेंगे। अब तक उसके अगुवा आरोप लगाकर अगली तोहमत गढ़ने के लिए आगे बढ़ते रहे हैं।

नई दिल्ली नगर निगम के चुनावों ने साबित कर दिया है कि अरविंद केजरीवाल ने जिस वैकल्पिक राजनीति का भरोसा देकर आशातीत बहुमत हासिल किया था, उसके धुर्रे बिखर गए हैं। नरेंद्र मोदी अथवा भाजपा के लिए यह जीत उतनी महत्वपूर्ण नहीं है, जितनी आम आदमी पार्टी के लिए उसकी पराजय। यह पराजय ‘आप’ के उन हवाई किलों को ध्वस्त कर देती है, जिसके सहारे केजरीवाल राष्ट्रीय विकल्प बनने की चाहत पाल बैठे थे। 
आपको थोड़ा पीछे ले चलता हूं। 
बात अन्ना हजारे के दिल्ली पदार्पण से पहले की है। अरविंद और उनके कुछ साथी भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम चला रहे थे। वे लोगों तक पहुंचते, तार्किक तौर पर अपनी बात रखते। साधारण कद-काठी के बावजूद वैचारिक दृढ़ता उन्हें औरों से अलग करती। तब तक ऐसा नहीं लगता था कि वह कभी राजनीति में आएंगे। इसीलिए तमाम विचारशील व्यक्तित्व उनसे जुड़ रहे थे, क्योंकि भ्रष्टाचार आजाद भारत के बाद पली-बढ़ी तीन पीढ़ियों का साझा दर्द था। ये वे लोग थे, जो राजनीति से इसलिए नफरत करने लगे थे, क्योंकि उन्हें अपने नेताओं की नीयत पर भरोसा नहीं रह गया था। वे कुछ करने को उतावले थे, पर रास्ता नहीं सूझ रहा था। इसीलिए जब अरविंद और उनके साथी अन्ना हजारे को दिल्ली लाए, तो मजमा जुटने लगा। ऐसा लगा, जैसे आक्रोश चरम पर पहुंच गया है। उन दिनों रामलीला मैदान में जन सैलाब ठाठें मारता, जोशीले भाषण होते और जयप्रकाश नारायण के आंदोलन की असफलता को भूल चुकी पीढ़ी सत्तर के दशक के तराने गाती।

तभी लगने लगा था कि अरविंद के मन में इस आंदोलन से आगे का विचार पक रहा है। अन्ना हजारे राजनीति के सख्त खिलाफ थे, पर केजरीवाल ने साथियों को समझाया कि अगर सियासत का रंग-ढंग बदलना है, तो हमें खुद सियासतदां बनना पड़ेगा। देखते-देखते ऐसे लोगों की जमात तैयार हो गई, जो राजनीति को बदलने की नीयत से राजनेता बनने को तैयार थी। सवाल था अन्ना का, पर उन जैसे लोगों की नियति सिर्फ निर्वासन होती है। वह एक बार फिर रालेगण सिद्धि के एकाकीपन के हवाले हो गए। 

राजनीति के मैदान में केजरीवाल सिर्फ जीतने की नीयत से उतरे। कहते हैं कि उस दौरान नई दिल्ली के जंगपुरा स्थित एक मकान में बैठक हुई, जिसमें योगेंद्र यादव ने कुछ आंकड़े पेश किए। ये आंकड़े बताते थे कि अगले दो चुनावों में उन्हें शिकस्त मिलेगी और तीसरे में विजय के आसार हैं। यह भी कहा जाता है कि केजरीवाल ने उस दिन कहा था कि हमारे पास इंतजार का वक्त नहीं है, हम सिर्फ जीतने के लिए चुनाव लड़ेंगे। वह दिल्ली विधानसभा के चुनाव में उतरे और जीते, पर जीतने की जल्दबाजी में वह उन सिद्धांतों से समझौता करते चले गए, जिनका हवाला देते हुए उन्होंने ताल ठोकी थी। इसीलिए आपराधिक मामलों में उनके तमाम मंत्रियों-विधायकों को जेल जाना पड़ा। किसी की डिग्री फर्जी निकली, तो कोई कैमरे पर कुकर्म करता पकड़ा गया। 
अब भी उनके तमाम विधायकों पर कानून की तलवार लटकी हुई है। 
यहीं से केजरीवाल की ‘वैकल्पिक राजनीति’ की बखिया उधड़नी शुरू हुई। पार्टी में मनभेद पनपने लगा। केजरीवाल ने ऐसे में वही किया, जो उनके विपक्षी करते आए थे। उन्होंने प्रशांत भूषण और योगेंद्र यादव को पार्टी से निकाल दिया। पंजाब में भी चार में से दो सांसद उनके खिलाफ हो गए। पार्टी के संस्थापक सदस्य घुटन महसूस करने लगे। आरोप उछलने लगे कि आम आदमी पार्टी सिर्फ दो-चार व्यक्तियों का साझा उपक्रम है और इसमें स्वतंत्र आवाजों की जगह नहीं है। 

ऐसे में, उन्हें और उनके साथियों को थोड़ी ठंड (दिल्ली की भाषा में) रखनी चाहिए थी। हुआ उलटा। वे जब सार्वजनिक तौर पर अवतरित होते, कोई नया आरोप उनके वक्तव्य का हिस्सा होता। ‘आप’ के प्रवक्ताओं ने भी यही राह पकड़ी। परिणाम? पार्टी की छवि ‘निगेटिव’ बनती चली गई। इससे पार्टी का ग्राफ नीचे गिरने लगा, क्योंकि लोग उनसे जिस काम की उम्मीद लगाए बैठे थे, वह सिरे से नदारद था। बदले में सिर्फ आरोप अथवा नकारात्मक तथ्य परोसे जा रहे थे। 

यहां यह भी ध्यान रखना चाहिए कि आम आदमी पार्टी और नरेंद्र मोदी एक ही समय में राष्ट्रीय फलक पर उभरे। दोनों ने ही भ्रष्टाचार का विरोध किया और जन-साधारण के हक-हुकूक की तरफदारी की। वह भारतीय राजनीति का विरल वक्त था। तमाम घोटाले सामने आते जा रहे थे और तत्कालीन प्रधानमंत्री अपनी काबिलियत और ईमानदारी के बावजूद चुप थे। लोग परिवर्तन चाहते थे। उन्हें मोदी और केजरीवाल, दोनों में मुक्ति का आसरा दिखा। हम भारतीय पता नहीं क्यों दोनों ध्रुवों पर एक साथ सवारी करना चाहते हैं। सत्ता पाते ही नरेंद्र मोदी ने अपने मंत्रियों को 24 घंटे काम में झोंककर संदेश दिया कि हम भले ही आनन-फानन में अपने वायदे पूरे न कर सकें, पर उन्हें पूरा करने की दिशा में ईमानदार कोशिश जारी है। यह वही ‘स्पेस’ था, जिस पर ‘आप’ अपना प्रभुत्व चाहती थी। मोदी और शाह की जोड़ी ने उसे सिमटने पर मजबूर कर दिया। 
लगातार गरम होती हवा के दौर में केजरीवाल को अपना सारा ध्यान दिल्ली के विकास पर लगाना चाहिए था। इसके उलट वह गोवा और पंजाब के बहाने पूरे देश को जीतने का स्वप्न देखने लगे। नतीजा सामने है। यह भी संभव है कि आने वाले दिनों में भाजपा उनकी सरकार गिराने की कोशिश करे अथवा उन्हें पार्टी में टूट का सामना करना पड़े, पर यह मान लेना जल्दबाजी होगी कि केजरीवाल और उनके साथियों का सियासी करियर समाप्त हो चुका है। 

राजनीति में संभावनाएं कभी समाप्त नहीं होतीं। जो ठोकरों से सीख ले आगे बढ़ते हैं, मंजिलें उन्हें खुद न्योता देती हैं। अरविंद और उनके साथियों को अब ‘आप’ को समान विचारधारा वाले लोगों के समूह से आगे ले जाना होगा। समूह आंदोलन चला सकते हैं, पर सत्ता का रथ खींचना उनके वश की बात नहीं। इसके लिए सुगठित संगठन और सकारात्मक शासन की जरूरत होती है। ‘आप’ को इसे अपनाना होगा।
उम्मीद है, केजरीवाल इस नए लगे आघात के अर्थ को समझेंगे। कम से कम उनके मतदाता की नजर में तो वह आज भी संभावना हैं। 

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