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दिल्ली, जो साबित करने वाली है

देश का दिल कही जाने वाली दिल्ली अब शांत है। यहां के लोगों ने अपने मताधिकार का प्रयोग कर लिया है और अब नतीजों का इंतजार है। ये चुनावी परिणाम महज इस आधे-अधूरे राज्य के हुक्मरां का चेहरा नहीं चुनेंगे,...

दिल्ली, जो साबित करने वाली है
शशि शेखरSat, 08 Feb 2020 11:45 PM
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देश का दिल कही जाने वाली दिल्ली अब शांत है। यहां के लोगों ने अपने मताधिकार का प्रयोग कर लिया है और अब नतीजों का इंतजार है। ये चुनावी परिणाम महज इस आधे-अधूरे राज्य के हुक्मरां का चेहरा नहीं चुनेंगे, बल्कि भारतीय लोकतंत्र के विशाल कैनवस पर भी कुछ नई लकीरें छोड़ जाएंगे। आपकी स्मृतियों में अभी इस चुनाव में जमकर हुई जहरखुरानी ताजा ही होगी। चुनाव दिल्ली विधानसभा का था, पर मुद्दे जैसे पूरे देश के लिए तय किए जा रहे थे। भारतीय जनता पार्टी ने उद्धत राष्ट्रवादियों की समूची फौज मैदान में उतार दी थी। हिन्दुस्तानी लोकतंत्र के सात दशक से लंबे इतिहास में यह पहला अवसर था, जब किसी पार्टी ने अपने ढाई सौ सांसद कुल जमा 70 विधानसभा सीटों के रण में तैनात किए। इस दौरान पार्टी के पूर्व अध्यक्ष और मौजूदा गृह मंत्री अमित शाह ने समूची ताकत लगा दी। उन्होंने सामान्य कार्यकर्ताओं की तरह लोगों के दरवाजे खटखटाए, भाजपा नुमाइंदों की छोटी-बड़ी दर्जनों सभाओं को संबोधित किया और 35 जनसभाओं के जरिए अपनी बात जन-जन तक पहुंचाने की कोशिश की। उत्तर प्रदेश के फायरब्रांड मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने भी 12 चुनावी रैलियों को संबोधित किया। इन नेताओं की समूची कोशिश वोटरों की बहुसंख्या को अपने पक्ष में लाने की थी। भाजपा हमेशा यह जताने की कोशिश करती है कि वह बहुसंख्यकों के लिए बहुमत जुटाना चाहती है। अन्य लोग बहुमत के लिए बहुसंख्या चाहते हैं।

भाजपा ने यह चुनाव प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के चेहरे पर लड़ा, मगर इस बार उन्होंने महज दो जनसभाएं संबोधित कीं। पिछले चुनाव में वह चार बार जनता से रूबरू हुए थे। साफ है कि भारतीय जनता पार्टी फूंक-फूंककर कदम रख रही थी। कोशिश थी कि परिणाम मनोनुकूल न आने पर ‘ब्रांड मोदी’ कतई क्षतिग्रस्त न हो। हालांकि, भाजपा ने यह परीक्षा प्रधानमंत्री द्वारा ‘राष्ट्रहित’ में किए गए ऐतिहासिक निर्णयों- तीन तलाक, अुनच्छेद 370 और नागरिकता संशोधन कानून के जरिए पास करने की जुगत की है। यही वजह है कि शाहीन बाग के धरने को सभी नेताओं ने अपने भाषणों में सर्वाधिक स्थान दिया। इसकी काट में ‘आप’ के शीर्ष नेता कह रहे थे कि शाहीन बाग का धरना हटाने की जिम्मेदारी कानून-व्यवस्था संभाल रहे लोगों की है। दिल्ली की कानून-व्यवस्था गृह मंत्रालय के अंतर्गत आती है, वह अपना काम क्यों नहीं कर रहा? अब चुनाव नतीजे ही बताएंगे कि दोनों में किसका तर्क जनता को ज्यादा रास आया, पर इस चुनाव ने एक बार फिर साबित कर दिया कि देश अब सेक्युलरिज्म की नई परिभाषा गढ़ रहा है।

हनुमान चालीसा पढ़ते अरविंद केजरीवाल इसका उदाहरण हैं। बाद में वह एक जनसभा में गदा धारण करते भी नजर आए। इससे पहले भी आप तमाम नेताओं को चुनाव के वक्त मंदिरों, मठों और दरगाहों में जाते देखते रहे होंगे। कभी सोनिया गांधी ने भी कहा था कि कांग्रेस को हिंदू विरोधी साबित कर दिया गया, इसलिए हमें हार का सामना करना पड़ा। कुछ दिलजले इसे बहुसंख्यकों के प्रभुत्व की स्थापना की कोशिश कह सकते हैं, मगर यह सच है कि दिल्ली का चुनाव विकास के नाम पर शुरू करने वाली आप को भी भाजपा से जूझने के लिए रंग-ढंग बदलने को बाध्य होना पड़ा। उसे दीख रहा था, शाहीन बाग के बहाने भगवा दल हवा का रुख बदलने की कोशिश कर रहा है। जामिया और शाहीन बाग में हुई फायरिंग की घटनाओं ने भी माहौल में आशंकाओं की गरमी भर दी थी। अगर यह सिलसिला जोर पकड़ता, तो ‘आप’ को दिक्कतें पेश आ सकती थीं।

शाहीन बाग सहित देश के विभिन्न हिस्सों में नागरिकता संशोधन कानून के विरोध में होने वाले प्रदर्शनों के आयोजक भी इस तथ्य से अनजान न थे। सांप्रदायिक ध्रुवीकरण से बचने के लिए उन्होंने संविधान की पोथियों, राष्ट्रगान, गांधी और आंबेडकर को प्रतिरोध के प्रतीकों के तौर पर इस्तेमाल करने का फैसला किया। कुछ जगहों पर धर्म विशेष से संबंधित नारे लगाने की कोशिशें हुईं, लेकिन प्रदर्शनकारियों ने ही इसे प्रवृत्ति बनने से रोक दिया। आंदोलनकारी नहीं चाहते थे कि उनकी कोशिशें किसी खास वर्ग का प्रयास मान ली जाएं। यह हमारी रीति-नीति और विचारों में परिवर्तन की दूसरी निशानी है। कुछ तो इसे बहुसंख्यकों का दबाव मानते हैं, पर आप चाहें, तो इसे भारतीय लोकतंत्र की परिपक्वता का उदाहरण कह सकते हैं।

इस चुनाव से पहले जो आकलन किए गए, उनसे साफ था कि ‘आप’ का पलड़ा भारी है। भाजपा ने इसीलिए शुरू से आक्रामक शैली अपनाई। गृह मंत्री अमित शाह खुद पूरी तरह से इस मोर्चाबंदी के शीर्ष पर थे। आप उनका ट्रैक रिकॉर्ड देखें, तो पाएंगे कि वह हर चुनाव ऐसे लड़ते हैं, जैसे यह उनका पहला और आखिरी समर है। झारखंड में शाह समझ गए थे कि हवा उनके अनुकूल नहीं बह रही। एक जनसभा में कम भीड़ देखकर उन्होंने इसीलिए कहा था कि इस तरह चुनाव नहीं जीता जा सकता। यहां मौजूद हर शख्स यह जिम्मेदारी उठाए कि वह कम से कम पचास लोगों को हमारे पक्ष में वोट डालने के लिए प्रेरित करेगा। जब संसद से नागरिकता संशोधन विधेयक पास हुआ, तब झारखंड की 50 फीसदी से अधिक सीटों पर मतदान होना शेष था। शाह ने पूरी कोशिश की कि इस विधेयक के जरिए वह बहुसंख्यक समाज को अपने पाले में खींच लाएं। झारखंड का जनादेश भले ही भाजपा के पक्ष में न आया हो, पर शाह ने अपने कार्यकर्ताओं को अंत तक हताश नहीं होने दिया।

दिल्ली में हालात और कठिन थे। अरविंद केजरीवाल शिक्षा, बिजली, पानी और सेहत जैसे आमजन से जुडे़ मुद्दों पर किए गए कामों की फेहरिस्त के साथ जंग में कूदे थे। वह ईमानदारी और शासकीय नेकनीयती के मामले में किसी से कमतर साबित नहीं होते। ऐसे में, भाजपा को प्रतिष्ठापूर्ण स्थान दिलाने के लिए ‘अतिरिक्त प्रयास’ की जरूरत थी। क्या दिल्ली अमित शाह की इस कोशिश का सार्थक नतीजा प्रदान करेगी? या, केजरीवाल के काम भारी पडे़ंगे? कांग्रेस ने बेमन से चुनाव लड़ उनका रास्ता हमवार करने की जो कोशिश की, उसका कितना नफा या नुकसान ‘आप’ को हुआ? तमाम चुनावी पूर्वानुमान और एग्जिट पोल्स चाहे जो रुझान साबित कर रहे हों, पर इन सवालों के सटीक जवाब के लिए 11 तारीख की दोपहर तक इंतजार करना मुनासिब होगा।

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