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औरतों के दर पर राजनीति

आप मानें या न मानें, भारत में एक मौन क्रांति आकार ले रही है। आजादी के बाद मौकापरस्त राजनीति ने सामाजिक विभेदों का लाभ उठाकर ‘मूल्यों की सत्ता’ की जगह ‘सत्ता के मूल्यों’ की...

औरतों के दर पर राजनीति
शशि शेखरSat, 15 Feb 2020 09:53 PM
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आप मानें या न मानें, भारत में एक मौन क्रांति आकार ले रही है। आजादी के बाद मौकापरस्त राजनीति ने सामाजिक विभेदों का लाभ उठाकर ‘मूल्यों की सत्ता’ की जगह ‘सत्ता के मूल्यों’ की स्थापना कर दी थी। अब हालात बदल रहे हैं। पिछले दस वर्षों का चुनावी-वृत्तांत गवाह है कि सामाजिक दबाव राजनीति की दशा-दिशा तय करने लगे हैं। 

दिल्ली में अरविंद केजरीवाल की धमाकेदार जीत का दोहराव इसी प्रवृत्ति की उपज है। वह अपने मतदाता को यह बताने, जताने और समझाने में कामयाब रहे कि कल्याणकारी राज्य उनकी पहली प्राथमिकता है। चुनाव के समय पुरुष मतदाता जहां तमाम आग्रहों और दुराग्रहों का शिकार होते हैं, उन पर केजरीवाल के वायदों और दावों का चाहे जो असर पड़ा हो, मगर महिलाओं और नौजवानों ने उनके पक्ष में जमकर मतदान किया। चुनाव आयोग के आंकड़े बताते हैं कि दिल्ली में महिलाओं का मतदान प्रतिशत 62.55 रहा। यह दिल्ली विधानसभा के पिछले चुनाव के मुकाबले कम होने के बावजूद फैसलाकुन साबित हुआ। 

महिलाएं आम आदमी पार्टी की वफादार वोटर क्यों बनी रहीं? जवाब साफ है। मध्यवर्गीय परिवारों से अटी पड़ी राजधानी में मुफ्त बिजली, पानी, चिकित्सा और रियायती दर पर अच्छी शिक्षा के साथ डीटीसी बसों में महिलाओं के लिए नि:शुल्क यात्रा की सुविधा सर्वाधिक उन्हीं को प्रभावित करती है। कुछ लोगों की नजरों में ये सहूलियतें तुच्छ हैं, पर आम आदमी की जिंदगी की पथरीली राह ऐसी छोटी-मोटी सुविधाओं के जरिए ही हमवार होती है। 

यही नहीं, शाहीन बाग के मामले पर जिस तरह गरमागरम बहस छिड़ी, उससे भी महिलाओं के मन में आशंका पैदा हुई कि यदि राजधानी में अशांति फैली, तो हमारे परिवारों को खतरा हो सकता है। यह बताने की जरूरत नहीं कि महिलाएं सामाजिक सुरक्षा के मामले में अधिक सतर्क और संवेदनशील होती हैं। शाहीन बाग में प्रदर्शन की कमान भी औरतों के हाथ में है। कल्पना करें, अगर प्रदर्शनकारी सिर्फ पुरुष होते, तो उसका क्या असर होता? पुलिस उन्हें कब का खदेड़ चुकी होती और यह प्रतिरोध उत्तर प्रदेश के प्रदर्शनों की नियति को प्राप्त हो चुका होता। महिलाएं इस मामले में भी कारगर तौर पर पहल करती दिख रही हैं। क्या आप इसे बदलाव नहीं मानेंगे?

ऐसा नहीं है कि यह कमाल सिर्फ दिल्ली में हुआ। गिनाने को बहुत-से उदाहरण हैं, परंतु मैं हिंदी हृदय प्रदेश के एक अन्य महत्वपूर्ण राज्य बिहार का उदाहरण देना चाहूंगा। यहां नीतीश कुमार भी कल्याणकारी और भयमुक्त राज्य के नाम पर ही पिछले तीन बार से चुनाव जीतते चले आ रहे हैं। अपनी बात समझाने के लिए आपको थोड़ा पीछे ले चलता हूं। फरवरी 2005 के चुनावों में किसी भी दल को बहुमत नहीं मिला था। नतीजतन, उसी साल अक्तूबर में दोबारा चुनाव हुए, जिन्होंने नीतीश कुमार की लंबे समय के लिए ताजपोशी सुनिश्चित कर दी। इन चुनावों में महिलाओं को ‘भयमुक्त’ बिहार का नारा भा गया था। 

सत्ता में आते ही नीतीश कुमार ने पंचायतों और स्थानीय निकायों में महिलाओं के लिए पचास फीसदी सीटें आरक्षित कर दी थीं। यही नहीं, वर्ष 2007 में उन्होंने स्कूल जाने वाली बालिकाओं को नि:शुल्क साइकिलें मुहैया कराईं। जिस बिहार में बच्चियों को स्कूली शिक्षा तक हासिल करना मुहाल था, साइकिलों ने उनके  पर खोल दिए। इस दशक की शुरुआत में मधुबनी जिले में दर्जनों लड़कियों को  स्कूल जाते देख मैंने गाड़ी रोककर पूछा था कि वे क्या सोचती हैं? उनके सपने बडे़ थे और सारी की सारी बच्चियां नीतीश कुमार को इसका श्रेय दे रही थीं। मैं समझ गया था कि विपक्ष के लिए नीतीश को आने वाले दस सालों तक हटाना मुमकिन नहीं होगा।

बिहार में लागू शराबबंदी कानून को अक्सर दानवी विधान कहा जाता है, पर इसके पीछे की कहानी बेहद रोचक है। 2015 के चुनाव के दौरान नीतीश कुमार एक जनसभा को संबोधित कर लौट चले थे कि कुछ महिलाओं ने उन्हें रोका और शराब की बिक्री पर पाबंदी लगाने की मांग की। उन महिलाओं का मानना था कि उनकी पारिवारिक परेशानियों की जड़ में शराब है। नीतीश कुमार को उनकी बात भा गई। पटना पहुंचते ही उन्होंने अपने कैबिनेट के विश्वस्त साथियों और वरिष्ठ अधिकारियों को बुलाकर पूछा कि आबकारी से आने वाले कर का विकल्प क्या है? अगली सभा में ही उन्होंने कहा कि ये चुनाव जीतते ही बिहार में शराब पर पाबंदी लगा दी जाएगी। 

राजनीति के इस अरण्य में सहूलियतों से सरोकार रखने का लाभ भारतीय जनता पार्टी को भी मिला है। नरेंद्र मोदी राष्ट्रीय स्तर पर महिलाओं और नौजवानों के बीच सर्वाधिक लोकप्रिय साबित हुए हैं। बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ, उज्ज्वला और ऐसे तमाम कार्यक्रमों के चलते उन्होंने 2019 में जबर्दस्त बहुमत हासिल किया। भारतीय जनता पार्टी दिल्ली प्रदेश की सत्ता पर भले न काबिज हो पाई हो, मगर पिछले दिनों देश के एक भरोसेमंद मीडिया संस्थान के सर्वेक्षण में मोदी देश की सर्वाधिक लोकप्रिय सियासी शख्सियत के तौर पर कायम थे। गए आठ वर्षों से उन्होंने राष्ट्रीय स्तर पर अपने आकर्षण को बरकरार रखा है। 

जैसा कि मैंने पहले अनुरोध किया, महिलाएं विभेदकारी राजनीति पसंद नहीं करतीं। दिल्ली के चुनावों के दौरान जिस तरह की भाषा का इस्तेमाल भारतीय  जनता पार्टी के कुछ वरिष्ठ नेताओं ने किया, उसका खामियाजा भगवा दल  को उठाना पड़ा। आम आदमी पार्टी जहां संयत और सकारात्मक बनी रही, वहीं भाजपा के बड़बोले नेताओं के ‘गोली मारो’ और पाकिस्तान संबंधी बयानों को दिल्ली की महिला मतदाताओं ने पूरी तरह नकार दिया। खुद गृह मंत्री अमित शाह अब खुले मन से मान चुके हैं कि इस भाषा  को मतदाताओं ने स्वीकार नहीं किया। उम्मीद है, आने वाले चुनावों में हमें इस तरह की  अरुचिकर शब्दावली से निजात मिलेगी। राजनीति पर सामाजिक दबाव का यह ताजा उदाहरण है। 

चुनाव आयोग के अनुसार, 2004 के आम चुनाव में महिलाओं के मुकाबले 8.4 पुरुषों ने ज्यादा मतदान किया था। जबकि 2019 के आम चुनाव में महिलाओं का प्रतिशत पुरुषों से ज्यादा हो गया। गौरतलब है कि आजादी के गुजरे 72 सालों में शुरुआती चार दशक पूर्णतया पुरुष प्रभुत्व के थे। भारत की आधी आबादी न सिर्फ तेजी से इस विभेद की खाई को पाट रही है, बल्कि बढ़त भी लेने लगी है। महिलाएं अब हुकूमत बना भी सकती हैं, मिटा भी सकती हैं। पुरुषों के प्रभुत्व वाले भारतीय समाज में यह परिवर्तन सुखद है। 

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