सैम सिंह का अनोखा संसार
मैंने अनूपशहर के उस मोहल्ले के लोगों की आंखों में उनके लिए सम्मान पढ़ा था। ...सैम चले गए, पर वह उन हजारों बच्चियों, महिलाओं और उनके परिजनों के दिलों में अंतिम सांस तक धड़केंगे, जिनकी जिंदगी में उनकी...
अंकल ‘सैम’ उर्फ ‘वीरेंद्र सैम’ उर्फ वीरेंद्र सिंह नहीं रहे। गुजरे मंगलवार को उन्होंने अमेरिका में अपनी बेटी के यहां अंतिम सांस ली। सैम की इच्छा के अनुरूप उनकी देह बुलंदशहर स्थित उनके गांव लाई गई है, जहां आज उनका अंतिम संस्कार किया जा रहा है।
बकौल मिर्जा जंवा बख्त जहांदार- पहुंचे वहां ही खाक, जहां का खमीर हो। सैम को अपनी मिट्टी से इतना प्यार था कि वह अमेरिका में सब कुछ छोड़ अपने गांव बिचौला लौट आए थे। उनकी कहानी रोचक और प्रेरणादायक है। आप भी सुनें।
लगभग दस वर्ष पूर्व उनके साथ एक रसमयी शाम और जीवंत सवेरा गुजारा था। मुझे उनके विचारों की प्रायोगिक गहराई और खुशमिजाजी ने अंदर तक छुआ था। उनकी उम्र ढल रही थी, पर नेक कामों की प्रदीप्तता प्रभावित करने वाली थी। गहरी से गहरी बात वह हंसकर बोल रहे थे। बुलंदशहर के उस गांव में उन्होंने सारा सरंजाम जुटा रखा था और उनका आतिथ्य किसी लखनवी रईस से कमतर न था। सैम ने उस दौरान बताया था कि उन्हें बचपन से हॉकी का जुनून था और इस खेल ने उनकी जिंदगी का ‘खेल’ बदल दिया।
हुआ यूं कि अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय की टीम से मैच खेलते वक्त पंजाब यूनिवर्सिटी के कुलपति की नजर उन पर पड़ी। उन्होंने सैम उर्फ वीरेंद्र सिंह से कहा कि तुम चाहो, तो तुम्हारा दाखिला मैं भिवानी के इंजीनियरिंग कॉलेज में करा सकता हूं। शर्त बस इतनी है कि तुम्हें हमारे विश्वविद्यालय की ओर से खेलना होगा। वीरेंद्र सिंह की तो जैसे लॉटरी लग गई। उसी दौरान उन्हें मैनचेस्टर में एक मैच खेलने का मौका मिला। वहां की कपड़ा मिलें देखकर वह पश्चिम के पेशेवर रवैये से खासे प्रभावित हुए। इंजीनियरिंग करने के बाद उन्होंने कुछ समय के लिए डीसीएम में नौकरी की। इसी बीच वीरेंद्र सिंह का दाखिला अमेरिका की मिनेसोटा यूनिवर्सिटी में हो गया। टेक्सटाइल इंजीनियरिंग में मास्टर्स की डिग्री लेने के लिए वह वहां जा पहुंचे।
बुलंदशहर के एक ग्रामीण बालक की यह ‘सैम’ बनने की शुरुआत थी।
वह 1960 का परिवर्तनकारी समय था। शीतयुद्ध चरम पर था और अमेरिका को सैम जैसे जुझारू नौजवानों की जरूरत थी। बहुत जल्द सैम ने ड्यू पॉण्ट में नौकरी शुरू की। पेशेवर तरक्की के साथ उनका परिवार बढ़ चला था। सिंह दंपति के जीवन में कुछ अंतराल पर दो बेटियों का आगमन हुआ। वह छोटा सा परिवार अमेरिका का और अमेरिकी उसके कुटुंबी हो चले थे।
हॉकी ने सैम को सतत ऊर्जस्वित और सक्रिय रहना सिखाया था। अमेरिकी गुण-ग्राहकता के लिए ये लुभावने गुण थे। वह तेजी से सीढ़ियां चढे़ और देखते-देखते एशियाई देशों के सर्वेसर्वा बन गए। उन्हें ड्यू पॉण्ट का अध्यक्ष भी बनाया गया। उन दिनों उंगलियों के पोरों पर गिने जा सकने वाले भारतीय ही कॉरपोरेट में ऐसे झंडे गाड़ सके थे। सब ठीक चल रहा था कि वर्ष 2000 में उन्होंने अपने गांव लौटने का फैसला ले लिया। उनके परिवारी, सहयोगी और गांव के लोग तक अचंभित थे।
क्यों?
वीरेंद्र सिंह सफल सैम में तो तब्दील हो चुके थे, पर उन्हें एक बात अखरती थी। कारोबारी बैठकों के दौरान अक्सर उनके सीईओ कहते कि आज भारत में नाव पलटने से ...लोग डूब गए। कभी ट्रेन पटरी से उतरती, तो कभी कहीं आग लग जाती। मेलों में भगदड़ से भी लोग मारे जाते। हर बार ऐसी खबर छपने के बाद दो मिनट का मौन रखा जाता। असमय काल कवलित हुए लोगों के लिए इस अमेरिकी शिष्टाचार से उन्हें गिला न था, पर हर बार सैम के मन में आहत करने वाला सवाल उठता, भारत ही क्यों? हालात बदलने चाहिए, पर बदलें कैसे? कौन पहल करेगा?
एक दिन जवाब भी मिल गया, अगर किसी को पहल करनी है, तो मैं ही क्यों नहीं? सैम ने जमी-जमाई नौकरी छोड़ दी और गांव लौटकर परदादा-परदादी एजुकेशनल सोसायटी की स्थापना की। वह महिला सशक्तीकरण के क्षेत्र में काम करना चाहते थे। सैम जानते थे कि कोई देश या समाज शिक्षित-समर्थ आधी आबादी के बिना पनप नहीं सकता। अमेरिकी तरक्की में वह महिलाओं का योगदान खुद देख-समझकर आए थे।
अब बाकी जिंदगी उनका यही मकसद था।
पुरानी कहावत है- हवन करते हाथ जलते हैं। आरंभिक दौर उनके लिए काफी कठिन था। वह किसी से कहते कि अपनी कन्या को पढ़ाने भेजो, तो जवाब मिलता- ‘बाबू जी, मुझे अपनी लौंडिया का ब्याह करना है। ज्यादा पढ़ा-लिखाकर कलक्टर तो नहीं बनाना।’ हॉकी के मैदान का धीरज यहां काम आने वाला था। वह जैसे पत्थर को पिघलाने के लिए पानी डाल रहे थे। पहले साल उनके स्कूल को महज 45 बच्चियां मिलीं। आज लगभग चार हजार छात्राएं वहां शिक्षा प्राप्त करती हैं। हर छात्रा को ड्रेस, तीन बार भोजन, पुस्तकें और ट्रांसपोर्ट नि:शुल्क मुहैया कराया जाता है। यही नहीं, उनके खाते में हर रोज 10 रुपये जमा किए जाते हैं। इन बच्चियों को रोजगार की गारंटी दी जाती है और अभिरुचि के अनुसार प्रशिक्षित किया जाता है। इस संस्थान के शुरुआती वर्षों में निकली कुछ छात्राएं बतौर प्रोफेशनल देश-परदेस में झंडे गाड़ रही हैं।
पिछले 24 सालों में अनूपशहर और आस-पास के इलाके की हजारों बच्चियां इस सोसायटी के जरिये आत्मनिर्भर बन चुकी हैं। यही नहीं, तकरीबन सात हजार अन्य महिलाएं इस समूह से जुड़ी हुई हैं। उन्हें अगरबत्ती, अचार, सेनेटरी पैड आदि बनाना सिखाया जाता है। इन उत्पादों की बिक्री से हासिल रकम उनके खाते में जाती है। उस शाम सैम हमें अनूपशहर ले गए थे। वहां गंगा के किनारे उनकी सोसायटी पेयजल एटीएम चलाती है। दर्जनों महिलाएं और बच्चियां वहां पच्चीस पैसे लीटर के हिसाब से जल ले रही थीं। मैंने पूछा, आप पेयजल का भुगतान क्यों लेते हैं? जवाब शिक्षाप्रद था। सैम ने कहा, ‘दुनिया में कहीं भी मुफ्त के माल की इज्जत नहीं होती। मैं दस रुपये की कीमत वाला जल चवन्नी में उपलब्ध कराता हूं, क्योंकि मुझे इससे लाभ नहीं कमाना। पैसा देने के बाद लोग पानी को बर्बाद नहीं करते, उसे सम्हालकर रखते हैं।’ सेहत के साथ जल संरक्षण की ऐसी व्यावहारिक शिक्षा! यह मेरे लिए नया फलसफा था।
सैम ने ऐसे तमाम फलसफे न केवल गढ़े, बल्कि उनसे बच्चों से बूढ़ों तक को वाकिफ भी कराया।
उस धुंधलाती शाम मैंने अनूपशहर के उस मोहल्ले के लोगों की आंखों में उनके लिए सम्मान पढ़ा था। जो उस सड़क से गुजरता, ठिठकता और फिर अदब से कहता, ‘बाबूजी राम-राम।’ कोई ‘राम-राम’ के इस सनातन अभिवादन से पूर्व बाबा या चाचा जोड़ देता। जाहिर है, इस बड़े समूह में अबोध बच्चों से लेकर बालों में पसर रही चांदी सी सफेदी वाले बुजुर्ग तक थे। वैसे सम्मान व्यक्त करने वालों में पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, अंबानी परिवार और बिल गेट्स जैसे लोग भी हैं। हालांकि, उस शाम उन्होंने एक बार भी किसी विभूति का जिक्र नहीं किया था। वह प्रयोगधर्मी थे, दुकानदार नहीं।
सैम चले गए, पर वह उन हजारों बच्चियों, महिलाओं और उनके परिजनों के दिलों में अंतिम सांस तक धड़केंगे, जिनकी जिंदगी में उनकी पहल से उजाले ने दस्तक दी। सैम जैसे लोग मरते कहां हैं?
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