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महाशक्ति का स्वप्न और ये अवरोध

भारतीय प्रधानमंत्री अगर आने वाले दिनों में रूस और यूक्रेन के युद्ध पर अंकुश लगाने में अहम भूमिका निभाते हैं, तो यकीनन भारत की बलवान होती अवधारणा को नया बल मिलेगा। हालांकि, इस रास्ते पर बाहरी...

महाशक्ति का स्वप्न और ये अवरोध
Shashi Shekhar शशि शेखरSat, 07 Sep 2024 07:55 PM
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मौजूदा वक्त के दुरुहतम सत्तानायक व्लादिमीर पुतिन के इस बयान को ध्यान से सुनिए, ‘हम अपने दोस्तों और साझेदारों का सम्मान करते हैं। खासतौर से चीन, ब्राजील और भारत इस (यूक्रेन) संघर्ष से जुड़े सभी मुद्दों को ईमानदारी से सुलझाना चाहते हैं।’ उनके प्रवक्ता दमित्री पेस्कोव ने यह भी कहा कि बातचीत का रास्ता खोजने के लिए भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अहम भूमिका निभा सकते हैं।
यह साधारण उपलब्धि नहीं है।
यह वही हुकूमत-ए-मॉस्को है, जिसके पास वर्ष 1971 में अमेरिकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन द्वारा अपमानित इंदिरा गांधी मदद मांगने पहुंची थीं। तत्कालीन राष्ट्रपति लियोनिद ब्रेझनेव ने खुली बाहों से उनका स्वागत किया था। यह सिलसिला दोनों मुल्कों के हर हुक्मरां ने आज तक जारी रखा है। 1991 के सोवियत विघटन के बाद बीच-बीच में सर्दी-गर्मी के दौर आए अवश्य, पर मित्रता टूटी नहीं। 
मई 2014 में नरेंद्र मोदी ने सत्ता सम्हाली। वह जानते थे कि अब हिन्दुस्तान की बारी है। नई दिल्ली के हुक्मरां अपना लक्ष्य हासिल करने के लिए कितनी मेहनत कर रहे हैं,उसे जानने के लिए गुजरे कुछ हफ्ते बहुत काफी हैं। पिछले महीने की 21 तारीख से 5 सितंबर तक प्रधानमंत्री ने पोलैण्ड, यूक्रेन, ब्रुनेई और सिंगापुर की यात्राएं कीं। विदेश मंत्री एस जयशंकर इस दौरान मालदीव और कुवैत गए। अब साउथ ब्लॉक उनकी इस महीने अमेरिका और अगले महीने रूस यात्रा की तैयारियों में जुटा है। 
बदलते ‘जियो पॉलिटिकल’ परिदृश्य में मोदी की यात्राएं भारत की नई भूमिका गढ़ रही हैं। 
ब्रुनेई से शुरू करता हूं, क्योंकि बाकी देशों पर काफी कुछ छप चुका है। भौगोलिक दृष्टि से यह देश भले छोटा है, लेकिन इसे संसार में सर्वाधिक धनी होने का मान हासिल है। उसके पास अकूत तेल भंडार है। इसके साथ ही उसका एक किनारा दक्षिण चीन सागर से मिलता है। दक्षिण चीन सागर में बीजिंग कितना आक्रामक है, यह बताने की जरूरत नहीं। वहां का सत्ता सदन चाहता है कि किसी तरह ब्रुनेई को धौंसाकर अपने प्रभाव में ले ले, ताकि सस्ती कीमत पर ईंधन की भरपायी की जा सके। स्वाभाविक है, ब्रुनेई के सुल्तान हाजी हसनल बोल्किया को यह गवारा नहीं। इस दृष्टि से देखें, तो ब्रुनेई में मोदी की मौजूदगी नए मायने गढ़ती है। चीन दशकों से हमारी सीमाओं पर उत्पात मचा रहा है और हमें भी तेल की जरूरत है।
रही बात सिंगापुर की, तो यह द्वीप देश हमारा पुराना साझेदार है। हमारे सदियों पुराने सांस्कृतिक संबंध हैं और जिस तरह सिंगापुर ने खुद को विकसित किया है, वह आज भी नौजवान भारतीयों को अपनी ओर आकर्षित करता है। आसियान देशों में सिंगापुर की महत्वपूर्ण हिस्सेदारी है और इस नाते बदलती दुनिया में भारत और सिंगापुर की साझेदारी को नए रंग-रोगन की जरूरत है। सिंगापुर की सहायता से हम हिन्दुस्तान को ‘सेमीकंडक्टर’ का हब बनाने का ख्वाब पूरा कर सकते हैं।
इस समय ऐसी कूटनीति की सर्वाधिक जरूरत है। 
रूस और यूक्रेन पिछले ढाई साल से जिस तरह से एक-दूसरे के खून के प्यासे हो रहे हैं, उससे दुनिया के समक्ष नए संकट खड़े हो गए हैं। यह युद्ध शुरू होने के साथ, सयानों ने भविष्यवाणी की थी कि आज नहीं, तो कल अन्य मुल्कों में भी आग फैल सकती है। वे सही साबित हुए। अगले ही वर्ष इजरायल और उसके पड़ोसी मुल्क उलझ पड़े। इससे नया भू-राजनीतिक संकट उठ खड़ा हुआ है। दो साल होने को आए, पर अमेरिका अपनी समूची शक्ति के बावजूद अपने सहयोगियों के साथ युद्ध रोकने में नाकाम रहा है। ये अमेरिकी प्रभुत्व के लड़खड़ाने के दिन हैं।
उधर, चीन चाहता है कि उलझती हुई दुनिया में उसकी हिस्सेदारी बढ़ती रहे। दूसरे विश्व युद्ध से पहले अमेरिका इसी तरह दूर से हालात की खोज-परख तक सीमित था। पर्ल हार्बर पर हमले के बाद उसे सीधी जंग में दाखिल होना पड़ा था। त्रासद परमाणु हमला इस महायुद्ध की परिणति थी। आज चीन उभरती हुई महाशक्ति है। उसके नेता शी जिनपिंग चाहते हैं कि उनके जीते-जी चीन अमेरिका को पछाड़कर नंबर एक का दर्जा हासिल कर ले। वह इसीलिए युद्ध खत्म करने में मदद के बजाय उसमें थोड़ी-बहुत समिधा डालते रहते हैं।
इन जटिल परिस्थितियों में भारत की भूमिका काफी महत्वपूर्ण हो चली है। 
भरोसा न हो, तो सिंगापुर के वरिष्ठ कूटनीतिज्ञ अंतरराष्ट्रीय और आर्थिक मसलों के जानकार, लेखक और वक्ता किशोर महबूबानी के विचार जान लीजिए। किशोर कहते हैं कि वक्त आ गया है, जब इंग्लैंड सुरक्षा परिषद से अपनी दावेदारी छोड़ भारत के लिए सीट खाली कर दे। महबूबानी का तर्क है कि तेजी से अपने संजाल में उलझती इस दुनिया को भारत जैसे देश और मोदी जैसे नेता की आवश्यकता है। महबूबानी मोदी को अमेरिकी और चीनी राष्ट्रपति के बाद सर्वाधिक ताकतवर नेता बताते हैं। ऐसे में, भारतीय प्रधानमंत्री अगर आने वाले दिनों में रूस और यूक्रेन के युद्ध पर अंकुश लगाने में अहम भूमिका निभाते हैं, तो यकीनन भारत की बलवान होती अवधारणा को नया बल मिलेगा। 
हालांकि, इस रास्ते पर बाहरी अवरोधों के अलावा देश के अंदर पनप रही कुछ प्रवृत्तियां बाधा पैदा कर रही हैं। यकीन न हो, तो फरीदाबाद की घटना पर नजर डाल देखिए। एक तरफ, अखबारों में ब्रुनेई में प्रधानमंत्री के भव्य स्वागत की खबर छप रही थी, तो दूसरी तरफ, फरीदाबाद में एक नौजवान की हत्या सुर्खियों में थी। उसे तथाकथित गौरक्षकों ने गो-तस्कर होने के शक में मार डाला था। खुद को गोरक्षक बताने वाले ये ‘ट्रिगर हैप्पी’ लोग कौन  हैं? इन्हें शूट-एट-साइट का ऑर्डर किसने दिया? इन पर कब लगाम लगेगी? आप सांसद संजय सिंह का आरोप है कि पिछले 10 वर्षों में गोरक्षा के नाम पर 55 लोग मारे गए और 93 चोटिल कर दिए गए। 
भारत अपने अंदर फैल रही इस दुष्प्रवृत्ति पर काबू पाए बिना भला अपना मकसद कैसे अर्जित करेगा?
अफसोस! इसे रोकने की जिम्मेदारी जिन राजनेताओं की है, उनमें से कुछ इस आग में घी डाल रहे हैं। संविधान की शपथ लेकर सत्ता सदन में दाखिल होने वाले लोग बांग्लादेश का नाम लेकर आम जन की भावनाओं को उग्रता प्रदान कर रहे हैं। कोई आश्चर्य नहीं कि बांग्लादेश के जिम्मेदार लोग आरोप लगा रहे हैं कि अपनी अंदरूनी राजनीति चमकाने के लिए बांग्लादेश कानाम बदनाम किया जा रहा है। इस बेमतलब की बयानबाजी से उन कूटनीतिज्ञों का काम और कठिन हो जाता है, जो ईमानदारी से भारतीय इमेज को चमकाने के लिए दिन-रात एक किए हैं। 
क्या नफरत की दुकान चलाने वाले इस गुहार को सुन रहे हैं?  देश उनसे जिम्मेदारी भरे व्यवहार की उम्मीद कर रहा है। 

 

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