अरविंद और आप का संकट
सवाल उठता है, कामयाब आंदोलन और सफल सियासत के बावजूद उनका यह सफर कारागार के सीखचों के पीछे कैसे जा पहुंचा? क्या महंगी चुनाव व्यवस्था इसकी वजह है, जहां हर पार्टी को ज्ञात-अज्ञात स्रोतों से आर्थिक मदद...

अपना 77वां वसंत जी रहे आजाद भारत में यह आम चुनाव नई रंगत लिए होगा। ऐसा पहली बार होगा, जब दो मुख्यमंत्री, एक उप-मुख्यमंत्री, सांसद और मंत्री भ्रष्टाचार के आरोप में सलाखों के पीछे होंगे। इनके अलावा दर्जनों ऐसे हैं, जो या तो जेल काट चुके हैं, या जाने की तैयारी में हैं। यह भ्रष्टाचार के खिलाफ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की वायदाशुदा नीति का नतीजा है, या फिर प्रतिपक्ष को कमजोर करने की रणनीति?
वैचारिक तौर पर विभाजित वैश्विक समाज में ऐसे सवालों के उत्तर देना आसान नहीं, क्योंकि लोगों ने सत्य की श्वेत-श्याम छवि को अपने पसंदीदा रंगों के चश्मों से देखना शुरू कर दिया है। यही वजह है कि किसी ऐसे मामले की जांच के लिए घटनाओं को परत-दर-परत जांचना जरूरी है।
आम आदमी पार्टी से शुरू करते हैं। पिछले दशक के प्रारंभिक वर्षों में अरविंद केजरीवाल सत्य के ‘योद्धा’ के तौर पर उभरे थे। उन्होंने भारतीय राजस्व सेवा की चमक-दमक वाली नौकरी छोड़कर एनजीओ और आरटीआई के जरिये आसपास बिखरी बुराइयों से जूझने का संकल्प किया था।
अन्ना के आंदोलन ने उन्हें नए अवसर और नई ऊंचाई प्रदान की थी। वह उनके मंच से जब अपनी अति साधारण आवाज में गाते- इंसान का इंसान से हो भाईचारा, यही पैगाम हमारा, तब राजनीतिक भ्रष्टाचार और कदाचार से ऊबे हुए लोग उन पर रीझ-रीझ जाते। उन दिनों वह और उनके साथी कहते थे कि हमें राजनीति से मतलब नहीं है। हम तो सिर्फ सच्चाई, भाईचारे, और इंसाफ के लिए लड़ रहे हैं। उनके प्रशंसक उस वक्त आश्चर्यचकित रह गए, जब केजरीवाल ने राजनीतिक पार्टी बनाने की घोषणा कर डाली।
आम आदमी पार्टी की स्थापना के वक्त उनका तर्क था कि सियासत के सागर में उतरे बिना उसे साफ करना संभव नहीं। राजनीति की शुरुआत भी उन्होंने गैर-पारंपरिक तरीके से की। वह कभी ऑटो रिक्शा वालों के बीच जा बैठते, तो कभी मेहनतकशों के किसी और वर्ग की ओर रुख कर लेते। हालांकि, पहले चुनाव के बाद सत्ता के लिए उन्होंने उसी कांग्रेस का सहारा ले लिया, जिस पर वह कल तक भ्रष्टाचार के बेहद तीखे आरोप लगाते थे। आम आदमी पार्टी यह चुनाव भी कांग्रेस के साथ लड़ने जा रही है।
इस दौरान उनके कुछ पुराने साथियों को उनकी कथनी और करनी में भेद नजर आने लगा। कई शुरुआती साथियों ने या तो पार्टी छोड़ दी या वे बाहर कर दिए गए, लेकिन केजरीवाल अपने रास्ते पर बढ़ते रहे। उनमें निर्बल और निम्न मध्यमवर्गीय मतदाताओं को समझने की अद्भुत क्षमता है। बिजली और पानी के बिलों में रियायत देकर आम आदमी पार्टी ने दिल्ली के लोगों का दिल जीता। उन्होंने शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में भी बेहतर काम किया। दिल्ली की जनता ने भी लगातार दो चुनावों में जबरदस्त बहुमत देकर उनकी हौसला अफजाई की। उन्होंने पंजाब में सरकार बनाने में कामयाबी हासिल की और गुजरात विधानसभा के चुनावों में 12.92 प्रतिशत मत पाकर राष्ट्रीय राजनीतिक दल का दर्जा भी हासिल कर लिया।
सवाल उठता है, कामयाब आंदोलन और सफल सियासत के बावजूद उनका यह सफर कारागार के सीखचों के पीछे कैसे जा पहुंचा? क्या महंगी चुनाव व्यवस्था इसकी वजह है, जहां हर पार्टी को ज्ञात-अज्ञात स्रोतों से आर्थिक मदद की दरकार होती है? अगर ऐसा है, तो फिर उनमें और औरों में क्या फर्क रह जाता है?
वह जिस तथाकथित आबकारी घोटाले में गिरफ्तार किए गए हैं, वह भी आश्चर्यजनक है। उन्होंने अपने साथियों के साथ अनोखी आबकारी नीति का निर्माण किया था। इसके तहत दिल्ली में अंग्रेजी शराब बेहद सस्ती हो गई थी। क्या कमाल है? एक तरफ नीतीश कुमार बिहार में शराबबंदी करके हुकूमत बचा रहे थे, तो दूसरी तरफ आम आदमी पार्टी सुरा की नई रसधार बहाकर लोकप्रियता तलाश रही थी।
इसी बीच आम आदमी पार्टी में पुराने आंदोलनकारियों की जगह नए चेहरे लेने लगे थे। विजय नायर उनमें से एक थे। वह पता नहीं कहां से आए और मीडिया सेल के प्रभारी बना दिए गए। उनके तौर-तरीके पार्टी की अब तक की रवायत से बिल्कुल अलग थे। नई शराब नीति में उनका भी दखल था। वह केजरीवाल के पहले ऐसे लेफ्टिनेंट थे, जो गिरफ्तार किए गए। बाद में उप-मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया और राज्यसभा के सदस्य संजय सिंह भी इसकी लपेट में आ गए। अब केजरीवाल की गिरफ्तारी ने कई सवाल खडे़ कर दिए हैं। आम आदमी पार्टी का दावा है कि हमारे नेताओं को कोई ‘मनी ट्रेल’ न मिलने के बावजूद जेल भेजा गया, पर उन्हें अब तक अदालतों से कोई राहत नहीं मिल सकी है।
नई लीक गढ़ने के अभ्यस्त अरविंद ने इस बार भी अपना अलग रास्ता चुना है। अतीत में कई राजनेता मुख्यमंत्री या अन्य पदों पर रहते हुए भ्रष्टाचार के आरोपों में घिरे, मगर गिरफ्तारी से पूर्व सभी ने त्यागपत्र दे दिया। झारखंड के हेमंत सोरेन इसका नवीनतम उदाहरण हैं, पर केजरीवाल के साथियों ने उनके इस्तीफा न देने की घोषणा की है। सवाल उठता है कि क्या जेल से शासन चलाया जा सकता है? संविधान इस मसले पर चुप है, लेकिन ‘जेल मैनुअल’ के प्रावधान इसमें अड़चनकारी साबित होने जा रहे हैं। यह संभव नहीं है कि ‘सिविल सर्विसेज’ का इम्तिहान पास कर चुके अरविंद केजरीवाल इस तथ्य को नहीं जानते। क्या वह इस आपदा में कोई अवसर खोज रहे हैं? राजनीतिक हलकों में कयास उभर रहे हैं कि कहीं केजरीवाल और हेमंत के पक्ष में सहानुभूति की लहर तो नहीं उमड़ पड़ेगी?
ऐसे लोगों का तर्क है कि सिर्फ वही लोग गिरफ्तार होते हैं, जो भाजपा के विरोध में होते हैं। यह पार्टी नहीं ‘वाशिंग मशीन’ है। क्या यह नया टें्रड है? यकीनन नहीं। सुप्रीम कोर्ट ने जब सीबीआई को ‘तोता’ कहा था, तब किसकी सत्ता थी?
यहां एक और सवाल उठता है। आम आदमी पार्टी का ढांचा अभी तक परिपक्व दलों की भांति नहीं उभर सका है। इसके कार्यकर्ता अभी भी वॉलंटियर की तरह काम करते हैं। केजरीवाल और सिसोदिया के जेल जाने के बाद ऐसा कोई चेहरा नहीं दीखता, जो समूची पार्टी को एकजुट रख सके। झारखंड में हेमंत सोरेन के जेल जाने के बाद उनकी पार्टी झारखंड मुक्ति मोर्चा समान संकट से जूझ रही है। हेमंत की भाभी सीता सोरेन ने भाजपा की शरण ले ली है। अगर हेमंत सोरेन लंबे समय तक जेल में रहे, तो उनका परिवार पार्टी पर पकड़ कैसे कायम रख सकेगा?
आम चुनाव की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है और ऐसे में भाजपा व कांग्रेस, दोनों चाहेंगी कि आंदोलन के गर्भ से उपजे ये दल विवादों की दलदल में गहरे फंस जाएं। वे जानती हैं, बाजार लुटने पर तमाशबीन सर्वाधिक फायदा उठाते हैं।
@shekharkahin
@shashishekhar.journalist
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