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गाजा की दुर्दशा से समझिए

मध्य पूर्व के खून-खराबे ने धरती को सांप्रदायिक आधार पर बांटने की कोशिश करने वालों को नई शक्ति दे दी है। क्या हम संस्कृतियों के युद्ध की ओर बढ़ रहे हैं? मनाइए, ऐसा न हो, पर एक बात तय है...

गाजा की दुर्दशा से समझिए
Pankaj Tomarशशि शेखरSat, 28 Oct 2023 08:30 PM
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इजरायल और हमास की जंग में भारत की भी आमद हो गई है। बकौल अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन, हमास ने गई 7 अक्तूबर को इजरायल के सीमावर्ती इलाके में हमला भारत-मध्य पूर्व-यूरोप आर्थिक गलियारे (आईएमईसी) को रोकने के लिए किया था। बाइडन कहते हैं कि यह मेरा अनुमान है, फिलहाल इसका कोई सुबूत मेरे पास नहीं। मगर जानने वाले जानते हैं कि अमेरिकी राष्ट्रपति आमतौर पर कयासों के ऊपर बात नहीं करते। 
क्या इस सिलसिले में आने वाले दिनों में कुछ नए राज-फास होने वाले हैं?
बताने की जरूरत नहीं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने विगत 9-10 सितंबर को नई दिल्ली में आयोजित जी-20 शिखर सम्मेलन के समापन समारोह में इस महत्वाकांक्षी परियोजना की घोषणा की थी। इस महामार्ग के बनने के बाद एशिया व यूरोप की सूरत और सीरत बदल जाएगी। अमेरिका के साथ सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात, यूरोपीय संघ, इटली, फ्रांस और जर्मनी ने इस योजना पर दस्तखत किए हैं। इस दौरान मोदी एक बार फिर आत्मविश्वास से भरपूर ऐसे नेता के तौर पर उभरकर आए, जिन्हें देश की ताकत और अपनी युक्ति के ऊपर पूरा भरोसा है। इस फैसले से बीजिंग में खलबली मच गई थी। चीनी हुक्मरां शी जिनपिंग बहुत पहले बेल्ट ऐंड रोड इनीशिएटिव (बीआरआई) की घोषणा कर चुके थे, पर तमाम अड़चनें उनके इस महत्वाकांक्षी सपने की राह रोक रही हैं।
अंतरराष्ट्रीय कूटनीति के जानकार जानते हैं कि अपनी शक्ति बढ़ाने के साथ पड़ोसी को बलशाली होने से रोकना जरूरी है। गाजा की जंग में उसकी हमदर्दी साफ तौर पर हमास के साथ दिखती है। चीन लगातार हमारी सीमाओं से भी छेड़छाड़ करता आया है। बाइडन के बयान से उसके प्रति आशंकित रवैया रखने वालों को बल मिलेगा कि कहीं अमेरिकी अगुवा का अंदेशा सही तो नहीं?
भारत-मध्य पूर्व-यूरोप आर्थिक गलियारे को मूर्त रूप लेने में देर है, मगर इन दिनों इजरायल और उसके आस-पास के मुल्कों के बीच जिस तरह रक्त-स्नान की बर्बर आकांक्षा पनप रही है, उसने उन दिनों की याद ताजा कर दी है, जब जंग हरदम सुर्खियों में रहती थी। ईरान-इराक, इराक-अमेरिका, रूस-अफगानिस्तान अथवा अमेरिका और अफगानिस्तान के बीच निराश कर देने वाले युद्धों ने करोड़ों लोगों के सुख-स्वप्न मटियामेट कर दिए थे।
ऐसे में, हमास की काली करतूत यकीनन निंदनीय है, पर बदले में इजरायल जो कर रहा है, उसे पश्चिम के मुल्क समर्थन क्यों दे रहे हैं? क्या वे मानते हैं कि इजरायल के कंधे पर रखकर उस बंदूक को दाग सकते हैं, जिसके लिए वे अब तक समूची दुनिया में मोहरे तलाशते आए थे? तेल अवीव पहुंचकर अपने मायावी कसमों-वायदों पर सान चढ़ाने वाले पश्चिम के महाप्रभु निर्दोष फलस्तीनियों की हत्या रोकने के लिए कोई कारगर उपाय क्यों नहीं कर रहे? 
दरअसल, इजरायल और इजरायलियों को लग रहा है कि वे ताकतवर देशों के सहयोग से अपनी उस लड़ाई को सिरे तक पहुंचा सकते हैं, जो स्थापना के काल से उसकी नियति रही है। मनचाही नियति से साक्षात्कार का यह प्रयोग समूची दुनिया में प्रतिशोध और प्रतिकार को बढ़ावा देने वाला साबित हो सकता है। वजह? इजरायल की मिसाइलें सिर्फ गाजा पर नहीं गिर रहीं। उसने लेबनान और सीरिया में भी जान-माल का नुकसान किया है। इससे अन्य सीमावर्ती पड़ोसियों जॉर्डन और मिस्र में भी उबाल आ रहा है। 
सीरिया और कुछ अन्य अरब मुल्कों में अमेरिकी फौज का बसेरा है। यही वजह है कि जो बाइडन नहीं चाहते थे, इजरायल के विशेष दस्ते गाजा की सरजमीं पर कदम रखें। इससे अमेरिकी सैनिकों पर आत्मघाती आक्रमणों की आशंका और बलवती हो सकती है, मगर इजरायल कहां माना? उसके टैंक गाजा को विशाल कब्रिस्तान में तब्दील करने में जुटे हैं। 
यही वजह है कि संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव एंटोनियो गुटेरस ने भी कई बार कड़े शब्दों में इसकी लानत-मलामत की है। इजरायल ने उनकी सलाह मानने की जगह उन्हें ही धमकाना शुरू कर दिया है। तेल अवीव मानता है कि संयुक्त राष्ट्र अपना महत्व खो चुका है। क्या संयुक्त राष्ट्र के अगुवा इजरायल पर प्रतिबंध लगाने की सोचेंगे? या, यह कहर रूस, ईरान, इराक, अफगानिस्तान आदि के लिए ही आरक्षित है? 
हो सकता है कि यहूदियों की सरकार अरब देशों के अंतरविरोधों का लाभ उठाना चाहती हो। वह ऐसा करती आई है, पर हालात बदल चुके हैं। डेविड बेन गुरिऑन और बेंजामिन नेतन्याहू एक नाव के हमसफर नहीं हो सकते। 
जैसे-जैसे इजरायली सेना की कार्रवाई बढ़ रही है, अरब जनता के बीच उसके प्रति नफरत पनप रही है। आम आदमी की आवाज भले ही अंतरराष्ट्रीय मंचों पर न सुनाई पडे़, लेकिन अपने मुल्क के सत्ता-नायकों पर उसका मनोवैज्ञानिक प्रभाव जरूर पड़ता है। यही वजह है कि ईरान के साथ अब सऊदी अरब जैसे मुल्क भी तत्काल युद्ध-विराम पर जोर देने लगे हैं। करीब 120 देशों ने संयुक्त राष्ट्र संघ में उनके साथ सुर मिलाया है। अब इजरायल ने उन्हें अनसुना कर अपनी कार्रवाई जारी रखी है, तो क्या हम 1914 के उन भटकाव भरे दिनों की ओर नहीं लौट जाएंगे, जब एक राजकुमार की हत्या ने दुनिया को महायुद्ध की आग में झोंक दिया था? 
इसी विश्व युद्ध की कोख से दूसरी महाजंग पनपी थी। उन दिनों इंग्लैंड के राज में सूरज नहीं डूबता था, मगर अमेरिका बड़ी ताकत के तौर पर उभर चुका था। औद्योगिक क्रांति ने पिछले ढाई सौ वर्षों में दुनिया का चेहरा बदल दिया था, लेकिन हिटलर, मुसोलिनी या स्टालिन जैसे लोगों ने मुल्कों में अति-राष्ट्रवाद की विष-बेल बो दी थी। जर्मनी को दूसरा ‘राइख’ चाहिए था। इंग्लैंड को अपना प्रभुत्व बरकरार रखना था। उधर, अमेरिका को अपनी आर्थिक शक्ति और बढ़ानी थी। जापान के 123वें सम्राट योशोहितो भी जापानी आत्मगौरव को अगल-बगल के देशों पर थोप देना चाहते थे। ऐसे हालात जंग ही तो जनेंगे।
उन दिनों की रोशनी में मौजूदा हालात पर नजर डाल देखिए। 
रूस ने 2014 में क्रीमिया पर हमला बोल उसे लील लिया और फिर 2022 में उसने यूक्रेन पर कब्जे की कोशिश शुरू की। यूक्रेन ने इसका जवाब दिया। दोनों देशों के बीच विनाशकारी युद्ध जारी है। अर्थजगत में भी दूसरे महायुद्ध से पहले जैसी हलचल जारी है। तब अमेरिका अपने आर्थिक एकाधिकारवाद को लेकर प्रयत्नशील था, आज चीन उसे चुनौती दे रहा है। जैसा कि मैंने पहले अनुरोध किया, चीन ने भारत की सीमाओं पर भी अशांति थोप रखी है। पाकिस्तान की भी भारत से नहीं बनती। चार जंग हारने के बावजूद उसका ‘छाया युद्ध’ जारी है। 
ऐसे विकट समय में मध्य पूर्व के खून-खराबे ने धरती को सांप्रदायिक आधार पर बांटने की कोशिश करने वालों को नई शक्ति दे दी है। क्या हम संस्कृतियों के युद्ध की ओर बढ़ रहे हैं? मनाइए, ऐसा न हो, पर एक बात तय है। पिछली सदी लोकतंत्र की स्थापना की थी, यह शताब्दी उसकी अग्नि-परीक्षा की है।  

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