आज ‘विजय दिवस’है। ठीक 21 बरस पहले हमने संसार के सबसे दुर्गम इलाकों में से एक में थोपी गई जंग जीतकर साबित कर दिया था कि हिन्दुस्तानियों के हौसले कभी पस्त नहीं होते। युद्ध-नीति के मुताबिक, हर जय-पराजय के अपने निश्चित सबक होते हैं। क्या नई दिल्ली के सत्ता-सदन ने इस अनुभव का पर्याप्त लाभ उठाया? लद्दाख की सीमाओं पर पसरे तनाव ने इस सवाल को बेहद मौजूं और धारदार बना दिया है।
पहले कारगिल की बात। इसकी जड़ें अतीत में धंसी हुई थीं। साल 1984 में सियाचिन की बर्फीली चोटियां गंवाने के बाद जनरल जिया के समक्ष तत्कालीन डायरेक्टर जनरल ऑफ मिलिट्री ऑपरेशन्स-पाकिस्तान ने एक जवाबी कार्ययोजना पेश की। इस रणनीति के तहत पाकिस्तानी फौज को सर्दियों में कारगिल की चोटियों पर चढ़कर श्रीनगर-लेह राजमार्ग को काट देना था। जिया ने इसे ठंडे बस्ते में डाल दिया। वजह? उन दिनों वह अपने आका अमेरिका के साथ मिलकर अफगानिस्तान से सोवियत सेनाओं को बाहर करने में लगे थे। उनके पास इस सवाल का जवाब नहीं था कि कारगिल के जवाब में अगर भारत ने समूचा युद्ध छेड़ दिया, तो रावलपिंडी का रक्षा प्रतिष्ठान दो मोर्चों के बीच सैंडविच तो नहीं बन जाएगा?
परवेज मुशर्रफ ने इसे नए संदर्भों में देखा। उनकी अगुवाई में फल-फूल रहे ‘गैंग ऑफ फोर’ ने पुरानी योजना को झाड़-पोंछकर नया जामा पहना दिया। परवेज मुशर्रफ इससे इतने मुतमइन थे कि बिना प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को बताए, उन्होंने ‘नॉर्दर्न लाइट इन्फेंट्री’ के जवानों को कूच के आदेश दे दिए। यह अभियान इतना गोपनीय रखा गया कि थल सेना के अन्य कमांडरों के साथ वायु सेना के आला अफसर तक इससे अनजान रहे। भारत ने जब अपनी सरजमीं खाली कराने के लिए हवाई हमले शुरू किए, तब वे हक्का-बक्का रह गए। समूचा सत्ता प्रतिष्ठान उनसे असहमत था, सेना के अन्य अंग अनभिज्ञ थे और भारतीय प्रतिक्रिया अनपेक्षित थी।
वे भारतीय वायु सेना की कार्रवाई का प्रतिरोध भी नहीं कर सकते थे। नई दिल्ली जो कर रही थी, अपनी जमीन पर कर रही थी। नियंत्रण रेखा लांघने का मतलब होता युद्ध, जिसके लिए वे उस समय तैयार न थे। यही नहीं, तब तक उन्होंने यह भी नहीं माना था कि भारतीय चौकियों पर कब्जा जमाए बैठे लोग उनके नियमित सैनिक हैं। जनरल मुशर्रफ किंकर्तव्यविमूढ़ हो गए और नवाज शरीफ हताश। निराशा भरे माहौल में इन्हें 4 जुलाई, 1999 को ह्वाइट हाउस की चौखट चूमनी पड़ी। उस बैठक के दौरान बिल क्लिंटन की मुद्रा बेहद कठोर थी। शरीफ ने कुछ शर्तों के साथ वापसी की बात कही। क्लिंटन ने कहा कि आपकी कोई शर्त नहीं मानी जाएगी। पाकिस्तान की भलाई इसी में है कि उसके दस्ते शराफत से वापस चले जाएं। नतीजतन, पाक फौजियों को लौटना पड़ा था। इस प्रक्रिया में भी उनके तमाम फौजी मारे गए। मुशर्रफ का यह गुनाह बेलज्जत साबित हुआ।
मुझे याद है, उन दिनों भी समझदार लोग कह रहे थे कि इस जीत का उल्लास मनाइए, पर सबक भी सीखिए। हमारी सीमाएं विशाल और बहुआयामी हैं। इनकी हिफाजत के लिए हम अभी तक तैयार नहीं हैं। तब 1962 की चीन से हुई जंग को भी याद किया गया था। जुलाई 1999 से जुलाई 2020 तक एनडीए और यूपीए ने दस-दस बरस हुकूमत की, पर सीमा सुरक्षा के मामले में हम आज भी सौ फीसदी अंकों के अधिकारी नहीं हैं। चीन के इस अतिक्रमण ने कारगिल और मुंबई पर आतंकवादी हमले सहित तमाम पुराने जख्मों को हरा कर दिया है। हम चीन, पाकिस्तान और आतंक के हमसायों से तब तक नहीं जूझ सकते, जब तक कि सीमाएं सुरक्षित न हों।
चीन ने पिछले दिनों लद्दाख में वही तरीका अख्तियार किया, जो कारगिल में पाकिस्तान ने किया था। उनके सैनिक उस समय कारगिल की चोटियों पर जम चुके थे, जब अटल बिहारी वाजपेयी दोस्ती की बस लेकर लाहौर में अपना खैरमकदम करा रहे थे। चीनी राष्ट्रपति ने भी कुछ माह पूर्व 11 अक्तूबर, 2019 को चेन्नई के समीप मामल्लपुरम में भारतीय आतिथ्य का लुत्फ उठाया था। कभी पल्लव सम्राटों की आर्थिक राजधानी रहे इस शहर से चीन को भी तिजारत होती थी। लगा था, पुराने दिन लौट रहे हैं, पर कूटनीति भले मनोभावों की कीमत पर ही फलती-फूलती है।हालांकि, बीजिंग की नीयत में खोट पहले से ही नजर आ रही थी। इससे पहले डोका ला और उससे भी पहले दौलत बेग ओल्डी, दीपसांग में दोनों देशों की सेनाएं हफ्तों तक आमने-सामने रही थीं। हमें इसलिए भी सतर्क रहना चाहिए था, क्योंकि कई वर्षों से पीएलए के दस्ते वास्तविक नियंत्रण रेखा के पास निर्माण कर रहे थे। उनके दस्ते ऐसी दुर्गम जगहों पर निरंतर अभ्यास कर रहे थे। इसीलिए संघर्ष के वक्त तैयारी के मामले में चीनी हमसे कहीं आगे थे।
यही वजह है कि जब वे अंदर आए, तो उन्हें वापस लौटाना कारगिल से कहीं ज्यादा दुष्कर साबित हो रहा है। अभी तक यह भी साफ नहीं हो सका है कि ये वापस लौटे हैं, तो कितना लौटे हैं? प्रधानमंत्री की घोषणा के बावजूद विपक्षी दल और कई अवकाश प्राप्त सैन्य व कूटनीतिक सेवा के अधिकारी इसे मानने को तैयार नहीं हैं। पर एक बात तय है कि शी जिनपिंग और उनकी सत्ता चौकड़ी को अंदाज नहीं था कि भारत इतनी दृढ़ता से पेश आएगा। 15 जून को गलवान में हमारे जवानों ने शहादत दी और अब जो आंकडे़ सामने आ रहे हैं, उससे जाहिर है कि चीनी सैनिकों को अधिक तादाद में हताहत होना पड़ा। तब से अब तक सीमा और कूटनीति के मोर्चे पर कोई कसर नहीं छोड़ी गई है।
ध्यान दें। आज की भांति कारगिल के मामले में भी भारतीय नेकनीयती जगजाहिर थी और इसका खामियाजा पाकिस्तान को उठाना पड़ा। उसने अमेरिका की हमदर्दी हमेशा के लिए खो दी और यह कहने का हक भी कि भारतीय भूमि पर खूंरेजी करने वाले लोग दहशतगर्द नहीं, बल्कि मुजाहिदीन हैं। अब यही हाल चीन का हो रहा है। उसे दुनिया भर में कडे़ प्रतिरोध का सामना करना पड़ रहा है। अमेरिका सहित पश्चिम के सारे देश उसकी हरकत के खिलाफ हैं। इंग्लैंड, जापान और तमाम देशों ने भारत की तरह चीनी कंपनियों पर प्रतिबंध लगाने शुरू कर दिए हैं। उसके उपनिवेशवादी विस्तार को रोकने का सबसे बढ़िया तरीका यही है कि हम बीजिंग की कारोबारी सत्ता पर चोट करें। विश्व बिरादरी यही कर रही है। क्या देंग जियाओ पिंग की नीति को हवा में उड़ा डालने वाले शी जिनपिंग भी वही गलती कर बैठे हैं, जो कभी जनरल अयूब खां और भुट्टो की जोड़ी अथवा जनरल परवेज मुशर्रफ ने की थी? चाहे जो हो, पर यह तय है कि हमें अपनी ऐतिहासिक भूलों से बचना होगा। भारत शताब्दियों से अपनी सीमाओं की निगहबानी के मामले में नादान साबित होता रहा है। यह आत्मघाती सिलसिला अब थम जाना चाहिए।
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