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नेताओं से एक गुस्ताख गुजारिश

ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन ने अपनी कुरसी छोड़ने का इरादा व्यक्त किया है। आमतौर पर राजनेता पैरों तले सियासी जमीन खिसकती देखकर ऐसा करते हैं, मगर जॉनसन की वजह कुछ और है। उनका कहना है कि बतौर...

नेताओं से एक गुस्ताख गुजारिश
शशि शेखरSat, 24 Oct 2020 10:22 PM
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ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन ने अपनी कुरसी छोड़ने का इरादा व्यक्त किया है। आमतौर पर राजनेता पैरों तले सियासी जमीन खिसकती देखकर ऐसा करते हैं, मगर जॉनसन की वजह कुछ और है। उनका कहना है कि बतौर प्रधानमंत्री उन्हें जो वेतन-भत्ते मिलते हैं, उनसे उनका गुजारा नहीं होता। शेष जिंदगी वह व्याख्यानों और लेखन के जरिए उपार्जित धन से व्यतीत करना चाहते हैं। 

भारतीयों को उनका फैसला चौंकाने वाला लग सकता है। हमलोग तो चुनाव-दर-चुनाव तमाम नेताओं की आमदनी ज्यामितीय कोणों की तरह पनपती पाते आए हैं। 
शायद आप जानते हों, फिर भी बताने में हर्ज नहीं कि बतौर ब्रिटिश प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन को ब्रिटेन के खजाने से सालाना 1,50,402 पौंड हासिल होता है। अगर भारतीय रुपये में आंका जाए, तो यह रकम एक करोड़, 45 लाख के करीब बैठती है। जॉनसन का हाथ इसलिए तंग है, क्योंकि उनके छह बच्चे हैं और पूर्व पत्नी मरीना ह्वीलर को दिए गए तलाक के इकरारनामे के मुताबिक उन्हें मोटा गुजारा-भत्ता भी देना होता है। अभी उनके बच्चों की पढ़ाई-लिखाई और पालन-पोषण में जो रकम खर्च होती है, उसकी भरपाई सरकारी वेतन-भत्ते नहीं कर पाते हैं। टोरी पार्टी का नेता बनने से पूर्व उन्हें द टेलीग्राफ  से सालाना 2,75,000 पौंड हासिल हो जाया करते थे। इसके अलावा, अगर वह महीने में दो व्याख्यान भी दे लेते थे, तो उन्हें 1,60,000 पौंड तक की अतिरिक्त आमदनी हो जाती थी। जाहिर है, जॉनसन उन दिनों को ‘मिस’ करते हैं और अब विचार व व्याख्यान की दुनिया में वापसी चाहते हैं। 

उनकी पूर्ववर्ती टेरेसा मे शायद उन्हें इस मामले में प्रेरित कर रही हैं। टेरेसा ने पदत्याग के पश्चात सिर्फ एक साल में भाषण और लेखन के जरिए दस लाख पौंड की कमाई कर ली थी। एक जमाना था, जब राजनेता अवकाश प्राप्त करने के बाद एकांत को अपना आश्रय बनाते थे, पर दुनिया बदल रही है। लोग सब कुछ जान लेना चाहते हैं। सियासत, कूटनीति, व्यापार आदि के तिलिस्मों की तह तक पहुंचने के लिए लालायित इन लोगों के लिए सत्ता के शीर्ष पर समय बिता चुके लोगों की शरण के अलावा कोई चारा नहीं बचता। ऐसे महानुभावों के पास सांविधानिक शपथ के दायरे के बाहर भी ऐसा बहुत कुछ होता है, जिससे असीमित जानकारियां प्राप्त की जा सकती हैं। टेरेसा मे तो इसका एक उदाहरण भर हैं। दुनिया के सबसे बडे़ कारोबारी देश अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपतियों का तो यह पुराना शगल रहा है। बराक ओबामा को पद छोडे़ हुए चार साल होने को आए, पर वह आज भी दुनिया के सबसे महंगे व्याख्याताओं में एक हैं। बगोटा टाइम्स  के मुताबिक, पिछले साल कोलंबिया के ‘एक्समा’ में व्याख्यान देने के लिए उन्होंने छह लाख डॉलर वसूले थे। हालांकि, ओबामा राष्ट्रपति बनने से पहले भी बतौर लेखक अच्छी-खासी कमाई कर लेते थे। उनकी दो किताबें द ऑडैसिटी ऑफ होप  और ड्रीम्स फ्रॉम माई फादर खासी लोकप्रिय थीं। इनकी रॉयल्टी स्वरूप लाखों डॉलर उनके बैंक खातों में जमा होते थे। इस मायने में वह औरों के मुकाबले अधिक कारगर साबित हुए हैं। 

ओबामा तो लंबे समय तक अपनी लोकप्रियता की आव और ताव बरकरार रखने में कामयाब रहे, पर बेहद बदनामी के साथ पद से विदा लेने वाले बिल क्लिंटन भी अच्छा-खासा अर्जन कर लेते हैं। उन्होंने अपनी आत्मकथा माई लाइफ  से काफी धन कमाया। इसकी 22.5 लाख से अधिक प्रतियां बिक चुकी हैं। उन्हें इससे लगभग दो करोड़ डॉलर तो अग्रिम कमाई हुई थी। वह और उनकी पत्नी हिलेरी क्लिंटन ने ‘पेड लेक्चर’ के जरिए फरवरी 2001 से 2016 में हिलेरी के राष्ट्रपति चुनाव लड़ने तक 729 व्याख्यानों से 15 करोड़, 30 लाख डॉलर से अधिक की कमाई कर ली थी। क्लिंटन दंपति की कुल कमाई में करीब 60 फीसदी व्याख्यानों और किताबों से आती है।
ऐसा नहीं है कि अमेरिकी राष्ट्रपति सदा-सर्वदा से ह्वाइट हाउस छोड़ने के बाद इसी तरह अपनी झोलियां भरते आए हों। अमेरिका को उद्धत राष्ट्रवाद की झोली में डालने वाले रोनाल्ड रीगन की इस मामले में खासी लानत-मलामत हुई थी। हुआ कुछ यूं था कि ह्वाइट हाउस में अपना कार्यकाल पूरा करने के बाद वह जापान में व्याख्यान देने गए। खबर उड़ी कि इसके बदले में उन्होंने 20 लाख डॉलर की मोटी रकम वसूली है। अमेरिकी भद्रलोक को तब यह नागवार गुजरा और उनकी लानत-मलामत शुरू हो गई। नतीजतन, रीगन साहब ने कसम खा ली कि अब वह किसी सार्वजनिक व्याख्यान का हिस्सा नहीं बनेंगे।

अब तो हमारे देश में भी यह प्रचलन जोर पकड़ रहा है। यह बात अलग है कि हमारे यहां विचारपूर्ण व्याख्यान देने वाले राजनेताओं की खासी कमी है। कइयों को तो इसके जरिए धन उपार्जित करने की जरूरत भी नहीं है। उनके आयकर रिटर्न गवाह हैं कि राजनीति में वे कंगाली का रोना रोते हुए आए थे और देखते-देखते अरबों के आसामी बन बैठे। मतदाता इसलिए भी उन पर जान छिड़कते हैं, क्योंकि राजनीति हमारे यहां अभी सामंती सत्ता और उससे जुड़ी ऐशो-इशरत का जरिया मानी जाती है। बहुत दूर क्यों जाएं, बिहार में इस समय चुनाव का माहौल है। वहीं पर नजर डाल देखते हैं। ‘असोसिएशन फॉर डेमोके्रटिक रिफॉम्र्स’(एडीआर) द्वारा जारी आंकड़ों में दावा किया गया है कि पहले चरण में दोनों मुख्य गठबंधनों के लगभग साठ फीसदी उम्मीदवार करोड़पति हैं। इनके पास एक से लेकर साठ करोड़ रुपये तक की संपत्ति है। यही नहीं, पिछले साल चुनाव आयोग में जो हलफनामे दिए गए थे, उनके आधार पर एडीआर ने बताया कि मौजूदा लोकसभा के 539 में 475 सांसद करोड़पति हैं। 
उम्मीद है, अब आप समझ गए होंगे, मैंने इस लेख की शुरुआत में बोरिस जॉनसन के फैसले को आश्चर्यजनक क्यों बताया था। 

यहां एक बात और साफ कर दूं। संसद और विधान मंडलों में करोड़पतियों की आमद में कोई बुराई नहीं है, बशर्ते देश की जनता भी उनकी तरह खुशहाल हो। अफसोस! 107 देशों के ‘ग्लोबल हंगर इंडेक्स’ में भारत 94वें स्थान पर आता है और हमारी प्रति-व्यक्ति आय महज एक लाख, 35 हजार रुपये सालाना है। 25 करोड़ से अधिक लोग गरीबी की रेखा के नीचे बसर करते हैं। यह गरीबी की रेखा भी कहां से शुरू होती है, जानकर आश्चर्य होगा। 32 रुपये प्रतिदिन खर्च करने वाले को हमारी हुकूमतें निर्धन नहीं मानतीं। वे यह भी नहीं मानतीं कि इतने में दो जून की रोटी भी मयस्सर नहीं, शिक्षा और सेहत तो दूर की बात है। भारत इस मामले में अलबेला रहा है, जहां की जनता गरीब है और जन-प्रतिनिधि अमीर।
क्या मैं ऐसे राजनेताओं से बोरिस जॉनसन के बहाने अपने अंदर झांकने की गुस्ताख गुजारिश कर सकता हूं?

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