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जाति न पूछो वोटर की

उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी को 14 साल बाद एक बार फिर ब्राह्मणों की याद आई है। पार्टी ने समूचे सूबे में ‘प्रबुद्ध सम्मेलन’ करने का निर्णय किया है। अयोध्या से शुरू हुआ यह अभियान...

जाति न पूछो वोटर की
शशि शेखरSat, 24 Jul 2021 09:05 PM
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उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी को 14 साल बाद एक बार फिर ब्राह्मणों की याद आई है। पार्टी ने समूचे सूबे में ‘प्रबुद्ध सम्मेलन’ करने का निर्णय किया है। अयोध्या से शुरू हुआ यह अभियान विभिन्न तीर्थस्थलों से होता हुआ प्रदेश के 72 जिलों तक पहुंचेगा। बसपा ने 2006-07 में भी ब्राह्मणों और दलितों को जोड़कर ऐसा राजनीतिक रसायन तैयार किया था, जिसने पार्टी को 206 सीटें दिलाकर मायावती को लखनऊ के सत्ता-सदन में प्रतिष्ठापित कर दिया था। क्या वह करिश्मा दोहराया जा सकता है?
सियासी ऊंट किस करवट बैठेगा, इसकी भविष्यवाणी करना पत्रकारों का काम नहीं, पर इसमें कोई दोराय नहीं कि मायावती एक ऐसी महारथी हैं, जो हर बार धूल झाड़कर उठ खड़ी होती हैं और कुछ ऐसा कर डालती हैं, जिससे उनके विरोधी हैरत में पड़ जाते हैं। यही वजह है कि बसपा देश के पैमाने पर भाजपा तथा कांगे्रस के बाद तीसरी सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर प्रतिष्ठापित है। यही नहीं, बसपा का प्रयोग चुनावी हार-जीत के अनूठे समीकरण बैठाने के लिए भी किया जाता है। उत्तर भारत के तमाम राज्यों में बसपा परोक्ष अथवा अपरोक्ष रूप से महत्वपूर्ण भूमिका निभाती रही है, पर यहां बात उत्तर प्रदेश की हो रही है।

देश के सबसे बडे़ इस प्रदेश में बसपा ही नहीं, बल्कि सभी पार्टियों ने अपने-अपने पासे बिछाने शुरू कर दिए हैं। अखिलेश यादव और उनकी समाजवादी पार्टी इस चुनाव के प्रबलतम दावेदारों में से एक है। अखिलेश पिछले एक बरस से भाजपा से रूठे-बिखरे जातीय समूहों वाली पार्टियों से जोड़-तोड़ बैठाने में लगे हैं। बसपा और कांगे्रस के साथ हुए पिछले समझौतों ने उन्हें सिखा दिया है कि उत्तर प्रदेश में तथाकथित राष्ट्रीय पार्टियों के साथ समझौता फायदे का सौदा नहीं है। वह पांच वर्षों के अपने शासनकाल में हुए ‘विकास-कार्यों’ को लेकर मैदान में उतरने का मन बना रहे हैं। सपा के रणनीतिकारों को भरोसा है कि केंद्र और राज्य सरकारों की ‘एंटी-इनकंबेन्सी’उनकी मदद करेगी। उनके समर्थक मानते हैं कि पिछले शासनकाल में उनके ऊपर परिवार का जो बोझ था, वह उतर चुका है और ‘भैया’अपनी छवि के बलबूते चुनाव में उतरेंगे। इसका सकारात्मक असर पड़ेगा।
समाजवादी रणनीतिकार यह भी मानते हैं कि यादव और मुस्लिम वोटों के अलावा अन्य जातियों और समुदायों के वोट भी उन्हें हासिल होंगे। यही वजह है कि पार्टी ने तमाम अति पिछड़ों और ब्राह्मणों को मैदान में उतारने की संभावनाएं तलाशनी शुरू कर दी हैं। यह बात अलग है कि असदुद्दीन ओवैसी और राम अचल राजभर के बीच हुए समझौते ने उनके चुनावी अंकगणित पर सवालिया निशान खडे़ कर दिए हैं। सवाल उठता है कि क्या पश्चिम बंगाल की तर्ज पर अल्पसंख्यक एआईएमआईएम की जगह समाजवादी पार्टी को चुनेंगे? इस संभावना की प्रबलता से इनकार नहीं किया जा सकता। यही नहीं, अखिलेश को पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसान असंतोष और रालोद के प्रति जाटों की सहानुभूति से भी लाभ मिलने की उम्मीद है, पर उनकी राह में तमाम रोड़े भी हैं।
उत्तर प्रदेश में लगभग चार दशक राज कर चुकी कांग्रेस की मैं विस्तार से चर्चा इसलिए नहीं कर रहा कि वह इस जमीनी लड़ाई में अभी तक अपनी जमीन तलाश रही है।
पिछले पंचायत चुनावों में समाजवादी पार्टी ने भले ही 759 सीटें अर्जित कर 768 सीटें पाने वाली भाजपा से लगभग बराबरी कर ली हो, पर आंकडे़ हमेशा समूचे तथ्य की मुनादी नहीं करते। हमें भूलना नहीं चाहिए कि ये चुनाव कोरोना की दूसरी लहर और किसान आंदोलन के चरमोत्कर्ष के बीच हुए थे। लोगों के बीच गम और गुस्से की भावना थी। इसके बावजूद भाजपा साफ नहीं हुई, यानी ग्रामीण जन का भरोसा उस कठिन वक्त में भी डगमगाया जरूर, पर टूटा नहीं था। इसके अलावा, मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की अपनी ‘इमेज’है। योगी के बारे में मशहूर है कि कानून-व्यवस्था के प्रति उनका नजरिया बहुत सख्त है और किसी तरह का कोई आरोप उनके ऊपर नहीं है। पिछले साढे़ चार सालों के दौरान वह एक दृढ़ प्रशासक साबित हुए हैं। यहां ध्यान रखने की जरूरत है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी खुद वाराणसी से चुनकर आते हैं और गुजरात को छोड़ दें, तो देश के किसी भी हिस्से से ज्यादा उनकी ‘अपील’ उत्तर प्रदेश में है। उनके साथ केंद्रीय मंत्रिमंडल में नंबर-दो का दर्जा रखने वाले राजनाथ सिंह भी उत्तर प्रदेश के दिग्गज नेता हैं।

इसके अलावा, भगवा पार्टी ने जबरदस्त सोशल इंजीनियरिंग कर रखी है। जो लोग असंतुष्ट थे, उन्हें मनाने की प्रक्रिया जारी है। निषाद पार्टी और अनुराधा पटेल इसके उदाहरण हैं। प्रदेश मंत्रिमंडल के आकार-प्रकार पर नजर डालें, तो स्थिति और स्पष्ट हो जाती है। योगी आदित्यनाथ के उप-मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य अति पिछडे़ समुदाय से आते हैं और बहैसियत प्रदेश अध्यक्ष उन्होंने भाजपा को बहुमत दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थी। पार्टी के विधायकों और इस वृहद वोटर वर्ग में आज भी उनकी खासी पकड़ है। दूसरे उप-मुख्यमंत्री दिनेश शर्मा ब्राह्मण हैं। इसके अलावा, स्वामी प्रसाद मौर्य, अनिल राजभर, जयप्रकाश निषाद, दारा सिंह चौहान और श्रीराम चौहान आदि अति पिछड़ों पर रसूख के लिए जाने जाते हैं। पार्टी अध्यक्ष स्वतंत्रदेव सिंह भी इसी वर्ग से आते हैं। कोई आश्चर्य नहीं कि भाजपा 2014, 2017 और 2019 के चुनावों में अपने सहयोगियों के साथ 45 फीसदी मत कब्जाने में कामयाब रही।
मतलब साफ है, भगवा दल सोशल इंजीनियरिंग के साथ साफ-सुथरी सरकार के दावे और वायदे लेकर चुनावी समर में उतरने जा रहा है, पर सिर्फ सोशल इंजीनियरिंग ही सत्ता में पुनर्वापसी की गारंटी नहीं, क्योंकि उसके विपक्षी भी तो यही कर रहे हैं। इसके अलावा, पार्टी के सांसदों, विधायकों और अन्य पदाधिकारियों के बडे़ वर्ग ने कोरोना की दोनों लहरों के दौरान मैदान में उतरने से गुरेज किया। कुछ अति वरिष्ठ लोगों ने अपनी जिम्मेदारी निभाने के बजाय सरकार पर दोषारोपण कर जान छुड़ाने की कोशिश की। उत्तर प्रदेश में अगर सत्ता-विरोधी रुझान पनपता है, तो उसमें सरकार से ज्यादा इन लोगों के पलायनवादी रवैये का योगदान होगा। हो सकता है, भाजपा आलाकमान इनमें से कइयों के टिकट काटकर बचाव की जुगत करे, पर यह आजमाया हुआ फॉर्मूला कितना कारगर साबित होगा?
ऐसे में, यह आशंका उपजनी स्वाभाविक है कि गड्ड-मड्ड समीकरणों वाले चुनाव को अपने पक्ष में करने के लिए पार्टियां उन टोटकों का इस्तेमाल कर सकती हैं, जो पिछले बंगाल और बिहार चुनावों के दौरान देखने को मिले। वे लोग कृपया अभी से सचेत हो जाएं, जो साफ-सुथरे लोकतंत्र के लिए संवेदनशील हैं।

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