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इस बदलती दुनिया का खुदा कोई नहीं

यह कठिन वक्त है। एक तरफ जहां कोरोना अपने कातिल पंजों की पकड़ मजबूत करता जा रहा है, वहीं समूची चिकित्सा-व्यवस्था फुसफुसी साबित हो रही है।  ऑक्सीजन का अभाव लोगों का दम घोंट रहा है, वेंटिलेटर समूची...

इस बदलती दुनिया का खुदा कोई नहीं
शशि शेखरSat, 24 Apr 2021 09:12 PM
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यह कठिन वक्त है। एक तरफ जहां कोरोना अपने कातिल पंजों की पकड़ मजबूत करता जा रहा है, वहीं समूची चिकित्सा-व्यवस्था फुसफुसी साबित हो रही है।  ऑक्सीजन का अभाव लोगों का दम घोंट रहा है, वेंटिलेटर समूची क्षमता से काम नहीं कर रहे, और अस्पतालों में बिस्तरों का अकाल पड़ गया है। सब जानते थे कि दूसरी लहर दरवाजे पर खड़ी है, पर हुकूमतों का ध्यान कहीं और था। मौत के झपट्टों के बीच एक सवाल दब गया है, लोगों को प्रतिरोधक टीका कब हासिल होगा? अफसोस के साथ कहना पड़ रहा है कि यहां भी भारत की बड़ी आबादी को दुरूह इंतजार करना पड़ सकता है। इसके लिए जरूरी पदार्थों की आपूर्ति पर अमेरिका ने रोक लगा रखी है।
ये वही अमेरिका है, जो कल तक समूची धरती को एक गांव साबित करने में जुटा था। उसका साथ अन्य धनी-मानी देश भी निभा रहे हैं। प्राणरक्षक टीके का यह राष्ट्रवाद उस भरी-पूरी दुनिया के बाशिंदों के लिए खतरनाक है, जिसे 1991 तक तीसरी दुनिया कहा जाता था। आज यह सुनकर शायद बहुतों को अटपटा लगे, पर सच यही है कि 1991 में सोवियत संघ के पतन के बाद से मनमोहक नारे जरूर लगाए गए, पर उनका मतलब सिर्फ एक था- विकासशील देशों से सस्ता श्रम हासिल करना। यूरोप और अमेरिका में मानव-श्रम तब तक बहुत महंगा हो गया था, लिहाजा पश्चिम की बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने चीन और भारत की ओर रुख किया था। वे गलत नहीं थे। संसार की सबसे बड़ी आबादी वाले ये मुल्क अपनी गुरबत से निकलने को बेताब थे। चीन को इसका सर्वाधिक लाभ मिला। साम्यवाद की पूंजीवाद से यह जुगलबंदी चौंकाने वाली थी। आज चीन खुदमुख्तार बन गया है और अपने व्यापारिक हितों के कभी आका रहे अमेरिका को सीधी चुनौती दे रहा है। यह प्रवृत्ति परवान चढ़ती, इससे पहले ही वुहान से निकले एक वायरस ने समूची धरती को हिला दिया। कोरोना का कहर देखते-देखते संसार के सभी महाद्वीपों में फैल गया। व्यावसायिक प्रतिष्ठान बंद करने पडे़, सीमाओं पर आमदोरफ्त रोकनी पड़ी और इंसान का इंसान से मिलना दूभर हो गया। लंबे लॉकडाउन ने उस ‘ग्लोबलाइजेनशन’ की धज्जियां बिखेर दीं, जिसे इस शताब्दी की शुरुआत में आधी दुनिया का अकेला त्राता बताया गया था। भले मानुस तब भी सोचते थे कि आज नहीं तो कल, यह बीमारी बीत जाएगी, पर वे शराफत की अपनी आदत के चलते यह भूल बैठे थे कि इस बदलती हुई दुनिया का खुदा कोई नहीं। 
अमेरिका और ब्रिटेन जैसे देशों ने आनन-फानन में बड़ी संख्या में टीके बुक करा लिए थे। ब्रिटिश मेडिकल जर्नल के मुताबिक, अमेरिका ने छह वैक्सीन निर्माता कंपनियों के साथ 80 करोड़ खुराक का सौदा किया है। इस समझौते के साथ उसने एक अरब अतिरिक्त खुराक की खरीदारी का विकल्प भी नत्थी कर रखा है। जो नहीं जानते, उन्हें बता दूं कि अमेरिका की आबादी 33 करोड़ के करीब है। बताने की आवश्यकता नहीं कि उसने जरूरत से ज्यादा खरीद का करार किया है। यही हाल ब्रिटेन का है। लंदन के हुक्मरानों ने प्रति नागरिक पांच खुराक के हिसाब से करार कर रखा है। इस प्रवृत्ति का सर्वाधिक नुकसान अफ्रीका के गरीब मुल्कों और हम जैसे विकासशील देशों को उठाना पड़ रहा है। हमारे देश की कुल आबादी कही तो 135 करोड़ जाती है, पर यह पुराना आंकड़ा है। अगर इसी को मील का पत्थर मान लें, तब भी 70 प्रतिशत लोगों तक टीका पहुंचाने के लिए हमें उससे अधिक टीकों की जरूरत पडे़गी, जितने का करार अमेरिका ने कर रखा है। यह खुराक तभी मुकम्मल होती है, जब इसे दो बार लगा दिया जाए, पर यह हो कैसे? पुणे और हैदराबाद की दो कंपनियों ने करीब पांच महीने पहले टीका बनाना शुरू कर दिया था। पुणे के सीरम इंस्टीट्यूट को इस जीवन-रक्षक उत्पाद का उत्पादन जारी रखने के लिए जिन पदार्थों की जरूरत होती है, उन पर अमेरिका ने प्रतिबंध लगा रखा है। कंपनी के सीईओ अदार पूनावाला ने नवनियुक्त अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन से मदद करने का अत्यंत विनम्र अनुरोध किया, पर अभी तक कोई माकूल जवाब नहीं मिला है। महाशक्तियां सिर्फ दारोगागिरी करना जानती हैं, मदद करना उन्होंने बरसों पहले बिसरा दिया है। 
उम्मीद है, विश्व स्वास्थ्य संगठन और भारत सरकार अमेरिका पर इसके लिए कारगर दबाव बना सकेगी। इस बीच भारत बायोटेक ने केंद्र  सरकार की पेशकश से उत्पादन बढ़ाने की घोषणा की है। यह अच्छा कदम है, पर विशेषज्ञों का मानना है कि आवश्यक आपूर्ति का लक्ष्य प्राप्त करने में अभी महीनों लग सकते हैं। क्या इतना वक्त है हमारे पास? सवाल सिर्फ टीके का नहीं है। मरीजों को ऑक्सीजन, अस्पताल और वेंटिलेटर भी चाहिए। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस हफ्ते की शुरुआत में राष्ट्र को संबोधित करते हुए इस प्रक्रिया को युद्ध-स्तर पर जारी रखने का आश्वासन दिया है। अच्छा होता कि हमारा सस्ता श्रम और सर्वोत्तम प्रतिभाएं लेने वाले पश्चिमी देश इसमें मदद करते, पर वे मुट्ठी बांधे बैठे हुए हैं। इस प्रवृत्ति को देखते हुए डब्ल्यूएचओ का कहना है कि दुनिया के सिर्फ 37 देश इस वर्ष के अंत तक टीकाकरण के पूर्ण लक्ष्य को प्राप्त कर सकेंगे। भारत के लिए यह लड़ाई और लंबी है। हमें 2022 के अंत तक इंतजार करना पड़ सकता है। धरती के 84 अन्य गरीब देश तो 2023 में भी अगर इस लक्ष्य को प्राप्त कर लें, तो बेहतर होगा। यह वक्त का वह खतरनाक दौर है, जहां हम बदतरी में बेहतरी तलाशने पर मजबूर हैं। ऐसा नहीं है कि इसका नुकसान सिर्फ गरीब और विकासशील देशों को ही उठाना पडे़गा। ‘इंटरनेशनल चैंबर्स ऑफ कॉमर्स रिसर्च फाउंडेशन’ ने अपने ताजा अध्ययन में पाया है कि यदि विकासशील देशों की पहुंच वैक्सीन तक संभव नहीं हो सकी, तो विश्व अर्थव्यवस्था को 9.2 ट्रिलियन डॉलर का नुकसान उठाना पडे़गा। विकसित देश भी 120 बिलियन डॉलर के आस-पास सालाना नुकसान उठाकर पिछले 30 सालों में अर्जित मध्यवर्ग का बड़ा हिस्सा खो चुके होंगे। यह वही मध्यवर्ग है, जो अपनी मेहनत से पश्चिमी देशों की अमीरी कायम रखता आया है। आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि गरीब देशों को टीका मुहैया कराने पर सिर्फ 25 बिलियन डॉलर का खर्च आएगा। यदि धनी-मानी देश हाथ बंटाते, तो संसार के सिर पर मंडराता बदहाली का खतरा जल्दी टल सकता था। डब्ल्यूएचओ के मुखिया टेड्रोस गेब्रिएसस ने सही कहा है कि यदि गरीब और मध्यम आय वर्ग वाले देशों को वैक्सीन नहीं मिली, तो वैश्विक अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाना असंभव होगा, क्योंकि वायरस लोगों की जान लेता रहेगा। इसीलिए तमाम देशों के हित में है कि वैक्सीन का इस्तेमाल समूची इंसानियत के हक-हुकूक में किया जाए। टेड्रोस गेब्रिएसस के इस कथन से असहमत नहीं हुआ जा सकता कि- प्राथमिकता सभी देशों के कुछ-कुछ लोगों के टीकाकरण की होनी चाहिए, न कि कुछ देशों के सभी लोगों की। 
इस उपग्रह का प्रभुवर्ग क्या इतनी सी बात नहीं समझता? 

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