‘हम जो कर सकते थे, हमने किया। अब गेंद आपके पाले में है।’ इन शब्दों के साथ देश के कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने हाथ जोडे़ और कमरे से बाहर निकल गए। किसानों और केंद्र सरकार के बीच शुक्रवार को हुई 11वें दौर की बातचीत का ऐसा समापन अप्रत्याशित था। सरकार ने किसानों से यह भी कहा है कि आप ठीक से विचार कर लें और यदि आप तैयार हों, तो हम अगले दौर की बातचीत के लिए सहमत हैं। पिछले 10 दौर की तरह इस बार अगली वार्ता की कोई तिथि निर्धारित नहीं हुई। तय है, दोनों पक्ष एक ऐसी अंधी गली के मुहाने पर पहुंच गए हैं, जहां से वापस तो आना ही होगा।
सरकार ने डेढ़ बरस तक कानूनों का क्रियान्वयन स्थगित करने और इस दौरान बातचीत के जरिए सहमति बनाने की पेशकश कर लचीलापन दिखाया, पर किसान अपने रुख पर कायम हैं। बातचीत के बाद किसान नेताओं ने कहा कि हम आंदोलन तेज करेंगे। वे 26 जनवरी को परेड निकालने के फैसले पर भी अडिग हैं। यही वह मुकाम है, जहां से सिहरती हुई आशंकाओं का सिलसिला शुरू होता है।
सवाल उठता है कि सरकार के दो कदम पीछे हटने के बावजूद यह मामला सुलझ क्यों नहीं रहा? जवाब इस किस्से में छिपा है। दशक 1990 की बात है। मेरे एक दोस्त वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी थे। उत्तर प्रदेश सरकार की ओर से उन्हें अचानक एक महत्वपूर्ण जिले में कलेक्टर के पद का प्रस्ताव मिला। उस जिले के किसान कभी-कभी आंदोलित हो उठते थे। मेरे मित्र ने बाद में एक शाम शेखी बघारते हुए कहा कि मैंने किसानों को ‘फिट’ कर दिया था। कैसे? मेरी जिज्ञासा उभरी थी। उन्होंने जवाब दिया कि किसानों को अगर आपने उत्तेजना भड़कते ही काबू नहीं किया, तो तरह-तरह की दिक्कतें पैदा होती जाती हैं। वे धरना या आंदोलन स्थल पर बढ़ते चले जाते हैं। जैसे-जैसे भीड़ बढ़ती है, उनकी मांगें भी बढ़ती जाती हैं। अब, जब किसानों से सरकार की 11वें दौर की बातचीत खटास भरे माहौल में बेनतीजा साबित हो चुकी है, तो मुझे अपने आईएएस मित्र बेइंतहा याद आ रहे हैं। सवाल उठता है कि क्या सरकार को उसी समय किसानों से कारगर बातचीत नहीं कर लेनी चाहिए थी, जब वे पंजाब में रेल की पटरियों पर जा बैठे थे? जैसे-जैसे उनका आंदोलन पुराना पड़ता गया, वैसे-वैसे जोर पकड़ता गया। हरियाणा में उन्हें ऐसा समर्थन मिलेगा, क्या किसी ने कभी यह सोचा था? यहां कहा जा सकता है कि पंजाब में कांग्रेस की सरकार है, वहां केंद्र के कारिंदों को दिक्कत पेश आ सकती थी, पर हरियाणा में तो भाजपा की हुकूमत है, पर वहां की सरकार ने दिल्ली की ओर बढ़ते किसानों पर पानी की बौछारें और आंसू गैस के गोले बरसाए। सड़कें तक काट दी गईं, पर वे रुके नहीं।
यहां हमें जाट-सिखों की जेहनीयत समझनी होगी। यह वो कौम है, जिसके पुरखों ने कभी मुगलों से जबरदस्त लड़ाई लड़ी थी और इसीलिए उनकी पारंपरिक कहावतों व गीतों में ‘दिल्ली के तख्त’से लड़ने का गौरवपूर्ण आख्यान मिलता है। यह ठीक है कि ‘दिल्ली के तख्त’ पर कब्जा करने की उनकी नीयत नहीं है, पर रक्त में बहती रवायतों का क्या कीजिएगा। शुरुआत में इस आंदोलन को सिर्फ कुछ सिरफिरे किसानों का भटकाव मान लेना भी जल्दबाजी में निकाला गया निष्कर्ष था। सिख गुरुद्वारों की परंपरा है कि वे आंदोलनकारियों को हरसंभव सहायता प्रदान करते हैं। धरनारत किसानों के बीच एक शब्द आपको बार-बार सुनाई पडे़गा- ‘सेवा’। यह वही सेवा है, जिसका विधान सिख गुरुओं ने समाज का मनोबल बढ़ाने और एकजुटता बनाए रखने के लिए रचा था। आज धरना स्थलों पर जो लंगर, फार्मेसी, शौचालय, लॉण्ड्री आदि चल रहे हैं, वे गुरुद्वारों की परंपरा का हिस्सा हैं। देखने में यह सब बहुत आकर्षक नजर आता है, पर सवाल बहुत से उठते हैं। इनमें से तमाम राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े होने के कारण बेहद संवेदनशील हैं, इसलिए इन पर फिर कभी चर्चा। पंजाब और हरियाणा के किसानों को पश्चिमी उत्तर प्रदेश और राजस्थान के सीमावर्ती इलाकों से भी समर्थन हासिल हुआ है। कोई आश्चर्य नहीं कि इनमें से अधिकांश इलाके जाट बहुल हैं, पर यह मान लेना भूल होगी कि यह सिर्फ जाट किसानों का आंदोलन है। हालांकि, यह भी सच है कि यह आंदोलन अभी तक भौगोलिक विस्तार नहीं कर सका है। क्या इसीलिए कृषि मंत्री ने बातचीत के बाद पत्रकारों से चर्चा में इसे पंजाब और एक-दो प्रदेशों के कुछ किसानों का आंदोलन बताया? वार्ता में शामिल हनन मुल्ला ने स्वीकार भी किया है कि कुछ मतभेद जरूर हैं, पर 95 फीसदी लोग एकजुट हैं। क्या सरकार को इसमें कोई संभावना नजर आती है? तनाव के इस चरम पर शनिवार की शाम कुछ सकारात्मक संभावनाएं जगीं। दिल्ली पुलिस और किसान नेताओं के बीच मैराथन बातचीत में सहमति बनी कि 26 जनवरी को ट्रैक्टर रैली दिल्ली में प्रवेश करेगी। इसका ‘रूट’क्या होगा, इन पंक्तियों के लिखे जाने तक स्पष्ट नहीं है। उम्मीद है, इसका खुलासा आज शाम तक हो जाएगा। प्रारंभिक जानकारी के अनुसार, किसान रास्ते में रुकेंगे नहीं और न ही निर्धारित पथ को छोड़ेंगे। अब दिल्ली पुलिस और कृषक नेताओं पर इसके शांतिपूर्ण निर्वाह का दायित्व आ पड़ा है। किसानों ने इतना लंबा शांतिपूर्ण आंदोलन चलाकर इतिहास रच दिया है, पर आशंका कायम है। रिंगरोड पर अगर कुछ अवांछनीय तत्वों ने उनके अनुशासन को न माना, तब क्या होगा? एक बात और। इसमें कोई दो राय नहीं कि धरनारत किसान देशभक्त हैं, लेकिन 1980 के दशक में पड़ोसी हुकूमत के इशारे पर जो खूंरेजी रची गई थी, उसमें भी इन्हीं के भाई-बंधु शहीद हुए थे। भावनाओं का ज्वार जब हिलोरें ले रहा हो, तब वहां उत्तेजना की छोटी-सी चिनगारी भी इसे दावानल बना सकती है। हम अतीत में हाथ जला चुके हैं, आगे कभी ऐसा न हो, इसे सुनिश्चित करना भारतीय समाज की भी जिम्मेदारी है। सरकार ने सुलह के लिए हाथ बढ़ाया है, किसानों को भी इस भावना का सम्मान रखना चाहिए। उम्मीद है, शनिवार की शाम से शुरू हुआ सिलसिला सही मुकाम तक पहुंचेगा।
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