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आस्था और अविश्वास के बीच

तय है, मामला सिर्फ धार्मिक स्थलों का नहीं है। हमें आपसी खाइयों को पाटना होगा। सदियों से शहंशाहों और राजनेताओं ने बडे़ शातिर तरीके से ये खाइयां खोदी हैं। देश के समझदार लोग और खुद को जिम्मेदार बताने...

आस्था और अविश्वास के बीच
शशि शेखरSat, 21 May 2022 09:07 PM
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सर्वोच्च न्यायालय ने ज्ञानवापी विवाद वाराणसी के जिला जज को वापस करते हुए इसे प्राथमिकता के आधार पर सुनने का आदेश दिया है। आला अदालत ने जिला प्रशासन से वुजूखाने को सुरक्षित रखने के साथ यह भी कहा है कि  नमाजियों को किसी तरह की कोई दिक्कत न हो। हिंदू पक्ष का कहना है कि वुजू के लिए प्रयुक्त होने वाले हौज से शिवलिंग मिला है, जबकि मुस्लिम इसे फव्वारा बता रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट इस मसले को अब जुलाई के दूसरे सप्ताह में सुनेगा।
यह एक दुरूह कानूनी लड़ाई की शुरुआत भर है, फिर मामला सिर्फ ज्ञानवापी तक नहीं सिमटा रह बचा है। श्रीकृष्ण जन्मस्थान, कुतुब मीनार, ताजमहल, भोजशाला सहित तमाम विवादों के तंदूर फिर से गरम होने लगे हैं। क्या हम 1989 से 92 के बीच के उथल-पुथल वाले दौर में प्रवेश कर रहे हैं? वे लोग, जो यह मानते हैं कि समस्या की जड़ महज एक धर्म के बाशिंदे हैं, उन्हें याद दिलाना चाहूंगा कि ईसा और मोहम्मद साहब के पैदा होने से पहले भी हमारे देश में विभिन्न पंथों के लोग आपस में टकराते रहते थे। जनश्रुति है कि चाणक्य को अपने शिष्य चंद्रगुप्त और उनके दरबार को कुछ समय के लिए छोड़ना पड़ा था। वजह? युवा सम्राट जैन मुनि भद्रबाहु के प्रभाव में आ गए थे।

वापस ज्ञानवापी पर लौटते हैं। जरा सोचिए, जिस औरंगजेब ने भगवान महादेव के मंदिर का ध्वंस किया, उसी ने काशी के अपारनाथ मठ और टेकरा मठ के निर्माण में आर्थिक सहयोग दिया। बाबा अपारनाथ ने विश्वनाथ मंदिर तोड़ने और मस्जिद बनाने का विरोध किया था। इसके बाद यह शाही करम क्यों? क्या वह आस्था के एक केंद्र के ध्वस्तीकरण और अन्यों को शाही इमदाद देकर काशी की रिआया को भरमाए रखना चाहता था, ताकि बगावत को रोका जा सके? या, वह हिंदू धर्म की अंतरधाराओं में अपनी निष्कृति खोज रहा था?
यह भी सोचने की बात है कि जब औरंगजेब शहजादा हुआ करता था, तब उसने एक हुक्मनामा जारी किया था। काशी हिंदू विश्वविद्यालय के भारत कला भवन में महफूज इस दस्तावेज में लिखा है- ‘अबुल हसन (वाराणसी में तैनात सिपहसालार) को यह जानकारी हो...हमारे धार्मिक कानून द्वारा यह निर्णय किया गया है कि पुराने मंदिर न तोडे़ जाएं और नए मंदिर भी न बनें। इन दिनों हमारे अत्यंत आदर्श एवं पवित्र दरबार में यह खबर पहुंची है कि कुछ लोग द्वेष और वैमनस्यता के कारण बनारस एवं उसके आसपास के क्षेत्रों में कुछ ब्राह्मणों को परेशान कर रहे हैं। साथ ही, मंदिर की देखभाल करने वाले ब्राह्मणों को उनके पदों से हटाना चाहते हैं, जिससे उस समुदाय में असंतोष पैदा हो सकता है। इसलिए हमारा यह शाही आदेश है कि फरमान के पहुंचते ही तुम यह चेतावनी जारी करो कि भविष्य में ब्राह्मणों और अन्य हिंदुओं को किसी प्रकार के अन्याय का सामना न करना पडे़। वे सभी शांतिपूर्वक अपने व्यवसाय में लगे रहें  और अल्लाह द्वारा दिए गए साम्राज्य (जो हमेशा बरकरार रहेगा) के लिए पूजा-पाठ करते रहें। इसे शीघ्रातिशीघ्र लागू  होना चाहिए।’

शहजादे ने यह खत क्यों लिखा? क्या वह शाहजहां द्वारा मंदिरों को जमींदोज किए जाने से नाराज था? डॉक्टर मोतीचंद्र ने काशी का इतिहास  में बादशाहनामा  के हवाले से लिखा है कि शाहजहां ने इलाहाबाद के सूबेदार हैदर बेग को मंदिर तोड़ने का हुक्म दिया था। ताजमहल के तौर पर दुनिया को प्रेम की अमिट निशानी देने वाले शाहजहां के राज में काशी के 76 धर्मस्थल तोडे़ गए थे। अगर औरंगजेब इससे क्षुब्ध था, तो गद्दी संभालने के बाद वह धर्मांध क्यों हो गया? कुछ विद्वान इसे दरबार का दबाव, तो कुछ तत्कालीन सियासत का तकाजा बताते हैं। यह भी एक तथ्य है कि उसने गोलकुंडा के शासक से नाराज होकर वहां की जामा मस्जिद तोड़ने का हुक्म दिया था। बात चली है, तो बता दूं कि दक्कन का इलाका उसकी दुखती रग था। उसने इसे जीतने में अपनी लंबी हुकूमत का अधिकांश समय और संसाधन झोंक दिए। शाहजहां का इमारत प्रेम और औरंगजेब की दक्कन पिपासा शाही खजाने पर भारी पड़ी। ऊपर से औरंगजेब ने ईस्ट इंडिया कंपनी को माफी और फिर से तिजारत की इजाजत दे दी। बताने की जरूरत नहीं कि उसके बाद मुगलिया सल्तनत और हिन्दुस्तान का क्या हुआ?

इसमें कोई दो राय नहीं है कि हिंदुओं के तीन सर्वाधिक पवित्र धार्मिक स्थलों सहित हजारों की संख्या में मंदिर तोड़कर उनकी जगह मस्जिदें बना दी गई थीं। इसकी वजह से देश के बहुसंख्यकों में सदियों से गम और गुस्से का संचार है। उनकी भावनाओं पर मरहम कैसे लगाया जाए? राम मंदिर आंदोलन के दौरान लालकृष्ण आडवाणी और स्वर्गीय अशोक सिंघल ने सुझाया था कि अगर हमें अयोध्या, मथुरा और काशी मिल जाएं, तो आगे इस तरह की मांग नहीं रखेंगे। इस पर मुस्लिम राजनेता और धार्मिक ‘एक्टिविस्ट’ यकीन नहीं रखते। उनका मानना है कि अगर वे इस दावे को सच मान भी लें, तो इसकी कोई गारंटी नहीं कि आने वाले सालों में तीन हजार से अधिक तथाकथित विवादग्रस्त मुस्लिम धार्मिक स्थलों से छेड़छाड़ नहीं की जाएगी। अखिल भारतीय मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की मांग है कि 18 सितंबर, 1991 के अधिनियम को हर हाल में व्यावहारिक धरातल पर लाया जाए। इस अधिनियम के अनुसार, भारत में 15 अगस्त, 1947 को जो धर्मस्थल जिस स्वरूप में था, उसे संरक्षित रखा जाना है।

तय है, बात अविश्वास की है। अगर हम अपनी साझी संस्कृति और इतिहास के सही उदाहरणों पर अमल करें, तो बीच का रास्ता निकल सकता है। मध्य प्रदेश की भोजशाला में झगड़ा थामने के लिए यही तो किया गया था। वहां मंगलवार को हिंदू पूजा करने जाते हैं और शुक्रवार को मुस्लिम नमाज अदा करते हैं, लेकिन पिछले दिनों भोजशाला में नमाज रोकने के साथ सरस्वती प्रतिमा की स्थापना का वाद दायर किया गया है।
तय है, मामला सिर्फ धार्मिक स्थलों का नहीं है। हमें आपसी खाइयों को पाटना होगा। सदियों से शहंशाहों और राजनेताओं ने बडे़ शातिर तरीके से ये खाइयां खोदी हैं। देश के समझदार लोग और खुद को जिम्मेदार बताने वाले राजनेता क्यों न इस संबंध में कोई पहल करें?

ऐसा नहीं है कि जाती दुनिया अनुसरण के लिए कोई नेक उदाहरण नहीं छोड़ गई है। इतिहास की कंदराओं में बहुत दूर भटके बिना द्वितीय विश्व युद्ध का एक उदाहरण देता हूं। उन दिनों जापान के पर्ल हार्बर नरमेध का जवाब अमेरिका ने हिरोशिमा और नागासाकी पर परमाणु बम गिराकर दिया था। नतीजतन, दो लाख से अधिक लोग मारे गए और जापान तबाही के कगार पर पहुंच गया, मगर दोनों देशों ने लंबे समय तक नफरत नहीं पाली। अमेरिका ने जापान को आर्थिक और सामाजिक तौर पर खड़ा होने में मदद की। यही वजह है कि कुछ साल पहले तक यह देश संयुक्त राज्य अमेरिका के बाद दूसरी सबसे बड़ी आर्थिक महाशक्ति हुआ करता था।
हमें महापंडित राहुल सांकृत्यायन की नसीहत भूलनी नहीं चाहिए। उन्होंने कहा था- ‘जो लोग इतिहास को नहीं समझते, वे खुद इतिहास बन जाते हैं।’ अब यह हमें तय करना है कि 21वीं सदी का भारत इतिहास रचना चाहता है या इतिहास में समा जाना चाहता है? 

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