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दसों दिशाओं से आते दशानन

नफरत के तिजारतियों से मुहब्बत और भाईचारे में यकीन रखने वाले कई गुना अधिक हैं। वे अपने बच्चों के लिए सृजनकारी समाज रचना चाहते हैं। मर्यादा पुरुषोत्तम की घर वापसी के त्योहार पर सामाजिक मर्यादा...

दसों दिशाओं से आते दशानन
Amitesh Pandeyशशि शेखरSat, 21 Oct 2023 08:24 PM
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वे उन विनाशक टिड्डी दलों की भांति लौट आए हैं, जिन्हें दूसरों की उगाई फसल चट करने के लिए खास मौसम का इंतजार रहता है। युद्ध, चुनाव, दंगे और विभीषिकाओं से उन्हें रक्तबीज की तरह और पनपने की शक्ति मिलती है। अपनी गुमनाम खोहों में छिपे हुए वे घात लगाकर ऐसे हालात बनने का इंतजार करते हैं और हल्का सा धुआं उठते ही सक्रिय हो जाते हैं। उन्हें तब तक चैन नहीं पड़ता, जब तक छोटी-सी चिनगारी भी दावानल न बन जाए। 
मैं सोशल मीडिया के पर्दानशीं ‘सुपारी किलर्स’ की बात कर रहा हूं। 
वे कितने घातक हैं, इसका अंदाज सिर्फ एक घटना से लग सकता है। बीती 14 अक्तूबर को शिकागो में छह साल का फलस्तीनी-अमेरिकी बच्चा क्षत-विक्षत पाया गया। उस पर मकान मालिक जोसेफ कबुजा ने 26 बार चाकू से हमला किया था। अपने बेटे को बचाने के चक्कर में मां को भी घातक प्रहार झेलने पडे़। मां का दावा है कि कबुजा ने हमला करते वक्त जो शब्द कहे, वे सांप्रदायिक और नस्लीय घृणा से सराबोर थे। पुलिस ने कबुजा पर कत्ल, हत्या के प्रयास और घृणा-अपराध का मुकदमा दायर किया है। 
इस हत्याकांड ने अमेरिकियों को दहला दिया है। 
उनका भय जायज है। वहां जिस तेजी से घृणा-अपराध पनप रहे हैं, उसने इस महादेश की लोकतांत्रिक बुनियाद हिला दी है। इस आंकडे़ पर गौर फरमाइए। अकेले साल 2021 में घृणा-अपराधों की वारदातों में 11.6 फीसदी की बढ़ोतरी दर्ज की गई है। समाजशा्त्रिरयों का अनुमान है कि आने वाले वर्षों में इन अपराधों में और अधिक बढ़ोतरी दर्ज होगी। 
इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि कुछ आशंकित, आतंकित अथवा बिके हुए लोग गैरों के ऊपर आए संकट को समुदाय विशेष पर मंडरा रहे खतरे के रूप में पेश करने लगते हैं। अपने मायावी तर्कों से वे जिस तरह मुल्क-दर-मुल्क प्रमाद फैलाने में कामयाब हो रहे हैं, उससे बहुसंख्यकवाद के पांव पसारने की आशंकाएं बढ़ गई हैं। उनके कुतर्कों का दुष्प्रभाव धरती के हर कोने में पनपती नफरती हिंसा में बढ़ोतरी से महसूस किया जा सकता है। 
फिलवक्त गाजा पट्टी का हृदय विदारक रक्तपात उन्हें बल प्रदान कर रहा है। 
एक और उदाहरण देता हूं। पिछले हफ्ते फ्रांस में एक चेचन शरणार्थी ने स्कूली शिक्षक की हत्या कर दी। अधिकारियों का मानना है कि यह घटना गाजा की हलचल से प्रभावित है। आंकड़ों से मन मुताबिक खिलवाड़ करने वाले ‘ट्रोलर्स’ को इसने नई जमीन मुहैया करवा दी है। प्यू रिसर्च के मुताबिक, जिस रफ्तार से पश्चिम एशिया से यूरोप की ओर पलायन हो रहा है, उससे अगले 25-30 सालों में फ्रांस में मौजूदा मुस्लिम आबादी में दो गुना इजाफा हो सकता है। सोशल मीडिया के कीमियागर इसे यह कहकर प्रचारित कर रहे हैं कि जो काम मध्य-युग में बर्बर अरब लड़ाके न कर सके, उसे ये शरणार्थी करने में कामयाब हो रहे हैं। समूचा यूरोप इस तरह के बयानों से बेचैन है। 
यह बेचैनी नव-नाजीवाद को जन्म दे रही है। 
हिटलर के वक्त सिर्फ यहूदी इस दुष्प्रवृत्ति के शिकार बने, पर अब इसकी जद में सभी धर्म, वर्ण, रंग, नस्ल और क्षेत्र आ गए हैं। यूरोप में यहूदियों के खिलाफ बढ़ती हिंसा और कनाडा सहित कुछ पश्चिमी देशों में हिंदू मंदिरों पर हुए हमले इसकी मिसाल हैं। मुस्लिम अल्पसंख्यकों के प्रति उफनता आक्रोश तो अमेरिका में कई सिखों को चोट पहुंचा चुका है। घृणा से बजबजाते लोग उन्हें अरब मान बैठते हैं। 
ऐसा नहीं है कि यह सिर्फ ‘उदारवादी’ पश्चिम में हो रहा है। 
साम्यवादी चीन तक इसकी चपेट में है। पिछले हफ्ते बीजिंग में एक इजरायली राजनयिक पर धार्मिक नारा लगाते हुए युवक ने चाकू से हमला कर दिया। हमले के कारणों का आधिकारिक खुलासा नहीं किया गया है, पर अधिकतम लोग इसे इजरायल और हमास की जंग से जोड़कर देख रहे हैं। चीन के कुछ प्रांतों में धार्मिक आधार पर पहले से सरकारी भेदभाव होता आया है। इसने अल्पसंख्यकों में असंतोष और अलगाव के भाव पैदा कर दिए हैं। 
अब अपने देश पर आते हैं। 
भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता में घृणा-अपराध को परिभाषित नहीं किया गया है, लिहाजा ‘नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो’ इस श्रेणी के तहत आंकड़े इकट्ठे नहीं करता, पर इसका यह मतलब कतई नहीं है कि हमारे यहां घृणा-अपराध नहीं होते। तथाकथित गौ तस्करों पर हमले, आपसी वाद-विवाद पर हो जाने वाली मामूली वारदातें, उदयपुर अथवा अन्य स्थानों पर निरपराध लोगों की हत्या और झारखंड में जादू-टोने के नाम पर हुई जानलेवा घटनाएं इसकी गवाह हैं। खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सार्वजनिक तौर पर इनकी लानत-मलामत कर चुके हैं। इसके बावजूद सोशल मीडिया के अदृश्य आक्रामक परदेसी भूमि से ‘काम’ पर जुटे हैं। पांच राज्यों में होने वाले विधानसभा और फिर कुछ महीने में आने वाले आम चुनाव ने इन्हें नया मौका मुहैया करा दिया है। 
आप स्वयं महसूस कर रहे होंगे कि पिछले कुछ हफ्तों से नफरत फैलाने वाले बोल-वचनों की बाढ़ आ गई है। ये लोग किसी राजनीतिक खानदान, शासन-प्रशासन से जुड़ी शख्सियत और नामी लोगों के बहाने अपनी बात प्रभावशाली तरीके से कहते हैं। इन्हें ऐतिहासिक घटनाओं को तोड़-मरोड़कर पेश करने में महारत हासिल है। सच को झूठ और निरे झूठ को खरे सत्य के तौर पर परोसने के इस करतब ने नई पीढ़ी को असलियत से दूर करना शुरू कर दिया है। 
सवाल उठता है, इनसे निजात कैसे मिले? 
जवाब के लिए बहुत सिर खपाने की जरूरत नहीं है। चुनाव और युद्ध ने अगर उन्हें अपने खंजर पैने करने के अवसर दे दिए हैं, तो हमें भी हमारी संस्कृति ने एक नेमत दी है। मंगलवार को विजय-दशमी है। उस शाम शहर-दर-शहर, मोहल्ले-दर-मोहल्ले पाप के प्रतीक रावण के पुतले फूंके जाएंगे। एक बार खुद के अंदर झांकिए और साहस संजोकर सोशल मीडिया पर इनका जवाब देना शुरू कर दीजिए। यकीन मानें। नफरत के तिजारतियों से मुहब्बत और भाईचारे में यकीन रखने वाले कई गुना अधिक हैं। वे अपने बच्चों के लिए सृजनकारी समाज रचना चाहते हैं। मर्यादा पुरुषोत्तम की घर वापसी के त्योहार पर सामाजिक मर्यादा की रक्षा के लिए उन्हें चुप्पी तोड़नी चाहिए। आप इस मौके को दस्तूर में बदल सकते हैं। 
पुरखों-पुरोहितों के मुंह से राम-राज्य की चर्चा सुनते-सुनते आपके मन में कई बार सवाल उठा होगा- कैसा था राम राज्य? महर्षि वाल्मीकि के मुंह से सुनिए-
निर्दस्युरभवल्लोको नानर्थ: कन् चिदस्पृशत्।
न च स्म वृद्धा बालानां प्रेतकार्याणि कुर्वते।। 
‘अर्थात् रामराज्य में कहीं चोरों और लुटेरों के नाम भी नहीं सुने जाते थे। कोई मनुष्य अनर्थकारी कार्यों में हाथ नहीं डालता था और न ही बूढ़ों को बालकों के अंत्येष्टि-संस्कार करने पड़ते थे।’
बालकों के अंत्येष्टि-संस्कार! उम्मीद है, आप समझ गए होंगे।  

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