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खुले राजपथ पर हम

‘स्वराज्य’, ‘सुराज’, ‘राम-राज्य’, ‘आजादी’, ‘स्वावलंबन’, ‘आत्म-निर्भरता’- ये कुछ ऐसे शब्द हैं, जो एक शताब्दी से अधिक लंबे अंतराल...

खुले राजपथ पर हम
शशि शेखरSat, 16 May 2020 09:03 PM
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‘स्वराज्य’, ‘सुराज’, ‘राम-राज्य’, ‘आजादी’, ‘स्वावलंबन’, ‘आत्म-निर्भरता’- ये कुछ ऐसे शब्द हैं, जो एक शताब्दी से अधिक लंबे अंतराल से हमारी चेतना को जाने-अनजाने प्रभावित करते आए हैं। लोगों को जागृत करने के लिए बोले गए ये शब्द कभी नारे बने, तो कभी विवाद। इसी ऊहापोह में हमारे पुरखों ने अंग्रेजों के खिलाफ आजादी की लड़ाई लड़ी और स्वाधीनता हासिल की, मगर न इन शब्दों ने पीछा छोड़ा, और न इनसे जुडे़ विवादों ने। आप शायद समझ गए हों, मैं प्रधानमंत्री के पिछले संबोधन पर बात करना चाहता हूं। उन्होंने राष्ट्र के नाम अपने पिछले संदेश में संकल्प जताया है कि भारत कोरोना की आपदा से उबरकर आत्म-निर्भर बनेगा।

सवाल उठता है कि यह आत्म-निर्भरता है क्या और इसे कैसे अर्जित किया जा सकता है? इन सवालों पर चर्चा करने से पहले यह जानना भी जरूरी है कि ‘स्वराज्य’ और ‘स्वाधीनता’जैसे नारे क्या वाकई अपने उद्देश्य को हासिल कर सके? नक्सलबाड़ी के विद्रोहियों से लेकर शाहीनबाग में आजादी के नारे लगाने वालों तक, ऐसे लोगों की लंबी शृंखला है, जो कहते हैं कि हमारी आजादी अधूरी है। ऐसा कहते समय वे भूल गए कि भारतीय लोकतंत्र ने ही उन्हें यह अधिकार बख्शा कि वे ऐसी वाणी को मुखरित कर सकते हैं। मैं यहां ब्रिटेन के कालजयी नेता विंस्टन चर्चिल का हाउस ऑफ कॉमन्स में दिया गया बयान याद दिलाना चाहूंगा। उन्होंने कहा था- ‘मुझे खुद कभी यह विश्वास नहीं हुआ कि ब्रिटिश राज के जाने के बाद हिन्दुस्तान एक रह सकेगा... भला कोई कैसे यकीन कर सकता है कि हिंदुओं और मुसलमानों के बीच हजार साल से जो खाई बनी हुई है, वह 14 महीनों में पाट दी जाएगी?’

इस भाषण और भारतीय लोकतंत्र के गुजरे 73 वर्षों पर नजर डाल देखिए, उत्तर आपको खुद ही मिल जाएगा। हमने एक मुकम्मल यात्रा तय की है। कुछ लोग इसे शानदार, और कुछ इसे अधूरा बताते हैं, पर यह अपना-अपना नजरिया है। यही वजह है कि मैं आत्म-निर्भरता के सपने को भी अलभ्य नहीं मानता हूं। कई देशों ने महान बनने के लिए लंबी यात्राएं तय की हैं। हममें भी अपने सफर को मुकाम तक पहुंचाने का साहस है, इसे हम 15 अगस्त, 1947 से लेकर आज तक कई बार प्रमाणित कर चुके हैं। 

मैं यहां अमेरिका का उदाहरण देना चाहूंगा। आजकल 1930 की महामंदी बहुत चर्चा में है। 1929 के आखिरी महीनों में अमेरिका में यह आफत उपजी थी। इस दैरान उसके औद्योगिक उत्पादन में 47 फीसदी और जीडीपी में 30 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गई थी। ऑटोमोबाइल, कृषि-उत्पाद, पेट्रोलियम और कोयला क्षेत्रों में मांग तली पर पहुंच गई थी। नतीजतन, हर रोज लोग नौकरी से निकाले जा रहे थे और बेरोजगारी दर 20 प्रतिशत के खतरनाक आंकडे़ पर जा पहुंची थी। फ्रांस, जर्मनी, इटली, कनाडा, बेल्जियम, पोलैंड, नीदरलैंड जैसे औद्योगिक देशों के उत्पादन में भी एक-तिहाई से अधिक की गिरावट दर्ज की गई थी। संकट के इन्हीं अंधियारे वर्षों में फ्रेंकलिन डी रूजवेल्ट अमेरिका के राष्ट्रपति बने थे। नेता जन्म से महान नहीं होते, बल्कि विपरीत परिस्थितियों में उनके द्वारा लिए गए फैसले उन्हें महान बनाते हैं। 

रूजवेल्ट ने औद्योगिक और कृषि उत्पादन में स्थायित्व लाने के लिए कडे़ फैसले किए। ‘टेनेसी वेली अथॉरिटी’ के जरिए उन्होंने सर्वाधिक मंदी प्रभावित इलाकों में बाढ़ नियंत्रण, जहाजरानी और पनबिजली परियोजनाएं आरंभ कराईं। किसानों के जीवन को सुधारने के लिए कदम उठाए गए। 1935 में सोशल सिक्योरिटी ऐक्ट के जरिए पेंशन की गारंटी दी। बेरोजगार अभिभावकों के बच्चों के पोषण का जिम्मा संघ सरकार ने खुद लिया। धनाढ्य लोगों पर टैक्स बढ़ाए गए। अकेले पब्लिक वर्क एडमिनिस्ट्रेशन पहल के तहत 30 लाख लोगों को फौरी तौर पर आर्थिक मदद हासिल हुई। आप एक बार गौर से चारों ओर नजर घुमा देखिए। भारत में भी आपको इनसे मिलते-जुलते बहुत से काम दिख जाएंगे। मनरेगा, तमाम उद्योगों को सरकारी इमदाद, सामूहिक राशन और भोजन वितरण, रुकी पड़ी इंफ्रास्ट्रक्चर परियोजनाओं को पुनर्जीवन आदि और क्या हैं? बहुत कुछ किया जा रहा है, बहुत कुछ किया जाना बाकी है, पर पहले अमेरिका की बात खत्म कर लेते हैं।

रूजवेल्ट की कोशिशें सुर्खरू साबित हुईं और सतह पर जा पड़ा अमेरिका ऊपर उठने लगा। यहीं से नए किस्म के उपभोक्तावाद ने भी आकार ग्रहण करना शुरू किया। ये कदम अमेरिका को आने वाले समय में सर्वकालिक महाशक्ति बनाने वाले साबित हुए। यहां यह भी ध्यान रखने योग्य है कि इसी बीच दूसरा महायुद्ध छिड़ गया था और अमेरिका ने उसमें भी अग्रणी भूमिका अदा की थी। आप चाहें, तो कह सकते हैं कि रूजवेल्ट ने अंदर और बाहर, दोनों मोर्चों पर महासंग्राम लडे़ और जीते।

अब भारत पर आते हैं। हम भला क्यों नहीं आर्थिक महाशक्ति बन सकते? हमारे पास संसार के सर्वाधिक स्नातक हैं। भारत आज भी ब्रेन-ड्रेन का सबसे बड़ा जरिया है। ये वे नौजवान हैं, जो अपनी मेधा और मेहनत के जरिए धनी देशों को और समृद्ध बनाते आए हैं। अब, जब कोरोना से उपजी विश्व-व्यापी अभूतपूर्व मंदी के काले बादल छाने लगे हैं, तो इनमें से बहुतों को भिन्न-भिन्न वजहों से देश लौटना पड़ सकता है। यह जरूरी है कि हम अपनी इस युवा शक्ति का सही उपयोग करें। बाहर की रोशनी लेकर आए मोहनदास करमचंद गांधी, जवाहरलाल नेहरू, सुभाष चंद्र बोस आदि ने भारत को आजादी दिलाने में अहम भूमिका अदा की थी। ये नौजवान उसे मुकम्मल कर सकते हैं।

इसके साथ ही भारत को अपनी उपज और उत्पादों के सही इस्तेमाल का तरीका भी सीखना होगा। मसलन, आज भी हमारा देश कपास उत्पादन के मामले में शीर्ष पर है। संसार का 23 फीसदी कपास हम उपजाते हैं, जिससे दुनिया की नामी-गिरामी कंपनियां कपडे़ बनाकर अरबों रुपये का मुनाफा कमाती हैं। भारत का एक भी वस्त्र-ब्रांड इस प्रतिस्पद्र्धा में नहीं है। उल्टे, कपास पैदा करने वाले किसानों की हालत बेहद खराब है। उन्हें आत्महत्या पर मजबूर होना पड़ता है। कपड़ा एक ऐसी चीज है, जिसकी इंसान कभी उपेक्षा नहीं कर सकता, पर हथकरघा उद्योग में बांग्लादेश जैसे देश हमें पीटने लगे हैं। इसके अलावा, स्वास्थ्य, पर्यटन, डिजिटल टेक्नोलॉजी आदि ऐसे तमाम क्षेत्र हैं, जहां हम  दुनिया के सामने मिसाल कायम कर सकते हैं, मगर उदारीकरण के पिछले 30 वर्षों में हमने जहां बहुत कुछ हासिल किया, वहीं काफी कुछ गंवा भी दिया। यह समय उस गंवाए हुए को फिर से संजोने का है। कोरोना की आपदा से लड़खड़ाती धरती की वर्तमान पीढ़ी उस राजपथ पर जा खड़ी हुई है, जहां सबके लिए समान आफत और अवसर हैं। यह आपके ऊपर है कि आप किसे चुनते हैं।

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