सुरसा के मुंह सी नफरत
समदर्शी और समावेशी समझा जाने वाला हिन्दुस्तान नफरती बोलों से एक बार फिर बजबजा रहा है। आपसी बातचीत की मर्यादा तो कब की खत्म हो चुकी थी, अब हमारे सियासतदां और उनके पक्षधर बुद्धिजीवी अतीत की अंधेरी...
‘मैं मौजूदा डेमोक्रेटिक पार्टी में अब और नहीं रह सकती। यह पूरी तरह से ऐसे पूर्वाग्रह ग्रसित अभिजात समूह के नियंत्रण में है, जो अनावश्यक तौर पर युद्ध की हिमायत करता है। यह समूह हरेक मुद्दे पर हमें नस्लीय रूप से बांटता है, श्वेत-विरोधी नस्लवाद को बढ़ावा देता है और हमारे संविधान में अंतर्निहित हमारी नैसर्गिक आजादी को कमतर करता है।’
यह वीडियो-बयान खुद को अमेरिका की ‘अकेली हिंदू महिला सांसद’ बताने वाली तुलसी गाबार्ड का है। यह वही तुलसी हैं, जिन्हें 2020 में बतौर राष्ट्रपति उम्मीदवार पेश किया जा रहा था। बाद में उन्होंने मौजूदा राष्ट्रपति जो बाइडन के पक्ष में अपने कदम पीछे हटा लिए थे। वह खुद को भारतीयता का दूत बताती हैं और गीता में सघन आस्था का दावा करती हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की 2014 की अमेरिका-यात्रा के दौरान तुलसी ने उन्हें भग्वद्गीता की एक प्रति भी भेंट की थी। रूस-यूक्रेन युद्ध के बारे में उनके नजरिये पर उन्हें ‘क्रेमलिन का पिट्ठू’ करार दिया जा रहा था। आप चाहें, तो उनके फैसले को ‘अंतरात्मा की आवाज’ की उपज मान सकते हैं। इस धरती के राजनीतिज्ञों में यह अजीब समानता हमेशा पाई जाती है कि उनकी ‘अंतरात्मा की आवाज’ अवसरों के अनुरूप बदलती रहती है।
मायावती को याद कीजिए। उनकी पार्टी कभी नारे लगाती थी- तिलक, तराजू और तलवार...। इससे जब सत्ता नहीं मिली, तो उन्होंने नारा ही बदलकर कहना शुरू किया- हाथी नहीं गणेश है, ब्रह्मा-विष्णु-महेश है। इसके जरिये उन्होंने पूर्ण बहुमत हासिल किया। हालांकि, वह इस पर भी कायम नहीं रहीं। यह पुरानी बात हो गई, आज के हालात पर लौटते हैं। समदर्शी और समावेशी समझा जाने वाला हिन्दुस्तान नफरती बोलों से एक बार फिर बजबजा रहा है। आपसी बातचीत की मर्यादा तो कब की खत्म हो चुकी थी, अब हमारे सियासतदां और उनके पक्षधर बुद्धिजीवी अतीत की अंधेरी तहों से आधा-अधूरा सच खुरचने पर आमादा हैं। धर्म, विज्ञान, समाज और रोजमर्रा के रीति-रिवाज इनके कुतर्कों का निवाला बन गए हैं। हालात इस कदर खराब हो गए हैं कि गुजरी 21 सितंबर को सुप्रीम कोर्ट में न्यायमूर्ति केएम जोसेफ और ऋषिकेश राय की पीठ ने हर शाम होने वाली टीवी बहसों को ‘हेट स्पीच’ फैलाने का सबसे बड़ा जरिया बताते हुए इन्हें ‘रेगुलेट’ करने के लिए दिशा-निर्देश तय करने की बात कही थी। मौजूदा प्रधान न्यायाधीश यूयू ललित ने भी पिछले हफ्ते नफरती बोलों पर अंकुश लगाने की सलाह दी, पर सुने कौन!
घृणा, सत्ता हासिल करने का सबसे बड़ा हथियार बन गई है।
जो लोग आम आदमी के विकास की बात करते हुए सत्ता-सदनों की सीढ़ियां चढ़ते हैं, वे खुद कभी वर्जित माने जाने वाले विषयों पर संसद से सड़क तक फुफकारते नजर आते हैं। यह मंजर पिछले दिनों अपनी पूरी भयावहता के साथ विश्व हिंदू परिषद की दिल्ली में आयोजित एक सभा में पुन: उभरकर सामने आया। राजधानी में मनीष नाम के युवक की हत्या के बाद विश्व हिंदू परिषद ने एक सभा बुलाई थी। इस सभा में दो धर्माचार्यों ने बहुसंख्यकों का आह्वान किया कि वे अल्पसंख्यकों के एक वर्ग के खिलाफ हिंसा के लिए तैयार और तत्पर रहें। वहां भारतीय जनता पार्टी के एक सांसद भी मौजूद थे। उन्होंने सरेआम उस वर्ग के संपूर्ण बहिष्कार का आह्वान किया। संविधान की शपथ लेकर देश की सबसे बड़ी पंचायत में दाखिल होने वाला शख्स भला ऐसा कैसे कह सकता है?
अक्सर यह प्रवाद फैलाने की कोशिश की जाती है कि यह काम राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी के लोग सबसे ज्यादा करते हैं। यह गलत है। भरोसा न हो, तो पिछली 5 अक्तूबर को दिल्ली के आंबेडकर भवन में आयोजित धर्मांतरण कार्यक्रम में राजेंद्र पाल गौतम का बयान देख-सुन लीजिए। उन्होंने उपस्थित समूह के साथ हिंदू देवी-देवताओं की पूजा न करने और राम-कृष्ण को ईश्वर का अवतार न मानने की शपथ ली। उस दिन तक राजेंद्र पाल गौतम दिल्ली सरकार में समाज कल्याण मंत्री का ओहदा संभाल रहे थे। बात बिगड़ती देख उन्होंने इस्तीफा दे दिया। बताने की जरूरत नहीं कि मंत्री की कुरसी पर विराजने से पहले भी ईश्वर या संविधान की शपथ लेनी होती है। क्या यही है हमारे राजनेताओं की सत्य निष्ठा? इन दोनों मामलों को तूल पकड़ता देख दिल्ली पुलिस ने विभिन्न धाराओं में मुकदमे दर्ज कर कार्रवाई शुरू कर दी है। यह कार्रवाई किस मुकाम तक पहुंचेगी, यह देखना दिलचस्प होगा। आम आदमी पार्टी की गुजरात इकाई के अध्यक्ष गोपाल इटालिया को राष्ट्रीय महिला आयोग ने तलब किया है। वह एक वीडियो में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए अपमानजनक शब्द इस्तेमाल कर रहे थे। महिला आयोग इसे महिलाओं का भी अपमान मानता है। आप के कार्यकर्ता इस नोटिस के विरोध में प्रदर्शन कर रहे हैं।
क्या सियासी नफरत और मजहबी धर्मांधता सिर्फ बहुसंख्यकों की बपौती है? यकीनन, नहीं।
जोधपुर में ईद मिलादुन्नबी के मौके पर विशाल जन-समूह में शामिल लोगों ने ‘सिर तन से जुदा’ करने के धमकी भरे नारों का उद्घोष किया। पुलिस ने इस सिलसिले में अब तक पंद्रह लोगों को गिरफ्तार किया है। नूपुर शर्मा प्रकरण के बाद से यह नारा अल्पसंख्यकों के दिलो-दिमाग में ठूंसने की नापाक कोशिशों का नतीजा उदयपुर और अमरावती जैसे लोमहर्षक कांड हैं। दर्जनों लोगों को इस अंजाम तक पहुंचाने की धमकी देने का सिलसिला जारी है। क्या अगस्त 1947 जैसी जज्बाती हिंसा हमारी नियति है? इसे रोकना होगा, पर यह रुके कैसे? अदालतें पुलिस की पुख्ता जांच पर निर्भर करती हैं, मगर जांच प्रक्रिया का हाल क्या है?
इस तरह के मामलों में पुलिस अक्सर अपराधी को उसके किए की सजा नहीं दिलवा पाती। ‘नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो’ (एनसीआरबी) के आंकड़ों के मुताबिक, साल 2016 में समूचे देश से घृणा-अपराध के 973 मुकदमे दर्ज किए गए थे। अगले चार सालों में इनकी संख्या सुरसा के मुंह की तरह बढ़ी। वर्ष 2020 में 3,026 मामले दर्ज किए गए, पर क्या उसी अनुपात में अपराधियों को सजा भी मिली? यकीनन नहीं। अभिलेख गवाह हैं कि इनमें से कुल 20 प्रतिशत मामलों में ही लोगों को सजा पाने के लिए दोषी साबित किया जा सका। क्या इसकी सबसे बड़ी वजह यह नहीं कि घृणा अपराध के जिम्मेदार आमतौर पर सत्ता और शक्तिशाली समूहों से जुडे़ होते हैं?
यहां एक और तथ्य पर गौर करना होगा। घृणा के सौदागर समाज या सियासत में ही नहीं, बल्कि मनोरंजन की तटस्थ दुनिया में भी दखल देने की अवांछित कोशिश कर रहे हैं। आमिर खान की फिल्म लाल सिंह चड्ढा का चौंकाने वाला विरोध किया गया। इसी तरह, रणवीर कपूर और उनकी गर्भवती पत्नी आलिया भट्ट कपूर को उज्जैन में महाकाल के दर्शन नहीं करने दिए गए, पर इससे नुकसान क्या हुआ? रणवीर की फिल्म सुपर हिट साबित हुई और आमिर खान भी घाटे में नहीं रहे। मतलब साफ है, घृणा अभी भी भारतीय मानस की मुख्य संचालक नहीं बनी है। मुझे यकीन है, आगे भी ऐसा नहीं होगा, पर इससे इकबारगी जूझना जरूरी है।
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