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अहम सियासी जंग के पांच मोर्चे

क्या दिल्ली की सीमाओं पर पौने तीन महीने से डटे किसानों के संघर्ष से सियासी समीकरण भी प्रभावित हो सकते हैं? जवाब के लिए देश के पांच प्रदेशों में होने वाले चुनावों के नतीजों का इंतजार करना होगा। वैसे...

अहम सियासी जंग के पांच मोर्चे
शशि शेखरSat, 13 Feb 2021 08:41 PM
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क्या दिल्ली की सीमाओं पर पौने तीन महीने से डटे किसानों के संघर्ष से सियासी समीकरण भी प्रभावित हो सकते हैं? जवाब के लिए देश के पांच प्रदेशों में होने वाले चुनावों के नतीजों का इंतजार करना होगा। वैसे भी, कई अन्य कारणों से इन चुनावों का खासा महत्व है। असम से बात शुरू करते हैं। मोदी सरकार ने अपना दूसरा कार्यकाल शुरू होते ही राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी) और नागरिकता (संशोधन) कानून (सीएए) का प्रावधान किया था। समूचा देश इससे आंदोलित हो उठा था। आरोप था कि यह अल्पसंख्यकों के खिलाफ एक सुनियोजित साजिश है। शाहीन बाग का आंदोलन इसी की उपज था। इस दौरान देश के अन्य भागों में हुई हिंसा में 65 से अधिक लोग मारे गए थे। असम में बांग्लादेश के लोगों की लगातार आमद से उपजा असंतोष इन कानूनों के स्वागत की उम्मीद जताता था, पर कुछ दिनों में साफ हो गया कि इन कानूनों से सिर्फ बांग्लादेशी घुसपैठिए नहीं, बल्कि असम के मूल निवासी भी प्रभावित होंगे। आनन-फानन में इस संवेदनशील सूबे में दशकों की धूल में दबे दर्द भरे मुद्दे फिर से उभर उठे थे। कोरोना ने सिर्फ शाहीन बाग के आंदोलनकारियों को नहीं, बल्कि सरकार को भी इन प्रस्तावों को ठंडे बस्ते में डालने का अवसर प्रदान कर दिया था। अब, जब चुनाव हर मतदाता का दरवाजा खटखटा रहे हैं, तब इन प्रावधानों को लेकर भी सुगबुगाहटें शुरू हो गई हैं। क्या प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस को इसका कोई लाभ मिलेगा?
कांग्रेस के नेतृत्व वाला गठबंधन यहां सन 2016 तक हुकूमत में था। देश के अन्य सूबों की तरह यहां भी भारत की सबसे पुरानी पार्टी अंदरूनी कलह की शिकार है। उसका मुकाबला एकजुट भाजपा से है, जो अपने बहुसंख्यक राष्ट्रवाद के एजेंडे के साथ मोर्चे पर डटी है। इसकी कमान जेपी नड्डा और अमित शाह ने संभाल रखी है। खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी यहां चुनावी रैलियां संबोधित कर चुके हैं। इसके उलट देश की सबसे पुरानी पार्टी अभी अंगड़ाई ही ले रही है। साफ है, कांगे्रस के लिए रास्ता आसान नहीं है। अब आते हैं पश्चिम बंगाल पर। इस प्रदेश के चुनाव पर सारी दुनिया की नजरें टिकी हैं। ममता बनर्जी जुझारू नेता हैं। वह अपनी एक दशक पुरानी हुकूमत बचाने के लिए जी-जान से मैदान में कूद पड़ी हैं। भाजपा जानती थी कि ऐसा होगा, इसीलिए उसने पांच वर्ष पहले ही अपने दबंग नेता कैलाश विजयवर्गीय को बंगाल में तैनात कर दिया था। वह मुख्यमंत्री के करीबी रहे तमाम नेताओं को भगवा ध्वज के नीचे लाने में कामयाब रहे हैं। अमित शाह की अगुवाई में अब तक जितने  चुनाव लडे़ गए, हरेक में स्थानीय पार्टियों में जमकर तोड़-फोड़ हुई। इस आक्रामक रणनीति के कारण भाजपा अभी से तृणमूल कांगे्रस की प्रमुखतम प्रतिद्वंद्वी के तौर पर खुद को स्थापित करने में कामयाब रही है। कांगे्रस और वाम दल अपनी पुरानी पैठ के बावजूद आम चर्चा से अनुपस्थित हैं। यह भाजपा की प्रारंभिक बढ़त जरूर है, पर सिर्फ इतने से चुनाव नहीं जीते जा सकते। हर प्रदेश की भांति बंग-भूमि की भी अपनी खासियतें हैं। यह बड़े जिलों का प्रदेश है। बंगाल के कुल 23 जिलों में से नौ में प्रदेश के लगभग 62 प्रतिशत मतदाता रहते हैं। कुल 294 में से 185 विधानसभा सीटें इन्हीं नौ जिलों में हैं। इनके झुकाव के साथ ही चुनाव परिणाम की दशा-दिशा तय होती है। तृणमूल कांग्रेस का दावा है कि इन जिलों में भाजपा की स्थिति बहुत अच्छी नहीं है। इसके साथ ही पश्चिम बंगाल देश का ऐसा बड़ा राज्य है, जहां लगभग 30 फीसदी मतदाता मुस्लिम हैं। वामपंथियों से किनारा करने के बाद ये लोग अब तक ममता बनर्जी के साथ खडे़ रहे हैं, पर इधर कुछ स्थानीय मुस्लिम पार्टियों की आमद की खबरें नई हरारत पैदा कर रही हैं। इसी तरह, असदुद्दीन ओवैसी भी बिहार के नतीजों के बाद नई उम्मीदों से लबरेज हैं। क्या यहां भी मुस्लिम मत विभाजित होंगे? पूर्वी भारत से अब दक्षिण की ओर रुख करते हैं। केरल में पिछले 40 वर्षों में वामपंथ के नेतृत्व वाला एलडीएफ और कांग्रेस की अगुवाई वाला यूडीएफ बारी-बारी से सत्ता में आते रहे हैं। राहुल गांधी भी इसी प्रदेश की वायनाड सीट का लोकसभा में प्रतिनिधित्व करते हैं। कांगे्रस को यहां उम्मीद जरूर है, पर वाम गठबंधन का कामकाज पिछले पांच वर्षों में कई मायनों में बहुत अच्छा रहा है। फिर देश की सबसे पुरानी पार्टी पर यह तोहमत भी है कि देश के अन्य हिस्सों में वह कम्युनिस्ट विचारधारा वाले दलों के साथ मिलकर चुनाव लड़ती है, जबकि यहां दोनों आमने-सामने हैं। क्या इसका चुनावों पर कोई असर पडे़गा? वैसे, इस तरह का घालमेल भारतीय राजनीति के लिए नया नहीं है और कांग्रेस के पास उम्मीद बनाए रखने के बहुत से कारण भी हैं। यहां तमिलनाडु और पुडुचेरी की चर्चा जरूरी है। तमिल प्रदेश में ऐसा पहली बार होने जा रहा है, जब यहां जयललिता और करुणानिधि जैसे दिग्गज चुनावी परिदृश्य में सशरीर उपस्थित नहीं हैं। डीएमके में तो करुणानिधि ने स्टालिन को अपने जीते जी ही उत्तराधिकारी के रूप में आगे बढ़ाना शुरू कर दिया था, पर जयललिता के दल एआईएडीएमके में ऐसा कुछ नहीं हुआ। यह पार्टी सत्ता में जरूर है, पर अंदरूनी खींचतान से भितरघात को बल मिलता है। यही नहीं, जयललिता की सहचरी शशिकला का बेंगलुरु जेल से रिहाई के बाद जिस तरह से स्वागत हुआ, वह चौंकाने वाला है। ‘चिनम्मा’ ने सक्रिय राजनीति में आने की घोषणा भी कर दी है, पर इस उथल-पुथल के माहौल में वह कितनी कारगर साबित हो पाएंगी? यही प्रश्न कमल हासन की पार्टी पर भी लागू होता है। इन प्रदेशों का लोकसभा चुनाव के हिसाब से खासा महत्व है। कुल जमा 116 सांसद यहां से चुनकर आते हैं। आप कहेंगे कि दिल्ली के सत्ता-सदन का चुनाव तो बहुत दूर है, पर ध्यान रखिए, हर गुजरता चुनाव अगले मतदान के लिए नई भूमिका तैयार करता चलता है। यही वजह है कि यह सवाल भी फिजा में तैर रहा है कि क्या कांग्रेस केरल और असम या इनमें से किसी एक में सत्ता की वापसी के साथ राष्ट्रीय परिदृश्य पर भी अपनी लड़खड़ाती स्थिति संभाल पाएगी? वैसे भी, केरल, पश्चिम बंगाल और असम ऐसे प्रदेश हैं, जहां मुस्लिम मतदाता 28 से 32 फीसदी के बीच हैं। यह जहां भाजपा को ध्रुवीकरण का अवसर देता है, वहीं कांग्रेस को भी अपने पुराने मतदाता समूहों को एकजुट करने का मौका मुहैया कराता है। यह देखना दिलचस्प होगा कि कौन सी पार्टी इसका कितना लाभ उठाती है। उनकी लाभ-हानि से देश की दशा-दिशा भी तय होनी है।

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