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मोदी मैजिक और आप का उभार

पांच राज्यों में हुए विधानसभा चुनाव का कोलाहल अभी शांत नहीं हुआ, पर दूसरी बड़ी लड़ाई की धूल उड़नी शुरू हो गई है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी शुक्रवार की सुबह अहमदाबाद में ‘रोड शो’ के साथ...

मोदी मैजिक और आप का उभार
शशि शेखरSat, 12 Mar 2022 08:28 PM
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पांच राज्यों में हुए विधानसभा चुनाव का कोलाहल अभी शांत नहीं हुआ, पर दूसरी बड़ी लड़ाई की धूल उड़नी शुरू हो गई है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी शुक्रवार की सुबह अहमदाबाद में ‘रोड शो’ के साथ गुजरात की चुनावी दशा-दिशा तय करते दिखे। सिर्फ एक दिन पहले उन्होंने भाजपा कार्यकर्ताओं के साथ पार्टी मुख्यालय में ‘विजय दिवस’ मनाया था। पंजाब में झाड़ूमार जीत से उत्साहित केजरीवाल भी जल्द वहां पहुंचने वाले हैं। तय है, अब अहमदाबाद सियासी सरगर्मी की धुरी बनने जा रहा है। गुजरात और हिमाचल में साल के अंत में चुनाव होने हैं।

कल किसका होगा, पता नहीं, पर आज इतना निश्चित है कि शुरुआती झटकों के बावजूद ‘मोदी मैजिक’ कायम है। याद करें, उनके दूसरे सत्तारोहण के बाद महाराष्ट्र, झारखंड और हरियाणा में चुनाव हुए। तीनों के परिणाम नकारात्मक रहे थे। महाराष्ट्र में शिव सेना भाजपा के साथ मिलकर लड़ी, पर मौका देख उसने परंपरागत विपक्षियों से हाथ मिलाकर सरकार बना ली। झारखंड में न केवल पार्टी पराजित हुई, बल्कि खुद मुख्यमंत्री रघुवर दास चुनाव हार गए। हरियाणा का जनादेश अपंग था। वहां किसी तरह दुष्यंत चौटाला की अगुवाई वाली जजपा से हाथ मिलाना पड़ा। ऐसे दलों के साथ सरकार बनाना अक्सर घाटे का सौदा होता है, पर करते क्या?
बाद में बिहार और बंगाल के चुनावों के दौरान भी ऐसा लगा कि केंद्र के लिए तो लोग नरेंद्र मोदी को पसंद करते हैं, पर राज्यों की हुकूमत के मामले में यह रसायन कारगर साबित नहीं होता। कोई आश्चर्य नहीं कि इससे प्रेरित होकर अखिलेश यादव ने पुराने विरोधियों को गलबहियां डाल लीं। कांग्रेस ने भी पंजाब में चरणजीत सिंह चन्नी को मुख्यमंत्री बनाकर सोच लिया कि 30 फीसदी से अधिक दलित मत उसकी झोली में खुद-ब-खुद आ जाएंगे। उत्तराखंड और गोवा पर तो वह अपना जन्मसिद्ध अधिकार मानकर चल रही थी। मणिपुर में भी देश की सबसे पुरानी पार्टी को अच्छे अवसर दिख रहे थे।
हुआ इसका उल्टा!
योगी बाबा उत्तर प्रदेश में दो-तिहाई बहुमत से दोबारा सत्ता हासिल करने का कीर्तिमान बनाने में कामयाब हो गए। यही नहीं, भाजपा ने गोवा, मणिपुर और उत्तराखंड में दोबारा सरकार बनाने में सफलता हासिल की। यह ‘गुड गवर्नेंस’, मोदी के चेहरे और जबरदस्त सांगठनिक क्षमता का कमाल था। इसने पुराने झटकों के घाव भर दिए। साथ ही, यह भी साबित कर दिया कि भगवा दल अपनी भूलों से सीखने की प्रशंसनीय क्षमता रखता है। हर हार के साथ जीत के सबक होते हैं। जानने के लिए उत्तर प्रदेश की ओर दोबारा रुख करते हैं।
अखिलेश यादव करारी हार के बावजूद अपनी सीटें और मत-प्रतिशत बढ़ाने में सफल रहे हैं। उनकी अगुवाई वाले गठबंधन ने भाजपा को ऐसे जख्म दिए, जो देर तक रिसते रहेंगे। सिराथू से उप-मुख्यमंत्री सहित अनेक मंत्रियों की हार ऐसे ही घावों में से एक है। यह देखना दिलचस्प होगा कि अखिलेश मुख्य विपक्षी गठबंधन के नेता का दायित्व निभा पाते हैं या नहीं? उनका पहला इम्तिहान इस गठबंधन को बनाए रखना होगा।
इस गठबंधन में पिछड़ों के लगभग सभी समुदायों के वरिष्ठ नेता शामिल हैं। यदि वे गठबंधन को कायम रख सके, तो कोई दो राय नहीं कि भारतीय जनता पार्टी को 62 लोकसभा सांसदों के जखीरे को बचाने में तमाम दिक्कतें आएंगी, लेकिन इसके लिए अखिलेश यादव को सदन से लेकर सड़क तक लंबा संघर्ष करना होगा। उन्हें अपने जातिगत समीकरणों के संजाल को विस्तार देना होगा। इसके साथ विरोध के असरकारी मुद्दे खोजने होंगे। इन चुनावों का संदेश स्पष्ट है कि मोदी और योगी ने जातियों के मायाजाल को ‘बुल्डोज’ कर दिया है। बिना संघर्ष और सार्थक मुद्दों के इस जोड़ी से जूझना असंभव है।
क्या अखिलेश यादव ऐसी जंग के लिए तैयार हैं?
जातीय समीकरणों की बात आने पर मायावती का जिक्र न आए, यह संभव नहीं। वह जातीय जोड़-तोड़ की मलिका रही हैं, पर पहली बार उनके ‘वोट बैंक’ में लगभग 10 फीसदी की सांघातिक सेंध लगी है। परिणाम घोषित होने के अगले दिन पत्रकारों से बात करते हुए उन्होंने अफसोस जताया कि वह ‘बीजेपी की बी-टीम’ वाले दुष्प्रचार का शिकार हो गईं। पर सच यह है कि अब जाटवों को भी लगने लगा है कि वह टिकट तो अमीरों को देती हैं, और वोट हमसे मांगती हैं। मायावती इस वक्त अपने सबसे बुरे दौर से गुजर रही हैं। मोदी की जन-कल्याणकारी नीतियों और योगी के जबर्दस्त प्रशासन ने उनके तिलिस्म को तोड़ दिया है। उनकी वापसी फिलहाल मुश्किल लगती है, लेकिन वह अतीत में कई बार चौंका चुकी हैं।
यहां आम आदमी पार्टी के अभ्युदय की चर्चा जरूरी है। सिर्फ दस साल पहले जब अरविंद केजरीवाल ने नए दल की घोषणा की थी, तब लोग हंसे थे, पर चंद महीनों में वह दिल्ली के मुख्यमंत्री बन गए थे। उन्होंने अस्पताल बेहतर किए। मोहल्ला क्लीनिक खोले। स्कूलों को स्तरीय बनाया और बिजली-पानी के बिलों पर लगाम लगाई। पुरानी कहावत है कि विशाल बरगद के तले कोई पौधा नहीं फलता, अरविंद ने केंद्र सरकार के साये में बैठकर तीन चुनाव, एक के बाद एक जीते। मोदी की तरह ही वह किसी जाति विशेष के नेता नहीं हैं।
आम आदमी पार्टी अब राष्ट्रीय महत्वाकांक्षाएं पालने की हकदार हो गई है। पंजाब दो महीने में उसे राज्यसभा की पांच और सीटें प्रदान करने जा रहा है। नतीजतन, राज्यसभा में ‘आप’ के आठ सदस्य हो जाएंगे। अरविंद अब संसद से लेकर आम आदमी के घरों तक अपनी आवाज बुलंद करने में सक्षम हो गए हैं। यह तय है कि कांग्रेस में क्षरण ऐसे ही जारी रहा, तो उत्तर और पश्चिम के तमाम राज्यों में चुनाव-दर-चुनाव मुकाबला आम आदमी पार्टी और भाजपा के बीच सिमट सकता है। गुजरात और हिमाचल के चुनाव में इसकी झलक दिख जाएगी। 
ध्यान दें। आम आदमी पार्टी सिर्फ कांग्रेस का ‘स्पेस’ नहीं ले रही, बल्कि वह कुछ क्षेत्रीय दलों के लिए भी चुनौती बन गई है। इन पार्टियों के दलपतियों के कारनामे ऐसे हैं कि वे केंद्र सरकार से सीधी टक्कर लेने में हिचकिचाते हैं। अरविंद के हाथ उनकी तरह बंधे हुए नहीं हैं। हालांकि, शुरुआती तौर पर इसका लाभ भाजपा को होगा, पर अब यह साबित हो चुका है कि अरविंद केजरीवाल लंबी दौड़ के धावक हैं।
क्या अगले पांच साल में हम नरेंद्र मोदी बनाम अरविंद केजरीवाल की लड़ाई देखने जा रहे हैं?
इस सवाल के जवाब के शुरुआती संकेतों के लिए साल के अंत तक इंतजार करना बेहतर रहेगा। गुजरात और हिमाचल में कांग्रेस मुख्य विपक्ष की भूमिका निभाती है। हिमाचल में पिछले उप-चुनावों के दौरान उसने न केवल मंडी की लोकसभा सीट भाजपा से छीन ली, बल्कि तीन विधानसभा सीटों पर भी कब्जा जमा लिया। गुजरात में भाजपा को जन-असंतोष के चलते मुख्यमंत्री सहित तमाम मंत्री बदलने पड़ गए थे। यही वजह है कि इन दोनों राज्यों में भगवा दल ने अभी से दम लगाना शुरू कर दिया है। इन हालात में अगर कांग्रेस ने ये दोनों राज्य भाजपा से वापस ले लिए, तो उसके विरुद्ध जारी प्रचार मंद पड़ जाएगा। यदि वहां भी पंजाब व उत्तराखंड जैसा हाल हुआ तो?
इस सवाल का जवाब आप जानते हैं। 

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