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नए ठौर तलाशती निर्धनता

बिहार, झारखंड और पूर्वी उत्तर प्रदेश से औद्योगिक महानगरों की ओर जाने वाली ट्रेनें यात्रियों से उफनी पड़ रही हैं। लंबी प्रतीक्षा सूचियां, काम पर लौटने को आतुर लोगों को मुंह चिढ़ा रही हैं। मतलब साफ...

नए ठौर तलाशती निर्धनता
शशि शेखरSat, 12 Jun 2021 09:13 PM
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बिहार, झारखंड और पूर्वी उत्तर प्रदेश से औद्योगिक महानगरों की ओर जाने वाली ट्रेनें यात्रियों से उफनी पड़ रही हैं। लंबी प्रतीक्षा सूचियां, काम पर लौटने को आतुर लोगों को मुंह चिढ़ा रही हैं। मतलब साफ  है, अनलॉक की वजह से प्रवासी वापस हो चले हैं। प्रवासी! वे कहां प्रवासी थे- महानगरों की झुग्गियों और बेतरतीब चॉलों में या फिर उन गांव-कस्बों में, जिन्हें वे ‘घर’ कहते आए हैं?

कोरोना के कहर ने न केवल उनके सपनों को बेपरदा कर दिया है, बल्कि ‘ग्राम-स्वराज’ की उस अवधारणा को भी दफ्न कर दिया है, जो इंसानों को अपने ही मुल्क में जलावतन होने से रोक सकती है। इसके साथ ही आर्थिक असमानता को कम करने का सियासी वितंडा भी खोखला साबित हो गया है। इस देश में जहां 63 परिवारों के पास देश के कुल वार्षिक बजट से ज्यादा संपत्ति हो और जहां सिर्फ नौ लोगों की कुल संपदा देश की 50 फीसदी आबादी के बराबर हो, वहां यह ख्वाब जमीन पर उतरना कितना जरूरी था, कहने या बताने की जरूरत नहीं। आप चाहें, तो अफसोस के साथ अपने राजनीतिज्ञों के उन दावों को याद कर सकते हैं, जो कुछ महीने पहले तक देश को यकीन दिला रहे थे कि अधिकतर लोगों को अब गांव से वापस लौटने की जरूरत महसूस नहीं होगी, हम उनकी रोजी-रोटी की व्यवस्था वहीं करेंगे। यह सच है कि केंद्र और राज्य सरकारों ने लगभग 80 करोड़ लोगों तक मुफ्त राशन और थोड़ी-बहुत रकम पहुंचाई, पर इंसान को भोजन के साथ काम भी चाहिए। बेतरतीबी से ठुंसी हुई ट्रेनें और महानगरों की ओर लौटने को लालायित हजारों लोग इसके गवाह हैं। सवाल उठता है, क्या काम पर वापस पहुंच जाने भर से उनकी समस्याएं समाप्त हो जाएंगी? कतई नहीं। महामारी ने लोगों की जेबें खाली कर दी हैं। बाजार खुल गए हैं, पर वहां सन्नाटा पसरा पड़ा है। कारखानों का उत्पादन बाधित है। इसका असर रोजगार और वेतन के भुगतान पर पड़ना स्वाभाविक है। यह ठीक है कि अर्थव्यवस्था में तेजी आने की भविष्यवाणियां की जा रही हैं, पर कोविड-पूर्व के हालात लौटने में कम से कम तीन साल लग जाएंगे। सब जानते हैं कि वे भी कोई भले दिन नहीं थे। हमारी माली हालत पिछली कई तिमाहियों से लगातार पतली होती जा रही थी। नए रोजगार सृजित नहीं हो पा रहे थे और बाजार में मांग आशा के अनुरूप उठान नहीं ले रही थी। नतीजतन, कुछ दिलजले मंदी के आने की आशंकाएं व्यक्त कर रहे थे। हिन्दुस्तानी महिलाओं की हालत तो और भी पतली थी। 

ऑक्सफेम के पिछले साल प्रकाशित हुए शोध के मुताबिक, एक महाकाय कंपनी का सीईओ 10 मिनट में जितना कमाता है, वह घरों में काम करने वाली एक महिला की सालाना आमदनी के बराबर होता है। ये आंकडे़ दहशत पैदा करते हैं, पर दिल थामकर बैठिए। विश्व बैंक की पिछले हफ्ते जारी रिपोर्ट कहती है कि कोरोना की वजह से यह आर्थिक खाई और चौड़ी होगी। इसी संगठन का एक शोधपत्र खुलासा करता है कि इस साल की शुरुआत तक महामारी के कारण लगभग 12.5 करोड़ नए लोग गरीबी रेखा के नीचे चले गए। यह संख्या 1.9 डॉलर से कम में रोजाना गुजर-बसर करने वालों की है। भारत में तो 32 रुपये से अधिक रोजाना खर्च करने वालों को गरीबी रेखा के नीचे नहीं गिनते। अमेरिका में रोजाना 14 डॉलर से कम खर्च करने वाले निर्धन माने जाते हैं। अजीम पे्रमजी यूनिवर्सिटी के अध्ययन के अनुसार, 23 करोड़ भारतीय अब तक इस शर्मसार कर देने वाली रेखा से नीचे जा चुके हैं। दुर्भाग्यवश चालू वित्तीय-वर्ष में यह कहर थमता नहीं दिख रहा। यहां ध्यान रखने की जरूरत है कि 1990 से कोरोना का कहर बरपा होने तक भारत ने लगभग 30 करोड़ लोगों को आर्थिक दुर्बलता की परिधि से बाहर लाने में सफलता अर्जित की थी। महामारी ने तीन दशक की इस शानदार मेहनत पर पानी फेर दिया है। इस बला से पार पाने में कितना वक्त लगेगा, कोई समूची दृढ़ता से बताने की स्थिति में नहीं है। ऐसा कहने की सबसे बड़ी वजह यह है कि इस जानलेवा छूत से बचने का अब तक एक ही उपाय सामने आया है- टीका, और भारत में 80 फीसदी लोगों तक इसकी पहुंच दिसंबर से पहले संभव नहीं होने वाली। तय है। चीन और अमेरिका जैसे देश इससे जल्द उबर जाएंगे, पर एशिया, अफ्रीका और पूर्वी यूरोप के दर्जनों दुर्बल देशों को इसका दंश लंबे समय तक भुगतना होगा। यह समय हमें ठहरकर सोचने पर मजबूर करता है, क्योंकि तमाम आर्थिक सिद्धांत थोथे साबित हो चुके हैं। पिछले सौ वर्षों में अगर हमने दो वैश्विक महामारियां देखी हैं, तो साथ ही राजतंत्र का पतन, लोकतंत्र का उदय और इसके साथ ही पूंजीवाद बनाम समाजवाद की बहसें भी देखी हैं। कभी साम्यवाद का गढ़ कहलाने वाले मॉस्को में अब चोटी के 100 में से सात धन्नासेठ रहते हैं। सोवियत संघ के पतन के बाद जिस पूंजीवाद की शान में कसीदे पढ़े गए थे, उस व्यवस्था ने हमें गए तीन दशकों में क्या दिया? इस सवाल का जवाब आपको ऊपर की पंक्तियों में मिल चुका है। कोरोना ने ग्लोबल विलेज, वसुधैव कुटुंबकम्, उत्तर-पंथी और दक्षिण-पंथी जैसे नारों का खोखलापन भी जगजाहिर कर दिया है। स्पष्ट है, महामारी के बाद की दुनिया को अपना रंग-रोगन बदलना ही होगा। हर महामारी और महायुद्ध के बाद ऐसा ही होता आया है। पहले विश्व युद्ध ने राजतंत्रों की विदाई का रास्ता साफ किया  था। दूसरे महायुद्ध ने साम्यवाद बनाम पूंजीवाद का शीतयुद्ध खड़ा किया था। 1980 के दशक के अंत में बर्लिन की दीवार ढहने के साथ साम्यवादी व्यवस्था के पतन की राह प्रशस्त हुई थी। कोरोना क्या पूंजीवाद के मौजूदा चेहरे-मोहरे में बदलाव की आधारशिला रख रहा है?

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