अब मतदाता भी अपने अंदर झांकें
उत्तर प्रदेश का चुनाव दूसरे चरण तक आ पहुंचा है। इस बार नौ जिलों में 55 सीटों पर मतदान होना है। यदि पहले चरण के 11 जिले मिला दें, तो उत्तर प्रदेश के कुल 75 में से 20 यानी 25 फीसदी से अधिक जनपदों में...
उत्तर प्रदेश का चुनाव दूसरे चरण तक आ पहुंचा है। इस बार नौ जिलों में 55 सीटों पर मतदान होना है। यदि पहले चरण के 11 जिले मिला दें, तो उत्तर प्रदेश के कुल 75 में से 20 यानी 25 फीसदी से अधिक जनपदों में 14 फरवरी तक मतदान हो चुका होगा। 24 करोड़ की आबादी वाले इस विशाल सूबे ने इस दौरान अपने नेताओं के मन की बात ही सुनी है या मतदाता अपना दुख-दर्द भी उन तक पहुंचा सके हैं?
चुनावों के प्रति उम्मीद अथवा नाउम्मीदी का एक पैमाना मत-प्रतिशत भी होता है। तर्कशास्त्री कह सकते हैं कि पहले चरण की 60 फीसदी से ज्यादा वोटिंग लोगों के उत्साह की मुनादी कर रही है। मतदाताओं ने 2017 के मुकाबले भले ही कुछ कम वोट डाले हों, पर यह नाकाफी है? ऐसे महानुभावों को मैं विनम्रतापूर्वक याद दिलाना चाहूंगा कि चुनाव में वोट डालना और चुने हुए से संतुष्ट होना, दो अलग बातें हैं। गौर से देखने पर आप पाएंगे कि इस चुनाव में तथ्यों से ज्यादा जातीय-धार्मिक आंकडे़बाजी और भय के भूत की मुनादी की गई। यह फॉर्मूला असरदार भी है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के एक गांव में मेरा अनुभव चौंकाने वाला था। वहां नौजवानों से बात करने पर ऐसा लगा कि वे रोजगार न मिलने से असंतुष्ट हैं। उन्हें अपने खेतों में आवारा पशुओं के आतंक के साथ तमाम अन्य शिकायतें थीं। उनको देर तक सुनने और गुनने के बाद अंत में मैंने पूछा कि आप वोट किसे देंगे? जवाब मिला, ‘जो हमें सुरक्षा दिला सके’। इस ‘सुरक्षा’ शब्द की अलग-अलग व्याख्याएं हैं। पश्चिमी उत्तर प्रदेश की डेढ़ हजार किलोमीटर से अधिक लंबी सड़क यात्रा में मैंने हर जगह कानून-व्यवस्था के मुद्दे को विमर्श की सतह से उभरता पाया। योगी आदित्यनाथ के विरोधी भी इस दिशा में उनके द्वारा किए गए प्रयासों की निंदा नहीं कर पाते। यही वजह है कि अखिलेश यादव बार-बार कह रहे हैं कि मौका मिलने पर वह निष्पक्ष न्याय की व्यवस्था लागू करेंगे। उन्होंने अपने आसपास से उन परिजनों अथवा पार्टी जनों को दूर कर दिया है, जिन पर कभी विवादों का जरा-सा भी साया पड़ा था।
इस चुनावी सफर के दौरान मैं हर बीस से पच्चीस किलोमीटर के अंतराल पर सड़क किनारे बने ढाबों में रुक जाता था। वहां मौजूद लोगों से बातचीत के दौरान मैंने हर बार पाया कि एक ही मुद्दे को अलग-अलग जाति और धर्म के लोग परस्पर विरोधी नजरिये से देखते हैं। मन में बार-बार यह सवाल उठता रहा कि हम सत्य और तथ्य को उसके वास्तविक स्वरूप में पहचानने की काबिलियत कब हासिल कर सकेंगे? आजादी का ‘अमृत-महोत्सव’ मना रहा यह देश चाहे तो अपने अंदर खदबदा रहे इस हलाहल पर भी नजर डाल सकता है।
रोजगार की तरह लोग महंगाई की शिकायत तो करते हैं, पर वोट सिर्फ ‘अपने’ प्रत्याशी को देना चाहते हैं। इस प्रत्याशी का रिकॉर्ड कैसा भी हो, इससे उन्हें मतलब नहीं। अगर आपको भरोसा न हो, तो सामाजिक समूहों पर आधारित सपा और बसपा को पिछले चुनावों के दौरान मिले मत-प्रतिशत पर नजर डाल देखें। बुरे से बुरे दौर में भी वे अपने बेस वोट बैंक से नीचे नहीं गए। कभी कांग्रेस इस समीकरण को साधने में अभ्यस्त थी, पर 1980 के दशक से उसकी जो फिसलन शुरू हुई, वह आज तक जारी है। मोदी और शाह की जोड़ी ने 2014 के चुनाव में उतरने से पहले ही इसकी बारीकियों को पढ़ लिया था। यही वजह है कि वे सटीक रणनीति बनाने में सफल रहे। 2014, 2017 और 2019 के चुनाव इसके गवाह हैं। अब इस सामाजिक इंद्रधनुष के कुछ रंग छिटकते दिख रहे हैं, पर भाजपा को अपने कल्याणकारी कार्यक्रमों से बेहद उम्मीद है। इस पार्टी के रणनीतिकारों का मानना है कि नि:शुल्क अनाज के साथ समाज की निचली सीढ़ियों पर बैठे लोगों को हर तरह की इमदाद मुहैया कराई गई है। इसने एक ऐसा समूह तैयार कर दिया है, जिसके लिए जातीय गौरव के मुकाबले कल्याणकारी योजनाएं अधिक महत्व रखती हैं। इस दावे का असली दम तो 10 मार्च को दिखेगा, पर यह बहुजन समाज पार्टी के लिए जरूर खतरे की घंटी है, क्योंकि इन योजनाओं का सर्वाधिक लाभ उसके ‘कोर वोट बैंक’ ने उठाया है।
जाति और धर्म की निराशाओं के बीच गांवों की धूल भरी गलियों में मुझे कुछ उम्मीद की किरणें भी दिखाई पड़ीं। इस दौरान बहुत सी नवयुवतियों और महिलाओं से बात करने का मौका मिला। महिलाएं जब बोलती हैं, दिल खोलकर बोलती हैं। वे अपने परिवार और पास-पड़ोस के लिए सिर्फ शांतिमय समृद्धि चाहती हैं। बिहार में 59 फीसदी से ज्यादा महिलाओं ने इसीलिए नरेंद्र मोदी और नीतीश कुमार के गठबंधन को वोट दिया था। बंगाल में ममता बनर्जी की महिलाओं पर समान पकड़ थी। वह इसीलिए तीसरी दफा जीत सकीं। क्या उत्तर प्रदेश की महिलाएं भी ऐसा कोई कीर्तिमान रच पाएंगी? अगर ऐसा होता है, तो राजनीतिक दलों को एक और ‘जाति’ पर ध्यान केंद्रित करना होगा, जो शाश्वत है, और वह है ‘नारी जाति’।
प्रियंका गांधी की अगुवाई वाली प्रदेश कांग्रेस ने इसीलिए नारा दिया है- लड़की हूं, लड़ सकती हूं। उन्होंने अपने वायदे के मुताबिक 40 फीसदी टिकट भी महिलाओं को दिए, पर इससे तत्काल क्रांतिकारी परिणामों की उम्मीद करना ज्यादती होगी। चुनाव जीतने के लिए नारों, दावों और वायदों के साथ संसाधन युक्त संगठन की जरूरत होती है। फिलहाल उनके पास इसकी कमी है। अगर प्रियंका इस मुद्दे पर डटी रहीं और उन्होंने संवादों का सिलसिला कायम रखा, तो शायद 2024 के आम चुनाव में उनकी उम्मीदें कुछ सीमा तक पूरी हो सकें।
यह चुनाव एक और प्रश्न का उत्तर देने जा रहा है। क्या चुनाव से ऐन पहले किए गए गठबंधन वाकई कारगर होते हैं? समाजवादी पार्टी ने कांग्रेस और बसपा के साथ हुए समझौतों से सबक लेते हुए इस बार रालोद, सुभासपा, अपना दल (कमेरावादी), महान दल आदि के साथ समझौता किया है। उन्होंने चतुराई से पश्चिमी उत्तर प्रदेश में रालोद के चुनाव-चिह्न पर अपने प्रत्याशी भी उतारे हैं। ऐसा शायद इसलिए किया गया है कि चुनाव के बाद यदि उनके समीकरण सधते दिखाई पड़ें, तो शक्तिशाली दिल्ली दरबार उसे भेदने में कामयाब न हो। वह भाजपा की कल्याणकारी योजनाओं की शक्ति भी जानते हैं, इसीलिए उन्होंने जवाब में समाजवादी पेंशन योजना, मुफ्त बिजली, रोजी-रोजगार और किसानी संबंधी तमाम घोषणाएं की हैं। यह देखना दिलचस्प होगा कि बहुमत किसके पक्ष में जाता है।
कल दूसरे चरण का मतदान है। मतदान केंद्रों की ओर रुख करते समय मतदाता क्या उन मुद्दों पर भी विचार करेंगे, जिन्हें वे खुद बिसरा देने के आदी हो चुके हैं? लोकतंत्र का यह उत्सव लोक को भी अपने अंदर झांकने का अवसर प्रदान करता है। इसे गंवा बैठना समझदारी नहीं होगी।
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