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भारत-पाक एका का सपना

यकीनन असंभव कुछ भी नहीं, पर इस राह में कई अड़चनें हैं। पूर्वी और पश्चिमी जर्मनी के बीच विचार की दीवार थी, धर्म की नहीं। हमारे बीच विचार की नहीं, धर्म की दीवार खड़ी की गई है। यही वह मुकाम है, जहां...

भारत-पाक एका का सपना
Amitesh Pandeyशशि शेखरSat, 08 Apr 2023 08:47 PM
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‘मेरे भाइयों और परिवार के दूसरे सदस्यों का ख्याल है कि पाकिस्तान में उनका कोई मुस्तकबिल नहीं है। मेरे दादा हुजूर और उनका कुनबा प्रयागराज व दिल्ली से बेहतर भविष्य की तलाश में पाकिस्तान आए थे। 
वाट लगा दी दादाजी!’     
पाकिस्तानी मूल की चर्चित पत्रकार आरजू काजमी का यह ट्वीट एक बड़ी कहानी बयान करता है। इस पछतावे को देखकर मन में सवाल उठना लाजिमी है कि क्या कालचक्र अपनी दर्दनाक परिधि की कूद-फांद पूरी कर उस मुकाम पर वापस जा पहुंचा है, जहां से उसने यात्रा शुरू की थी? इस सवाल का जवाब देने से पहले हमें एक बार उन हालात पर नजर डाल लेनी चाहिए, जिन्होंने दो सहोदरों, हिन्दुस्तान और पाकिस्तान, को दो विपरीत मुकाम पर ला खड़ा किया है। हिन्दुस्तान जहां अपने पूर्व शासक इंग्लैंड से आर्थिक विकास के मामले में एक पायदान ऊपर निकल चुका है, वहीं पाकिस्तान की लुढ़कन जारी है। 
पाकिस्तान का जन्म ही विपरीत संयोगों के चलते हुआ था। भारत विभाजन और मुहम्मद अली जिन्ना पर गंभीर किताबें लिखने वाले पाकिस्तानी मूल के स्वीडिश इतिहासकार इश्तियाक अहमद ने इस मुद्दे पर तफसील से लिखा है। 
इश्तियाक अहमद लिखते हैं कि दूसरी बड़ी लड़ाई से बहुत पहले बरतानिया की हुकूमत को लगने लगा था, बोल्शेविक क्रांति सिर्फ सोवियत संघ तक सीमित नहीं रहने वाली, ये अपने पर फैलाएगी। यही वजह है कि 1930 के दशक में ही रावलपिंडी स्थित उत्तरी कमान मुख्यालय को सोवियत सीमाओं की हलचल पर नजर रखने को कहा गया था। इसके कुछ साल बाद द्वितीय विश्वयुद्ध छिड़ गया और दुनिया दो भागों में बंट गई। कूटनीति का संयोग देखिए कि उस वक्त जर्मन राष्ट्रवाद से लड़ने के लिए सोवियत और पश्चिमी देशों की सेनाएं एक ही उद्देश्य से अलग-अलग मोर्चों पर लड़ रही थीं। हालांकि, दोनों पक्ष जानते थे कि महायुद्ध के खात्मे के बाद हमें अपनी वैचारिक जंग से फिर जूझना पडे़गा। 
द्वितीय विश्वयुद्ध खत्म होने के तत्काल बाद पराजित जर्मनी की राजधानी बर्लिन इसका जीता-जागता उदाहरण थी। वहां के एक हिस्से पर सोवियत, तो दूसरे पर पश्चिमी देशों की सेनाओं का कब्जा था। दोनों की हुकूमत के तौर-तरीके और व्यवहार अलग थे। तत्कालीन वृत्तांत गवाह हैं कि उस समय भी एक-दूसरे की जासूसी की जा रही थी। कहते हैं, तत्कालीन ब्रिटिश प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल ने उसी समय अमेरिकी राष्ट्रपति फ्रैंकलिन डी रूजवेल्ट से कहा था कि हमें लगे हाथ मॉस्को को भी अपने काबू में कर लेना चाहिए, पर सहयोगी अनमने थे। कुछ हफ्ते पहले तक जो साथ   खून बहा रहे थे, वे भला इतनी जल्दी एक-दूसरे के खून के प्यासे कैसे हो सकते थे? इतिहास इस कार्रवाई को किस नजर से देखेगा? इंग्लैंड के सैन्य प्रतिष्ठान ने उसी समय बेचैनी से करवट बदलनी शुरू कर दी। 
वे गलत नहीं थे। बड़ी लड़ाई खत्म हो चुकी थी, पर अपने पीछे दशकों तक चलने वाला शीतयुद्ध छोड़ गई थी। 1989 में भले ही इस अनोखी लड़ाई का औपचारिक खात्मा माना जाता हो, पर इसकी जड़ें पूरी तरह सूखी नहीं। रूस और यूक्रेन युद्ध इसका प्रमाण है। 
इंग्लिश सेना के कमांडर और विदेश नीति के वास्तुकार इस खतरे के प्रति खासे संवेदनशील थे। इश्तियाक अहमद का दावा है कि भारत विभाजन का खाका खींचने वाले सर रिचर्ड स्टैफोर्ड क्रिप्स की रिपोर्ट तो पेश की जा चुकी थी, पर ब्रिटिश हुक्मरानों का एक तबका मानता था कि भारतीय उपमहाद्वीप को अभी दो-तीन दशक अपने कब्जे में रखना चाहिए। उनका तर्क था कि इससे ब्रिटिश फौजों पर होने वाला खर्च कम हो जाएगा। हम भारत के धन से भारतीय फौजों को पालेंगे और जरूरत पड़ने पर उनका इस्तेमाल करेंगे। प्रथम और द्वितीय विश्व युद्ध में ऐसा ही किया गया था, लेकिन सब कुछ उनके मन-मुताबिक हो नहीं रहा था। 
सिर्फ 25 वर्ष के अंतराल में छिडे़ दो विश्वयुद्धों के कारण लंदन की अर्थव्यवस्था चरमरा चुकी थी। उधर, गुलाम दुनिया में लोकतंत्र का उभार शुरू हो गया था। फ्रेंच, डच और पुर्तगीज भी अपने कब्जे वाले उपनिवेशों में हाथ जला रहे थे। भारत में महात्मा गांधी की अगुवाई में कांग्रेस ने अनूठा आंदोलन छेड़ रखा था। इसके अलावा रह-रहकर सशस्त्र विद्रोह होते थे। फरवरी 1946 में मुंबई के बंदरगाह पर हड़ताल हो गई थी। नौसेना के कब्जे वाली सशक्त गोदी में कामबंदी! लंदन के लिए संकेत साफ थे। 
इसी बीच 12 मई, 1947 को फील्ड मार्शल मोंटगोमरी, सर लेजली हॉलिस जैसे ताकतवर जनरल और राजनयिक प्रधानमंत्री क्लेमेंट एटली से मिले। इनका कहना था कि भारत स्वभाव से समाजवादी प्रवृत्ति का देश है। ऐसे में, अगर हमने धर्म आधारित पाकिस्तान का गठन नहीं किया, तो क्रेमलिन का प्रभाव हिंद महासागर तक पहुंचने की संभावना है। कोई आश्चर्य नहीं कि इसके बाद 3 जून, 1947 को वायसराय लॉर्ड माउंटबेटन ने ऑल इंडिया रेडियो से भारत विभाजन की आधिकारिक घोषणा की। 
यह एक सर्वज्ञात तथ्य है कि पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था 1980 के दशक तक हमसे बेहतर थी, मगर इस तरक्की के सिलसिले को कायम रखना असंभव था। पाकिस्तान अकेला ऐसा देश था, जिसके जन्म का आधार धर्म था। अगर यह मजहबी कट्टरपंथियों के चंगुल में फंसता चला गया, तो आश्चर्य कैसा? तख्त के सिद्धांत के चलते यहां हुक्मरानों की हत्याएं हुईं, बार-बार तख्ता पलट हुआ और इसने इस संशयशील मुल्क को सिद्धांत व व्यवहार के दोराहे पर लाकर खड़ा कर दिया। 
जनरल अयूब खां से लेकर आज तक वहां की फौज गजवा-ए-हिंद के सपने देखती है। तीन सीधी लड़ाइयों में हारने के बाद उसने जिस ‘छाया युद्ध’ का चयन किया, उसकी पे्रत छाया ने खुद उसे ही ग्रस लिया है। आज पाकिस्तान में दो जून की रोटी लाखों लोगों के लिए दु:स्वप्न बन गई है। आरजू काजमी का यह बयान उन करोड़ों लोगों की भावनाओं को अभिव्यक्त करता है, जिनके देखते-देखते ‘कायदे-आजम’ का ख्वाब जमींदोज हो गया। यही वजह है कि सरहद के दोनों तरफ के कुछ लोग फिर से एका के सपने बुनने लगे हैं। 
क्या यह संभव है? 
ऐसे लोग मानते हैं कि जब 45 साल बाद पूर्वी और पश्चिमी जर्मनी फिर से एक हो सकते थे, तो भारत और पाकिस्तान क्यों नहीं? यकीनन असंभव कुछ भी नहीं, पर इस राह में कई अड़चनें हैं। पूर्वी और पश्चिमी जर्मनी के बीच विचार की दीवार थी, धर्म की नहीं, जबकि हमारे बीच कुछ लोगों ने विचारपूर्वक धर्म की दीवार खड़ी की। यही वह मुकाम है, जहां संशय का घना कोहरा हमें घेर लेता है कि क्या खून-खराबे में यकीन करने वाले मजहबी तत्व ऐसा होने देंगे?  

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