सिखों के बिना हिन्दुस्तान कहां!
भारत में लोग उन्हें उनके नाम से नहीं, बल्कि ‘सरदार जी’ के विशेषण से पुकारते हैं। हमारे देश के सिख अपने हमवतनों की इस भावना को समझते हैं और उसका हरसंभव निर्वाह करते हैं। कनाडा के प्रधानमंत्री...

वह वर्ष 2006 का दिसंबर था। हम तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के साथ टोकियो के लिए उड़े थे। अभी दोपहर का भोजन निपटा ही था कि गलियारे में उनके सलाहकार संजय बारू प्रकट हुए और अपने समीप आने का इशारा किया। मैं जब उनके पास पहुंचा, तो उन्होंने लगभग फुसफुसाते हुए कहा, ‘चलिए, पीएम आपका इंतजार कर रहे हैं।’ नई दिल्ली हवाई अड्डे पर उनसे मैंने बिना किसी प्रयोजन के प्रधानमंत्री से मिलने की ख्वाहिश प्रकट की थी।
एअर इंडिया के विशेष विमान में प्रधानमंत्री की हर यात्रा के दौरान एक छोटा-सा सम्मेलन कक्ष बना दिया जाता था। हम जब वहां पहुंचे, तो पांच कुर्सियों वाले उस संकरे से स्थान की दो कुर्सियां पहले से भरी हुई थीं। एक पर मनमोहन सिंह, तो दूसरे पर पंजाब के एक जाने-माने संपादक आसीन थे। वह उनसे पंजाबी और हिंदी में गुफ्तगूरत थे। मैं अपनी बारी की प्रतीक्षा करने लगा। संपादक जी की बात खत्म होने के बाद मनमोहन सिंह मेरी ओर मुखाबित हुए और अपने विशिष्ट अंदाज में मुझसे पूछा, ‘जी बताइए?’ मैं किसी सवाल-जवाब के लिए तैयार न था, पर उन दिनों पंजाब, उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनावों की दुंदुभी बज चुकी थी। अखबारों में खबरें छप रही थीं कि कांग्रेस के लगभग हर नेता के नाम से चुनावी सभाएं लगाई जा रही हैं, पर प्रधानमंत्री का नाम नदारद था।
आदतन मैंने सीधी बात शुरू की। मेरा पहला वाक्य था, ‘आपको पंजाब, उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश के अधिक नहीं, पर सिख बहुल इलाकों में अवश्य जाना चाहिए। उत्तर प्रदेश में लखीमपुर खीरी जिले के पलिया और उत्तराखंड के रुद्रपुर में सिख आबादी बहुतायात में है। वे आपकी बात सुनना चाहेंगे।’ उनकी प्रतिक्रिया देखे-समझे बिना आगे कहा कि आपको अमृतसर में भी कम से कम एक रात गुजारनी चाहिए। आपका उस शहर से जुड़ाव है और फिर हरमंदिर साहिब वहीं हैं। आप देश के पहले सिख प्रधानमंत्री हैं, और आपको वहां जाकर एक बार फिर मत्था टेकना चाहिए। इससे न केवल सिख मानसिकता को संतोष मिलेगा, बल्कि अलगाववाद की बीन बजाने वालों को भी झटका लगेगा। देश के सेक्युलर ढांचे के लिए भी यह बेहतर होगा।
ऐसा लगा, जैसे मनमोहन सिंह के चेहरे के भाव बदल गए हैं। कक्ष में चुप्पी छा गई थी। पंजाब के संपादक साथी ने बीच में कुछ बोलने की कोशिश की, पर मनमोहन सिंह ने बड़ी शालीनता से हल्का-सा हाथ उठाकर उन्हें बरज दिया। वह बिना किसी हरकत के चुप बैठे रहे थे। उस संक्षिप्त चुप्पी ने सभा और समय समाप्त होने का इशारा कर दिया था। मैंने इजाजत मांगी, मनमोहन सिंह जी उठकर खड़े हुए और नजाकत से अपना हाथ आगे बढ़ा दिया। मैं और मेरे सहयोगी बाहर निकल आए। हमारी सीटें अगल-बगल थीं। मेरे उनसे पुराने संबंध थे, लिहाजा बेतकल्लुफी से उनसे पूछा कि मैं ज्यादा तो नहीं बोल गया? अपने खास अंदाज में उन्होंने कहा कि हो सकता है, क्योंकि आपने जो बोला है, उसके तमाम राजनीतिक निहितार्थ निकल सकते हैं। मैं सोचने लगा कि अगर प्रधानमंत्री ने मुझे अपना कीमती समय दिया, तो मुझे ईमानदारी से अपनी बात कहनी चाहिए थी, जो मैंने कही।
वैचारिक आरोह-अवरोह के वे लम्हे लंबे न चले। संजय बारू अपने स्वभाव के अनुरूप मुस्कराते हुए मेरे पास आए और कहा कि आपने तो मेरा काम बढ़ा दिया है। पीएम ने तीनों स्थानों पर दौरे का कार्यक्रम तय करने को कहा है। बाद में, मनमोहन सिंह इन तीनों स्थानों पर गए। स्वर्ण मंदिर की उनकी यात्रा सद्भाव की नई इबारत लिख गई।
मैं यह किस्सा आपको क्यों बता रहा हूं?
वजह साफ है। कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, इंग्लैंड और अन्य पश्चिमी देशों में बैठे कुछ लोग खालिस्तान के बुझे ख्वाब को जिलाने की कोशिश कर रहे हैं। कभी वे राजनयिकों पर हमला करते हैं, कभी कनाडा से हिंदुओं को निकल जाने की धमकी देते हैं, तो कभी अमृतपाल सिंह जैसे उत्तेजना फैलाने वालों को पंजाब की धरती पर ‘प्लांट’ करने की कोशिश करते हैं। उनका आरोप है कि भारत की सरकार सिखों के साथ दोमुंहा रवैया अपना रही है। इस झूठ के जरिये वे सिर्फ लोगों को बरगलाने की कोशिश कर रहे हैं। मनमोहन सिंह की यात्रा तो अतीत बन गई, पर मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के रुख और रवैये को भी जान लीजिए। प्रधानमंत्री पिछले नौ वर्षों में तमाम बार स्वर्ण मंदिर सहित देश के प्रमुख गुरुद्वारों में जाकर मत्था टेक चुके हैं। वह विशेष रूप से सिखों की देशभक्ति, बहादुरी, सेवा और समर्पण को रेखांकित करते आए हैं। यही नहीं, जिन इंदिरा गांधी पर ‘ऑपरेशन ब्लू स्टार’ की तोहमत है, उनके पोते राहुल गांधी इसी महीने की शुरुआत में लगातार दो दिन स्वर्ण मंदिर की चौखट को रगड़ते, लंगर सेवा, बर्तन या जूते साफ करते दिखाई पडे़। हमारे मुल्क में पक्ष-विपक्ष के सनातन मतभेद राष्ट्रीय एकता के मामले में पीछे रह जाते हैं। भारत का कोई भी नागरिक पंजाब, पंजाबियों और सिखों के बिना अपने देश की कल्पना नहीं कर सकता।
मैं यहां मेनका गांधी को उद्धृत करना चाहूंगा। कुछ वर्ष पहले आगरा में वह ‘हिन्दुस्तान’ के एक कार्यक्रम में आई थीं। उस दौरान उनके साथ कुछ समय गुजारने का मौका मिला था। एक ऐसी बात उन्होंने उस अनौपचारिक चर्चा के दौरान कही थी, जो हममें से किसी ने कभी पहले सोची भी नहीं थी। मेनका ने बताया था कि हमारी, यानी पंजाबियों की वेशभूषा और भोजन पूरे देश में सर्वाधिक प्रचलित है। मैंने पूछा, कैसे? वह मुस्कराते हुए बोलीं कि कहीं भी चले जाइए, महिलाएं आपको सलवार-कुरता पहने दिखेंगी। दाल मखनी, पनीर मसाला और तंदूरी के बिना कोई बड़ा होटल या रेस्तरां चल ही नहीं सकता। आप इसे क्या कहेंगे? वह सौ फीसद सही थीं। मेनका गांधी खुद भी सिख हैं।
उस दौरान उन्होंने एक बात नहीं कही थी, पर मैं जोड़ना चाहता हूं। किसी भी बड़े शहर या कस्बे में सिखों के बिना व्यावसायिक दुनिया पूरी होती ही नहीं। आपने सिखों को रिक्शा चलाते भले ही देखा हो, पर भीख मांगते कभी नहीं देखा होगा। वे स्वाभिमानी, संतोषी, वीर और समावेशी हैं। इसीलिए देश के हर हिस्से में वे सहज स्वीकृति और सम्मान पाते हैं। लोग उन्हें उनके नाम से नहीं, बल्कि ‘सरदार जी’ के विशेषण से पुकारते हैं। हमारे देश के सिख अपने हमवतनों की इस भावना को समझते हैं और उसका हरसंभव निर्वाह करते हैं।
कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो हों या आईएसआई के सर्वेसर्वा, इनको ये सीधा सच समझ क्यों नहीं आता?
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