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सर्पिल पगडंडी से परे का कश्मीर

जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 की विदाई की दूसरी वर्षगांठ पर वैसा कुछ नहीं हुआ, जिसकी उम्मीद अलगाववादी कर रहे थे। कुछ विरोध प्रदर्शन जरूर हुए, पर इसमें वही चेहरे दिखाई पडे़, जिनकी उलटबांसियां बासी पड़...

सर्पिल पगडंडी से परे का कश्मीर
शशि शेखरSat, 07 Aug 2021 08:59 PM
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जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 की विदाई की दूसरी वर्षगांठ पर वैसा कुछ नहीं हुआ, जिसकी उम्मीद अलगाववादी कर रहे थे। कुछ विरोध प्रदर्शन जरूर हुए, पर इसमें वही चेहरे दिखाई पडे़, जिनकी उलटबांसियां बासी पड़ गई हैं। इसके बरक्स घाटी के तमाम स्थानों पर तिरंगा रैलियां निकाली गईं, जिनकी पहले कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। इन्हीं जगहों पर कभी पाकिस्तान के झंडे लहराते थे, कौमी तराना गूंजता था।

यह जरूर है कि गई 5 अगस्त को पुराने बाजारों में शटर नहीं उठे। यह बंदी मुखालफत की प्रतीक है या भय अथवा संशय की? इस किस्से को सुनिए, काफी कुछ साफ हो जाएगा। वह शख्स मुझे अचानक मिल गया था। छड़ी के सहारे अपनी सुन्न पड़ी टांगों पर कंपकंपाते हुए, कातर भाव से वह अपने भाई के साथ श्रीनगर के सत्ता-सदन में ठौर तलाश रहा था। क्या हुआ था उसके साथ?
खुद उसके शब्दों में- ‘मैं गांव की दुकान से खरीदारी कर घर लौट रहा था। शाम घिर चुकी थी और धुंधलका छाने लगा था। रास्ते में अचानक दो लोगों ने मुझे घेर लिया। उन्होंने पूछा- तुम्हारा नाम.... है? मैंने कहा- हां। इतना सुनते ही उनमें से एक ने मेरी गरदन के पिछले हिस्से पर डंडे से वार कर दिया। मैं गिर पड़ा। उनका अगला सवाल था- तुमने वोट डाला? मैंने कहा- हां। इस पर उसने पिस्तौल निकाल ली। मैं गिड़गिड़ाने लगा, पर वे पसीजे नहीं। मेरी टांगों में गोलियां मारीं और दोनों गायब हो गए।’
उसकी पलकें भीग गई थीं और आवाज भी डूब चली थी। मैंने उसे ढांढस बंधाया और बातचीत जारी रखी। उसने बताया कि वह कई नेताओं के पास गया, पर किसी ने नहीं सुनी। अधिकारियों के पास गया, तो 75 हजार रुपये की इमदाद मिली। मेरे भाई को पुलिस में भरती करने का वायदा भी किया गया है। इसी सिलसिले में हम यहां आए हैं।
उसके अनुरोध पर मैं उसकी शिनाख्त जगजाहिर नहीं कर रहा, पर उसकी कहानी में मौजूदा कश्मीर के तमाम सवाल और जवाब छिपे हुए हैं। दहशतगर्द उसे हिन्दुस्तानी जम्हूरियत के खिलाफ एक चलता-फिरता इश्तेहार बनाना चाहते थे। वे सिरे से नाकाम हो गए। इस व्यक्ति ने धमकियों से विचलित हुए बिना न केवल वोट डाला, बल्कि आज भी भारतीय संविधान के दायरे में रहते हुए अपने हक-हुकूक की लड़ाई लड़ रहा है। उसकी बातों से साफ जाहिर है कि दशकों से सर्पिल पगडंडियों पर घिसटता कश्मीर बदल रहा है, अब वहां के आम लोगों की दर्दीली दास्तानें अनसुनी नहीं रह जातीं।
उसने विस्तार से यह भी बताया कि किस तरह जम्हूरियत के नाम पर चलने वाली दो खानदानों की हुकूमत में नौकरशाही का रवैया मुख्यमंत्री के निजी लाभ-हानिके गणित के आधार पर तय होता था। बाद में इस संबंध में जम्मू-कश्मीर के उप-राज्यपाल मनोज सिन्हा ने दिलचस्प दास्तान सुनाई कि पहले दो तरह के विधायक होते थे। एक जनता का, दूसरा कलक्टर का। जिला प्रशासन वही करता था, जो दूसरा वाला विधायक चाहता था। नौकरशाही और नेताओं के इस घालमेल ने ही घाटी को इस बदहाली के हवाले किया।
यह आंख खोलने वाली बातचीत जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटने की दूसरी वर्षगांठ से दो सप्ताह पहले हुई। मैंने इसे रिकॉर्ड कर लिया था। मैंने उससे यह भी पूछा था कि तुम पर हमला करने वाले पकडे़ गए या नहीं? उसका जवाब था कि उन्होंने मुंह ढक रखे थे। मैं उन्हें पहचान नहीं पाया, इसलिए निश्चित तौर पर कुछ भी कहने की स्थिति में नहीं हूं। यही वह मुकाम है, जो सुरक्षा एजेंसियों को चिंतित करता है।
इसी यात्रा के दौरान खुफिया विभाग के एक आला अधिकारी से मुलाकात हुई। उन्होंने बताया कि हम पाकिस्तान द्वारा पोषित इन आतंकवादियों को मूलत: तीन श्रेणियों में रखते हैं। पहले वे, जो हाथ में बंदूक लेकर बाकायदा सोशल मीडिया पर घोषणा करते हैं कि हम मुजाहिदीन हैं। दूसरे वे, जो बेरोजगारी अथवा शगल के चलते आंशिक तौर पर आतंकवाद से जुड़ जाते हैं। इन्हीं लोगों से ग्रेनेड अथवा अन्य तरह के छोटे हमले कराए जाते हैं। इनके अलावा एक और श्रेणी है। ये वे लोग हैं, जो सोशल मीडिया का इस्तेमाल करके अवाम को भड़काते हैं। बाद की दो श्रेणियों से जुडे़ लोग ज्यादा खतरनाक हैं। शौकिया दहशतगर्दी का दामन थामने वाले आम जिंदगी जीते हैं। कोई उनकी करतूतें नहीं जानता, इसीलिए छापा पड़ने पर पड़ोसी उनका साथ देते हैं। तीसरी श्रेणी के लोग विचारधारा फैलाने का काम करते हैं। वे खुद को पत्रकार कहते हैं। उनका दोमुंहापन दूर करना मुश्किल है, मगर हम सही रास्ते पर चल रहे हैं।
 पाकिस्तान चाहता है कि घाटी में हमेशा कम से कम 200 हथियारबंद आतंकवादी रहें और आज भी 180 के करीब सक्रिय दहशतगर्दों की पुलिस को तलाश है। इसका यह मतलब कतई नहीं कि दहशतगर्दी जस की तस कायम है। अब इन तथाकथित जेहादियों को नायक बनने का मौका नहीं मिलता। वजह? जम्मू-कश्मीर पुलिस को साधन-संपन्न बनाने की वजह से उसका ग्रामीणों से  संवाद बढ़ा है और ज्यादातर जेहादी नासूर बनने से पहले ही सुरक्षा बलों के हाथ लग जाते हैं।
कश्मीर के पुलिस महानिरीक्षक विजय कुमार के अनुसार, अगस्त 2017 से जुलाई 2019 के बीच पथराव की 1,394 घटनाएं दर्ज की गईं, जो अगले एक वर्ष में 382 पर सिमट गईं। उन दो सालों में हुई मुठभेड़ों में 27 नागरिक और चार सुरक्षाकर्मी मारे गए थे। पिछले एक साल में यह आंकड़ा शून्य पर पहुंच गया है। इसी तरह, आतंकवादी घटनाओं में भी काफी कमी दर्ज की गई है।
क्या इतना काफी है? नहीं, घाटी में दिक्कतें और भी हैं। अलगाववादी भावनाओं को खुराक कश्मीर के प्राथमिक विद्यालयों और मदरसों के ढुलमुल पाठ्यक्रमों से मिलती रही है। इनसे निपटने के लिए इसी अगस्त से नया पाठ्यक्रम लागू किया जा रहा है। इसके साथ ही अलगाववादी भावना अथवा आतंकवादियों के पोषण से जुडे़ शिक्षकों, राज्यकर्मियों और अधिकारियों की सूची भी बनाई गई है। अब तक 100 से अधिक लोगों पर कार्रवाई की जा चुकी है।
इन तमाम कोशिशों के बावजूद घाटी के सभी लोगों का भरोसा जीतने में थोड़ा वक्त लगेगा। इस धरती और इसकी संतानों के दिलो-दिमाग पर कई जख्म हैं, जिन्हें भरने के लिए सरकारी प्रयासों के साथ समय के मरहम की जरूरत है। घाटी में यदा-कदा बंद हो जाने वाले बाजारों और प्रायोजित विरोध प्रदर्शनों का मर्म भी यही है।

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