महासंग्राम रचते मोबाइल फोन
अब निजता भी क्या चौराहे पर चर्चा का मुद्दा बनने जा रही है? तकनीक ने अगर बहुत कुछ सुगम किया है, तो कुछ नए जोखिम भी जन दिए हैं। पिछले कई विवाद तकनीक के दुरुपयोग के गवाह हैं, पर इससे मुक्ति की राह...

विपक्षी नेताओं और कुछ पत्रकारों की तथाकथित जासूसी का जिन्न एक बार फिर बोतल से बाहर आ धमका है। उसने नए आरोप और प्रत्यारोप तो जन दिए हैं, पर हकीकत? आज तक खास लोगों से जुड़ी असलियत अक्सर अर्द्धसत्य की ओट में चेहरा छिपाती आई है।
बताने की जरूरत नहीं कि गई 31 अक्तूबर के शुरुआती लम्हों में कुछ लोगों के मोबाइल फोन पर एप्पल की ओर से संदेश उभरे कि आपका फोन ‘स्टेट स्पॉन्सर्ड हैकर्स’ के निशाने पर है। इनमें महुआ मोइत्रा, शशि थरूर, असदुद्दीन ओवैसी जैसे मुखर सांसदों के नाम शामिल थे। सुबह की उजास में अभी समय था, पर हंगामा होना था, तत्काल हुआ।
अभी तक प्राप्त जानकारी के अनुसार, इनके अलावा अखिलेश यादव, मल्लिकार्जुन खड़गे, केसी वेणुगोपाल, पवन खेड़ा, सुप्रिया श्रीनेत, भूपेंद्र सिंह हुड्डा, टीएस सिंहदेव, प्रियंका चतुर्वेदी, राघव चड्ढा, सीताराम येचुरी, अरविंद केजरीवाल के ओएसडी और ममता बनर्जी के भतीजे अभिषेक को भी समान संदेश हासिल हुए थे। ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन के अध्यक्ष समीर सरन और दो वरिष्ठ पत्रकारों के नाम भी अलर्ट पाने वालों की सूची में शामिल थे।
इनमें से एक, सिद्धार्थ वरदराजन ने जुलाई 2021 में पेगासस नाम के एक खुफिया सॉफ्टवेयर के इस्तेमाल की खबर ब्रेक कर भारतीय राजनीति में भूचाल ला दिया था। उस खबर के अनुसार, पहली बार इतने बडे़ पैमाने पर नामचीन नेताओं, न्यायाधीशों, पत्रकारों और कारोबारियों के फोन निगरानी में थे। राहुल गांधी भी उनमें एक थे। राजनीतिक हो-हल्ले के अलावा यह मामला सुप्रीम कोर्ट की ड्योढ़ी तक जा पहुंचा था। अक्तूबर 2021 में उच्चतम न्यायालय ने इस संबंध में एक टेक्निकल कमेटी गठित की, ताकि मामले की संपूर्ण जांच हो सके। अगले वर्ष समिति ने अपनी रिपोर्ट माननीय सुप्रीम कोर्ट के समक्ष सौंपी। सुप्रीम कोर्ट ने इस रिपोर्ट को सार्वजनिक करने योग्य नहीं माना और साथ ही सरकारी अधिकारियों पर कड़ी टिप्पणी की कि उन्होंने सहयोग नहीं किया।
क्या इतने से मान लिया जाए कि ऐसा ऊंचा मामला राजनीति प्रेरित था और अधिकारी दबाव में थे?
जल्दबाजी में कोई निष्कर्ष निकालना उचित नहीं होगा। किसी भी मालवेयर या सॉफ्टवेयर का देश के राजनीतिज्ञों, कारोबारियों और पत्रकारों के विरुद्ध निजी या राजनीतिक निहितार्थों के लिए प्रयोग यकीनन अनुचित है, लेकिन उन्हें प्रतिबंधित नहीं किया जा सकता। आतंकवादियों, उनके मददगारों और देश-विदेश में बैठे उनके रणनीतिकारों को काबू में रखने के लिए संसार का हर देश इनका इस्तेमाल करता आया है। इजरायल और गाजा युद्ध ने पूरे विश्व की खुफिया एजेंसियों को जो सदमा पहुंचाया है, उससे भी ऐसे मालवेयर्स के इस्तेमाल में बढ़ोतरी आने वाली है।
ऐसा एक मामला पिछले दिनों चर्चा में आया था, जब राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु ने ‘स्ट्रैटेजिक फोर्स कमांड’ में तैनात एक मेजर को बर्खास्त कर दिया। मेजर पर गोपनीय सूचनाएं अपने फोन में ‘स्टोर’ कर उन्हें देश के विरुद्ध इस्तेमाल करने का आरोप है। वह जिस ‘पटियाला पेग’ वाट्सएप ग्रुप का सदस्य था, उसमें एक दर्जन अन्य अधिकारी या महत्वपूर्ण सैन्य-कर्मी शामिल थे। वे सभी जांच के घेरे में हैं। देश की सुरक्षा के लिए जरूरी यह भंडाफोड़ बिना इलेक्ट्रॉनिक निगरानी के संभव न था। पेगासस और ऐसे अन्य सॉफ्टवेयर इसी काम के लिए डेवलप किए गए थे। उनका सदुपयोग अगर रक्षक है, तो दुरुपयोग? सत्ता संस्थानों और उनकी एजेंसियों पर इनके सही इस्तेमाल की जिम्मेदारी बनती है। अपने नागरिकों की निजता की रक्षा संसार की हर लोकतांत्रिक सरकार का अनिवार्य दायित्व है।
अब मौजूदा प्रकरण पर लौटते हैं। ‘स्टेट स्पॉन्सर्ड हैकर्स’ पर हंगामे के बाद एप्पल का स्पष्टीकरण वायरल होने लगा, जो अपने-आप में पहेली है। इसके साथ ही भारत सरकार के रेल, संचार, इलेक्ट्रॉनिक्स एवं सूचना-प्रौद्योगिकी मंत्री अश्विनी वैष्णव का भी बयान आया कि एप्पल ने यह ‘अलर्ट’ 150 देशों में अपने उपभोक्ताओं के लिए एक साथ जारी किया था। सवाल उठता है कि क्या विपक्ष ने मौके का फायदा उठाते हुए ‘विक्टिम कार्ड’ खेल दिया है? सत्तारूढ़ गठबंधन के प्रवक्ता इस आरोप पर सान चढ़ाने में जुटे हैं। इसी बीच सत्ता पक्ष के प्रवक्ता ने राहुल गांधी से पूछा कि वह अमेरिकी अरबपति जॉर्ज सोरोस और विदेशी एजेंसियों की प्रायोजित कहानियों को तरजीह क्यों देते हैं? वह कुछ देर पूर्व राहुल गांधी द्वारा पत्रकार वार्ता में लगाए गए आरोपों का जवाब दे रहे थे। राहुल ने एक उद्योगपति का नाम लेते हुए इस प्रकरण में तीखा हमला बोला था।
सत्य कहां है? क्या वह कभी सामने आ पाएगा? भूलें नहीं। अति-महत्वपूर्ण लोगों से जुडे़ मामले आमतौर पर सीलबंद फाइलों में दफ्न हो जाते हैं। सुभाष चंद्र बोस और लाल बहादुर शास्त्री की रहस्यमय मौत या इंदिरा गांधी की हत्या से जुडे़ आयोगों की रिपोर्ट कभी जगजाहिर नहीं हुई। यह सूची लंबी है।
यहां एक और सवाल उठता है कि क्या सिर्फ इसी सरकार में ऐसे विवाद उठ रहे हैं? ऐसा नहीं है। अतीत में फोन टेपिंग और अवैधानिक जासूसी पर सरकारें तक बेदखल हुई हैं, लेकिन मैं आपको इतिहास के अबूझमाड़ में नहीं ले जाना चाहता। हम दो अति-महत्वपूर्ण मामलों की याद से काम चला सकते हैं।
आप ‘नीरा राडिया टेप कांड’ को नहीं भूले होंगे। उस दौरान तमाम नेताओं, पत्रकारों, अभिनेताओं, कारोबारियों और नामचीन हस्तियों की फोन-वार्ताएं लीक हुई थीं। उन दिनों जो कुछ फिजां में तैर रहा था, वह राजनीति, कारोबार, पत्रकारिता और ग्लैमर की दुनिया की दुरभिसंधियों को सामने लाने के लिए पर्याप्त था। तब भी ऐसा ही तूफान बरपा हुआ था। तमाम तर्क उभरे थे, पर हुआ क्या? दुरभिसंधियां आगे बढ़ने का रास्ता ढूंढ़ लेती हैं।
आपको वर्ष 2000 का ‘साउथ अफ्रीका क्रिकेट मैच फिक्सिंग कांड’ याद होगा। उस समय पूरी दुनिया सकते में आ गई थी। इस सट्टेबाजी का जाल दक्षिण अफ्रीका से लेकर भारत तक फैला हुआ था। दक्षिण अफ्रीकी कप्तान हेंसी क्रोनिए और भारतीय कप्तान मोहम्मद अजहरुद्दीन इसकी चपेट में आ गए थे। उनके कई साथियों का करियर तबाह हो गया था। क्रोनिए ने न्यायिक आयोग के समक्ष अपना जुर्म कुबूल कर लिया था, मगर अजहरुद्दीन पर दोष सिद्ध नहीं हो सका। बाद में वह भारतीय लोकतंत्र की सर्वोच्च पंचायत लोकसभा के भी सदस्य बने।
हमारे देश में अपराध, जांच और उनके अंतिम निष्कर्षों में साम्य कतई जरूरी नहीं।
इस मैच फिक्सिंग कांड के बाद भी सट्टेबाजी रुकी कहां? कुछ वर्ष पूर्व मैच फिक्सिंग के आरोप में क्रिकेट स्टार श्रीसंत, अजित चंदीला के साथ तमाम उभरते क्रिकेटरों पर प्रतिबंध लगाया गया था। कुछ को सजा भी मिली, लेकिन क्या यह तमाशा रुक गया? क्रिकेट को इस देश में धर्म जैसा दर्जा प्राप्त था, बाजार ने उसे ‘क्रेजी गेम’ में तब्दील कर दिया। अब निजता भी क्या चौराहे पर चर्चा का मुद्दा बनने जा रही है? तकनीक ने अगर बहुत कुछ सुगम किया है, तो कुछ नए जोखिम भी जन दिए हैं। पिछले कई विवाद तकनीक के दुरुपयोग के गवाह हैं, पर इससे मुक्ति की राह फिलहाल खुलती नजर नहीं आती।
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