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अलगाव की आंधी में गांधी

माना जाता है कि जैसे-जैसे यूरोप में ऊर्जा और खाद्यान्न का संकट गहराएगा, असहिष्णुता अपने पांव जमाती चली जाएगी। भरोसा न हो, तो इंग्लैंड की घटनाओं पर नजर डाल देखिए। वहां जिस तरह मंदिरों और हिंदुओं पर....

अलगाव की आंधी में गांधी
Shashi Shekharहिन्दुस्तानThu, 06 Oct 2022 11:09 AM
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आज गांधी जयंती है। पिछले साल आज के दिन हमने अचरज से देखा था कि सोशल मीडिया पर किस तरह ‘नाथूराम गोडसे अमर रहें’ ‘ट्रेंड’ कर रहा था। जिन्हें गोडसे का अमरत्व चाहिए, वे अपनी कामना पर अटल रहें, मगर मंदी, अलगाव और विश्व-युद्ध की आशंकाओं से ग्रस्त इस धरती के बाशिंदों को आज महात्मा गांधी की सर्वाधिक जरूरत है। 

ऐसा लगता है, जैसे इतिहास का चक्र उल्टा घूमने लगा है। प्रथम विश्व-युद्ध के बाद जिस तरह यूरोप में धुर-दक्षिणपंथी और कट्टर राजनेताओं का उदय होने लगा था, वही चलन आज फिर जोर मारता दिख रहा है। इटली इसका नवीनतम उदाहरण है। वहां धुर-दक्षिणपंथी जॉर्जिया मेलोनी देश की पहली महिला प्रधानमंत्री चुनी गई हैं। वह ‘फ्रटल्ली डिटालिया’ पार्टी की नेता हैं। इस इतालवी शब्द का अंग्रेजी में मतलब ‘ब्रदर्स ऑफ इटली’ होता है। महज 45 वर्ष की उम्र में उन्होंने यह मुकाम कितनी तेजी से हासिल किया है, इसका अंदाजा एक आंकडे़ से लगाया जा सकता है। पिछले चुनावों में उनकी पार्टी को महज चार फीसदी वोट मिले थे। चार वर्षों के अंतराल में वह इसमें 22 फीसदी का जबरदस्त इजाफा करने में कामयाब रही हैं। रोम की सत्ता में उनके साथ दक्षिणपंथी रुझान वाली दो अन्य पार्टियां भी शिरकत करेंगी। इससे न केवल इटली, बल्कि समूची दुनिया के मध्यमार्गियों में खलबली मच गई है। इन लोगों का मानना है कि तीन दलों का यह समूह लोकप्रियता अर्जन में एक-दूसरे से मुकाबला कर सकता है और यह होड़ इटली में ‘मुसोलिनीवाद’ को बढ़ावा देने वाली साबित होगी। 
ये लोग अपनी बात को बल देने के लिए जॉर्जिया मेलोनी के एक पुराने भाषण का हवाला देते हैं। इस ‘वायरल स्पीच’ में मेलोनी खुलकर मुसोलिनी की तारीफ करती हैं। उस वक्त वह महज 19 वर्ष की थीं। कट्टरपंथियों के बारे में मशहूर है कि पुरानी शराब की तरह उनके विचार उम्र के साथ और अधिक मादक व मारक हो जाते हैं। आप चाहें, तो मेलोनी को इस श्रेणी में रख सकते हैं। बेनिटो मुसोलिनी की पौत्री रकेले मुसोलिनी भी उनकी पार्टी की सक्रिय सदस्य हैं। रकेले को भी अपने पितामह की करतूतों पर शर्म नहीं, गर्व है। यहां यह बताने में हर्ज नहीं कि इटली में ही ‘फासीवाद’ का उदय हुआ था। फासीवाद की इस विचारधारा ने दुनिया पर कैसे-कैसे जुल्म ढाए, बताने की जरूरत नहीं। 
यह ऐतिहासिक तथ्य है कि मुसोलिनी ने हिटलर की महत्वाकांक्षाओं को न सिर्फ धार दी, बल्कि उसे आगे बढ़ाने में भी मदद की थी। ऐसे में, जर्मनी का हाल जान लेने में भी कोई बुराई नहीं। मौजूदा चांसलर ओलाफ शॉल्स दक्षिणपंथी नहीं हैं, पर आव्रजन और कई अन्य मुद्दों पर अपनी अलग राय रखने वाले कट्टरपंथी लगातार ताकत हासिल कर रहे हैं। इस विचारधारा की हामी ‘अल्टरनेटिव फॉर जर्मनी’ को पूर्वी जर्मनी में खासा समर्थन मिल रहा है।
पड़ोस के फ्रांस में भी दक्षिणपंथियों से सत्ता समूह को कड़ी चुनौती मिल रही है। वहां अप्रैल 2022 में हुए राष्ट्रपति चुनाव में इमैनुएल मैक्रों भले जीत गए हों, पर उन्हें घनघोर दक्षिणपंथी मैरीन ली पेन से कड़ी टक्कर मिली थी। मैक्रों को 58.54 फीसदी मत मिले, जबकि पेन को 41.46 फीसदी। आप सोच रहे होंगे कि लगभग 17 फीसदी का अंतर तो काफी बड़ा है, पर यह अर्द्धसत्य है। पेन की पार्टी ने 2017 के मुकाबले सात प्रतिशत ज्यादा मत प्राप्त किए हैं, जबकि मैक्रों की लोकप्रियता में लगभग इतनी ही गिरावट आई है। मतलब साफ है, इटली, जर्मनी और फ्रांस में दक्षिणपंथ तेजी से अपने पांव पसार रहा है। ये तीनों यूरोप की प्रमुखतम अर्थव्यवस्थाएं हैं। 
इन देशों के मुकाबले स्कैंडिनेवियाई प्रायद्वीप हमेशा से सहज और समदर्शी माना जाता रहा है, पर स्वीडन में इसी 11 सितंबर को हुए चुनाव के बाद मॉडरेट पार्टी के नेता उल्फ क्रिस्टर्सन प्रधानमंत्री होंगे। मॉडरेट यानी संयत नाम से किसी भ्रम का शिकार मत हो जाइएगा। मॉडरेट पार्टी के विचार किसी अन्य दक्षिणपंथी दल या समूह से कमतर नहीं। उनकी अगुवाई वाले कट्टरपंथी गठबंधन को 173 सीट मिली हैं। यह बहुमत के लिए जरूरी 176 सीट के आंकडे़ से सिर्फ तीन सीट दूर है। मौजूदा प्रधानमंत्री मैग्डलेना एंडरसन अपनी पराजय स्वीकार कर चुकी हैं। यह अकेले उनकी नहीं, अब तक मान्य स्वीडिश सत्ता-परंपरा की पराजय है। कोई हैरत नहीं कि पिछले महीनों में वहां बाहरी लोगों के खिलाफ हिंसा की तमाम घटनाएं दर्ज की गईं। इसके साथ एक और आशंका जन्म ले रही है। रूस में पुतिन के फैसलों से घबराकर जिस तरह फिनलैंड और जॉर्जिया की सीमाओं पर शरणार्थियों की भारी भीड़ उमड़ रही है, उससे वहां भी ऐसी भावनाओं को बल मिलने की आशंका है। 
अब तक हमने यूरोप के धनी-मानी देशों की बात की। इसका यह मतलब न निकाल बैठिएगा कि दक्षिणपंथ सिर्फ अमीर मुल्कों का चोंचला है। अपेक्षाकृत आर्थिक तौर पर कमजोर हंगरी में पहले से ही दक्षिणपंथी गठबंधन सत्ता में है। इस बार तो धुर-दक्षिणपंथी पार्टी ‘आवर होमलैंड मूवमेंट’ के भी सात सदस्यों ने संसद की सदस्यता हासिल करने में सफलता अर्जित की है। वे लोग अपने विचारों से फासीवाद के करीब माने जाते हैं। ऐसा माना जाता है कि जैसे-जैसे यूरोप में ऊर्जा और खाद्यान्न का संकट गहराएगा, वैसे-वैसे असहिष्णुता अपने पांव जमाती चली जाएगी। भरोसा न हो, तो इंग्लैंड की घटनाओं पर नजर डाल देखिए। वहां जिस तरह मंदिरों और हिंदुओं पर हमले हो रहे हैं, वह कल तक कल्पनातीत था। 
ऐसे में, गांधी की याद आना स्वाभाविक है। बदलती वैश्विक परिस्थिति में वह धरती के बाशिंदों को जोड़ने के मामले में चमत्कारी नेता साबित हो सकते थे। उनमें इतनी हिम्मत थी कि वह हिटलर को लिख सकते थे- ‘आप अपने लोगों के लिए कोई ऐसी विरासत नहीं छोड़ रहे, जिस पर वे गर्व महसूस कर सकें। वे बर्बर कृत्यों पर कतई गर्व नहीं कर सकते, चाहे इन कृत्यों की योजनाएं कितनी ही कुशलता से क्यों न बनाई गई हों। इसलिए मैं मानवता के नाम पर आपसे युद्ध रोकने की अपील करता हूं।... यदि आप युद्ध में कामयाब भी होते हैं, तो इससे यह साबित नहीं हो जाएगा कि आप सही थे। इससे यही सिद्ध होगा कि आपके पास विध्वंसकारी शक्ति अधिक थी।’ भूलें नहीं, गांधी ने यह खत 24 दिसंबर, 1940 को लिखा था। उन दिनों भारत परतंत्र था, पर ‘महात्मा’ का दर्जा गुलाम देश के गुलाम नागरिक से कहीं बड़ा था। दक्षिण अफ्रीका के सत्याग्रह ने उन्हें विश्व नागरिक बना दिया था। आज का भारत स्वतंत्र है। हम सिर्फ 75 बरस की आजादी के अदना से सफर में दुनिया की पांचवीं आर्थिक शक्ति का दर्जा हासिल कर चुके हैं। ऐसे में, गांधी की आवाज का वजन ही कुछ और होता। 
मौजूदा भारत को भी उनकी बहुत जरूरत है। जिस तरह हमारे देश में विभाजनकारी शक्तियां प्रबल हो रही हैं, उनसे जूझने का सबसे सफल नुस्खा सिर्फ गांधी और ‘गांधीवाद’ है। 

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