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कोरोना डायरी 5 : राजनीति नहीं, राष्ट्रनीति का वक्त

26 मार्च 2020, शाम 7 बजे । वह सदमे में थीं। कई दिनों के सन्नाटे ने उनकी शारीरिक क्षमता पर असर डालना शुरू कर दिया था। डॉक्टरों के अनुसार 22 मार्च को उनकी डिलिवरी होनी थी पर 25 तारीख हो गई थी। प्रसव...

कोरोना डायरी 5 : राजनीति नहीं, राष्ट्रनीति का वक्त
शशि शेखर ,नई दिल्लीSat, 28 Mar 2020 04:41 PM
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26 मार्च 2020, शाम 7 बजे ।

वह सदमे में थीं। कई दिनों के सन्नाटे ने उनकी शारीरिक क्षमता पर असर डालना शुरू कर दिया था। डॉक्टरों के अनुसार 22 मार्च को उनकी डिलिवरी होनी थी पर 25 तारीख हो गई थी। प्रसव पीड़ा का दूर-दूर तक कोई आभास न था। मेडिकल साइंस कुछ भी कहे पर वे बेहद चिंतित थीं, क्योंकि उनके पति नोएडा में फंसे हुए थे। बरेली में वे खुद को इतना तन्हा पा रही थीं कि लगता था कि वे प्रसव की स्थिति तक पहुंच ही नहीं पाएंगी।

‘हिन्दुस्तान’ के एक संवाददाता को किसी ने इसकी जानकारी दी। हमने जिलाधिकारी से गुजारिश की कि आप कुछ मदद करें। जिलाधिकारी ने नोएडा में अपने समकक्षों से बात की और पति महोदय के लिए एक गाड़ी का इंतजाम हो गया। रास्ते में कोई रोके-टोके नहीं, इसकी भी व्यवस्था की गई। पति के पहुंचने के दो घंटे के अंदर ही नवागत ने कोविड-19 की मारी इस दुखियारी दुनिया में अपनी आंखें खोलीं। उस दंपत्ति के लिए यह जहां आह्लाद का विषय था, वहीं हमारे लिए भी सुकून की बात थी। डपोरशंखों से बजबजाती इस दुनिया में जब मीडिया वालों की लानत-मलामत का फैशन हो चला हो, ऐसे समय में हम लोगों के आंसू पोंछते हैं, बिछड़ों को मिलाते हैं और जरूरतमंदों को उनकी आवश्यकता की वस्तुएं मुहैया कराने का साधन जुटाते हैं। एक और ऐसा ही किस्सा नोएडा का है। दो बच्चियां नोएडा के सेक्टर-30 में अपनी नानी के यहां आई हुई थीं। अचानक लॉकडाउन हो गया। उनका घर सराय कालेखां में है। माता-पिता वहां अटके हुए थे। नानी और पिता के घर में कुल 8-10 किलोमीटर की यह दूरी कई योजनों पर भारी थी। जाने को कोई वाहन नहीं, बच्चियां घबरा रही थीं, उधर माता-पिता भी परेशान थे। हमारे संवाददाता खुद उन्हें घर तक पहुंचा कर आए। भर्राए हुए गले से पिता जब हमारे सहयोगियों को धन्यवाद दे रहे थे, तो उन्हें भी लग रहा था कि यह कुछ ऐसा है, जो सार्थक है, जो संपूर्णता की ओर ले जाता है। यकीन माने, यह आत्मश्लाघा नहीं है। इसमें मेरा कभी यकीन नहीं रहा। समस्याओं के उबलते महासागर में ऐसी इमदाद ओस की कुछ बूंदों की तरह होती है, परंतु जिनको हासिल हो जाती है, उसके जीवन के लिए वह अमूल्य निधि बन जाती है। बरेली में आज जिस बच्चे ने जन्म लिया, उसे अमेरिका में जन्मे नये मुहावरे के अनुसार #GEN-C कहते हैं।

वह और उसके मां-बाप इस दिन को कैसे याद करेंगे? हम ऐसी नेमतें रोज अपने चारों ओर फलती-फूलती देख सकते हैं, यदि हमारा राजनीतिक वर्ग इस पर कुछ नजर डाले तो। एक-दूसरे पर फूहड़ तर्कों की कीचड़ उछालने वाले महानुभाव करदाताओं की कमाई और जनता की भोली आकांक्षाओं के बल पर हासिल सामर्थ्य का उपयोग खुद को लाभान्वित करने तक सीमित रखते हैं। हमारी संसद और विधान मंडलों में करोड़पति विधायकों और संसदों की संख्या में चुनाव-दर-चुनाव इजाफा हुआ है। यही नहीं, एक चुनाव से दूसरे चुनाव के बीच नेताओं की आमदनी दुगुनी-चौगुनी तक बढ़ जाती है। आज जब उनके मतदाता बेजार हैं, तो क्यों नहीं वे अपनी आय का कुछ हिस्सा उनकी बेहतरी के लिए लगा देते? वे ऐसा नहीं करेंगे। जातियों और फिरकों में हमें बांटकर वो हमारे वोट लेते हैं पर ये नहीं बताते कि कोरोना जैसी आपदाएँ जब हमला करती है, तो वह ऐसी पहचानों को नोचकर कहीं दूर फेंक देती है।

सिर्फ वही क्यों, हमारे उपासना _स्थलों के पास शायद भारत सरकार से भी ज्यादा धन है। वह या तो बैंकों में पड़ा है अथवा ऐसे ही सुसुप्तावस्था में है। उसमें हर रोज इजाफा होता है। क्या इस धन का उपयोग अपने आस्थाशीलों को अकाल मौत से बचाने के लिए नहीं किया जा सकता? इस वायरस के
महाप्रकोप ने उनके भी तो दरवाजे बंद कर दिए हैं। श्रद्धालुओं के न सही खुद के बंद पड़े दरवाजे खोलने के लिए ही सही वे कुछ तो करें। टोपी, दाढ़ी और तिलक वाले वे कागजी शेर भी नदारद हैं, जो टेलीविजन स्टूडियो में बैठकर दिखावटी धर्मयुद्ध लड़ते दिखते थे। इन्हें सच्चा मानने वाले इनके इस झूठे आचरण पर भी गौर फरमाएं। आपके मन में दरार डालने के बाद वे उस समय नदारद हैं, जब आपकी जिंदगी में कोरोना दरारें डाल रहा है।इस मामले में सिर्फ सिख आगे आए हैं। उनके गुरुद्वारे गरीब-गुरबा के लिए खोल दिए गए हैं, ताकि कोई भूखा न रहे। भूख क्या होती है, हमारे संवाददाताओं ने इसे दिल्ली के रैन
बसेरों में देखा। बड़ी संख्या में लोग वहां टूट पड़े हैं। कम-से-कम वहां सोने के लिए कुछ जगह और जैसे-तैसे जी लेने लायक भोजन तो नसीब है। वो एक दूसरे के बहुत नजदीक बैठकर भोजन पाते हैं। निर्बल प्राणियों को देखकर मन में प्रश्न उठा कि #Social_Distancing पर सिर्फ क्या कुछ ही लोगों का हक है? इन मजलूमों को कोरोना से कोई डर भी नहीं, ये तो रोज ही मौत जीते हैं। भूख-प्यास, तरह-तरह के संक्रमण, इनका नसीब है।

मौसम की जरा-सी करवट इनकी जान लेने के लिए काफी होती है। कड़ी धूप, तेज बारिश या तीखी सरदी, कुदरत इनके लिए करिश्मा नहीं कोप साबित होती है सोशल डिस्टेंसिंग पर ख्याल आया कि नोएडा का भद्रलोक सुबह से वाट्सऐप संदेशों का आदान -प्रदान रहा था-सोशल डिस्टेंसिंग और कोरोना से #Fight की #Awakening के लिए आज शाम पांच बजे समस्त दंपत्ति अपनी बालकनियों में निकलकर थालियां, घंटे या घड़ियाल बजाएं। ऐसा ही हुआ। मुझे ये ध्वनि उन लोगों का मजाक उड़ाती प्रतीत हो रही थी, जो अपने घर पहुंचने के लिए हजारों किलोमीटर की पैदल यात्रा पर हैं, जो रैन बसेरे ढूंढ रहे हैं, जो गुरुद्वारों के लिए इर्द-गिर्द चक्कर लागा रहे हैं और जो बेमौत मारे जाने के लिए अभिशप्त हैं। ये लोग अपनी बोरियत मिटाने के लिए इन मजलूमों का मज़ाक़ उड़ा रहे थे । क्यों नहीं ये लोग भी कम से कम एक एक व्यक्ति के अस्थाई पोषण का इंतजाम करते? इन्हें तो अपनी सोसायटी में तैनात द्वारपालों, सफाई कर्मियों और इसी तरह कर्तव्य पालन में जुटे तमाम लोगों की भी कोई परवाह नहीं। इनकी नजर में ये सिर्फ अपनी ड्यूटी का पालन कर रहे हैं, गोया इनकी कोई ड्यूटी ही नहीं।

आज वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण और नीतीश कुमार ने कई राहत भरी घोषणाएं की हैं, ये सुकून की बात है कि राहुल गांधी ने भी उनकी तारीफ की है। ये समय राजनीति का नहीं बल्कि राष्ट्रनीति का है। उम्मीद है, हमारे नेता इस पर आगे भी गौर फरमाएंगे।

क्रमश:

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