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युद्ध नहीं शांति

डोकलाम क्षेत्र में जिस तरह से भारत और चीन की सेनाएं आमने-सामने आ डटी हैं, उसे लेकर चल रही आशंकाओं से धुंध के अब छंटने की उम्मीद बनी है। इसे लेकर विदेश मंत्री सुषमा स्वराज का बयान ऐसे समय पर आया है,...

युद्ध नहीं शांति
नई दिल्लीFri, 04 Aug 2017 10:40 PM
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डोकलाम क्षेत्र में जिस तरह से भारत और चीन की सेनाएं आमने-सामने आ डटी हैं, उसे लेकर चल रही आशंकाओं से धुंध के अब छंटने की उम्मीद बनी है। इसे लेकर विदेश मंत्री सुषमा स्वराज का बयान ऐसे समय पर आया है, जब हालात को बिगड़ने से रोकने के लिए सकारात्मक संकेत देने की जरूरत थी। राज्यसभा में बोलते हुए उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा कि युद्ध से कोई समाधान नहीं होगा, समाधान बातचीत से ही होगा। साथ ही यह भी जोड़ा कि युद्ध के बाद भी समाधान के लिए बातचीत ही करनी पड़ती है और बुद्धिमानी इसी में है कि मसले को राजनय से सुलझाया जाए। इससे यह उम्मीद बनी है कि सीमाओं पर अभी कुछ समय तक भले फौज डटी रहे, लेकिन जल्द ही दोनों देशों के राजनियक वार्ता की मेज पर आमने-सामने होंगे। सबसे बड़ी बात यह है कि इससे वह युद्धोन्माद ठंडा पड़ने लगेगा, जो पिछले कुछ दिनों से कई क्षेत्रों में बेवजह ही खदबदाने लगा था। यह जरूर है कि इस बयान के बाद चीन से जो तुरंत प्रतिक्रिया मिली, वह उतनी सकारात्मक नहीं है, जितनी उम्मीद थी। चीन ने अपने बयान में यही कहा है कि वह अपने धैर्य की आखिरी हद तक पहंुच चुका है। बेशक यह बात धैर्य की है, लेकिन उसके स्वर में धमकी का एक संकेत भी है। मगर अब यह माना जा रहा है कि ऐसे स्वर जल्द ही ठंडे पड़ने लगेंगे।
वैसे उम्मीद का कारण सिर्फ यह बयान ही नहीं, कई और भी हैं। अगले महीने चीन में ब्रिक्स देशों का शिखर सम्मेलन होने जा रहा है। यह ऐसा संगठन है, जिसे ब्राजील, भारत, रूस, चीन और दक्षिण अफ्रीका ने बदलती दुनिया में अपने आर्थिकों हितों को आगे बढ़ाने के लिए खड़ा किया है। भारत और चीन शायद दोनों ही देश नहीं चाहेंगे कि जिस समय यह सम्मेलन हो रहा हो, इन दोनों देशों का रिश्ता किन्हीं अन्य कारणों से सुर्खियों में बना रहे। दूसरी उम्मीद इसलिए भी है कि अक्तूबर महीने में चीन की कम्युनिस्ट पार्टी का सम्मेलन होना है। माना जा रहा है कि शी जिनपिंग यह कभी नहीं चाहेंगे कि सम्मेलन में जब उनकी उपलब्धियों की चर्चा हो, तब उसमें भारत और चीन के बीच बढ़ रहे तनाव को भी गिना जाए। शी जिनपिंग न सिर्फ चीन के, बल्कि अपनी पार्टी के भी सर्वेसर्वा हैं। वह चीन के राष्ट्रपति भी हैं और चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव भी। हालांकि इससे बहुत ज्यादा उम्मीद भी नहीं पाली जा सकती, क्योंकि आमतौर पर यह माना जाता है कि किसी देश के अंदरूनी राजनीति के दबाव अंतत: युद्धोन्माद ही बढ़ाते हैं। लेकिन कम से कम इस मामले में तो दोनों देशों के नेतृत्व के विवेक पर भरोसा किया ही जा सकता है।
ठीक यहीं पर हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि भारत और चीन, दोनों युद्ध की व्यर्थता को बहुत पहले ही समझ चुके हैं। दोनों देशों के बीच का सीमा विवाद बहुत पुराना है। और इसे लेकर मतभेद तो शायद इससे भी पुराने हैं। इस विवाद को सुलझाने के लिए वार्ताओं के कई दौर एक के बाद एक नाकाम हो चुके हैं। इसके बावजूद दोनों देशों ने शांतिपूर्ण ढंग से जीना सीख लिया है। पांच दशक से ज्यादा हो गए, लेकिन इन सीमाओं पर एक बार भी गोली नहीं चली। सीमा को लेकर गहरे मतभेदों के बावजूद दो पड़ोसी कैसे शांति के साथ जी सकते हैं, भारत और चीन इसका एक अच्छा उदाहरण हो सकते हैं। दोनों देशों के नेतृत्व और व्यवस्थाओं की जो परिपक्वता है, वह इस शांति संतुलन के गड़बड़ाने का अर्थ बहुत अच्छी तरह जानती है। विदेश मंत्री सुषमा स्वराज का बयान बताता है कि इसे बनाए रखने के लिए भारत ने अपनी तरफ से कोशिश कर दी है। उम्मीद है कि चीन भी देर-सवेर इसी तरफ बढ़ेगा। 

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