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सोनिया का संन्यास

कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी का यह कहना कि ‘अब मैं रिटायर हो जाऊंगी’, भारतीय राजनीतिक परिदृश्य पर एक नई चर्चा, बल्कि हंगामे का कारण भले बन जाए, लेकिन इसमें कुछ भी अप्रत्याशित नहीं है।...

सोनिया का संन्यास
हिन्दुस्तानFri, 15 Dec 2017 10:21 PM
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कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी का यह कहना कि ‘अब मैं रिटायर हो जाऊंगी’, भारतीय राजनीतिक परिदृश्य पर एक नई चर्चा, बल्कि हंगामे का कारण भले बन जाए, लेकिन इसमें कुछ भी अप्रत्याशित नहीं है। इसकी तैयारी तो बीते डेढ़-दो साल से दिख रही थी, जब राहुल गांधी संसद से सड़क तक फ्रंट फुट पर दिख रहे थे, लेकिन कांग्रेस इसे महज अध्यक्ष पद से उनका जाना मान बैठी थी। शायद यही कारण है कि सोनिया के स्पष्ट संकेत देने के बावजूद कांग्रेस में एक बेचैनी दिख रही है, जबकि उसे मान लेना चाहिए कि राजनीति में कुछ भी स्थाई नहीं होता। सोनिया गांधी के  फैसले का भी यही संदेश है। सोनिया गांधी का राजनीति से हां-ना का नाता रहा है। वह राजनीति में आना ही नहीं चाहती थीं। 1991 में राजीव गांधी की हत्या के बाद जब कांग्रेस अध्यक्ष बनने का प्रस्ताव आया, तो बहुत विनम्रता से यह कहकर कि वह राजनीति से दूर रहना चाहती हैं, उन्होंने पद लेने से मना कर दिया। हालांकि हालात बदले, 1991 में वह कांग्रेस की प्राथमिक सदस्य बनीं और 1998 में पार्टी अध्यक्ष चुन ली गईं। कांग्रेस में सबसे ज्यादा समय तक अध्यक्ष बने रहने का रिकॉर्ड उन्हीं के नाम है। सोनिया का कांग्रेस और भारतीय राजनीति में आना भले ही परिस्थितिजन्य रहा हो, इसने भारतीय राजनीति को स्थाई महत्व के कई पन्ने दिए। अपने दीर्घ सार्वजनिक जीवन में खुद को कम से कम दो बार पूरी तरह बदलने का विरल उदाहरण हैं सोनिया गांधी। यह बदलना एक कायांतरण जैसा था। पहली बार, जब वह एक विदेशी महिला के तौर पर भारतीय परिवार में प्रवेश करती हैं और बड़ी आसानी से उसी में रच-बस जाती हैं। दूसरा तब, जब तमाम इनकार के बाद राजनीति में आती हैं, लेकिन जल्द ही भारतीय राजनीति की बड़ी शख्सियत बन जाती हैं। शायद यह कायांतरण ही है, जो उन्हें बहुत जल्द ही विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र के प्रधानमंत्री की कुरसी तक पहुंचा देता, लेकिन वह उसे ठुकराकर एक उदाहरण बन जाती हैं।

सोनिया गांधी ने पार्टी की कमान उस वक्त संभाली थी, जब कांग्रेस संक्रमण काल में थी। पार्टी को नई गति देना आसान नहीं था, लेकिन सोनिया यह काम बखूबी कर पाईं। यह सब उनके व्यक्तित्व की दृढ़ता और राजनीतिक-व्यवहार कुशलता का नतीजा था, जो उन्हें इंदिरा गांधी के करीब ले जाता है। शायद यही कारण था कि वह कांग्रेस की उस आलाकमान संस्कृति को भी सबके मेल के साथ आगे ले जाने में सफल रहीं, जिसे आत्मसात कर सफलता से आगे ले जा पाना आसान नहीं था। सोनिया का नेतृत्व कौशल संक्रमण के दौर से निकालकर कांगे्रस को न सिर्फ 2004 में सत्ता दिलाने में कामयाब हुआ, वरन 2009 में सत्ता दोहराने में भी सफल रहा। यूपीए चेयरपर्सन रहते हुए तमाम दलों से संवाद और सहकार से लंबे समय तक सरकार चलवा पाना भी बड़ी सफलता थी।

उपलब्धियां बहुत हैं, लेकिन अब जब सोनिया का संन्यास एक नया आयाम गढ़ रहा है, इसे नए संदर्भों में देखने की जरूरत है। यह नई तरह की राजनीति का वक्त है। कांग्रेस की कमान गांधी परिवार की अगली पीढ़ी के हाथों में जा रही है। ऐसे में, यदि यह उनका राजनीतिक संन्यास ही है, तो कांग्रेस क्या, पूरी भारतीय राजनीति को उनकी कमी अखरेगी। महागठबंधन की जरूरत के इस दौर में विपक्ष को यह शून्य समझने की जरूरत है। भारत का प्रतिपक्ष सोनिया गांधी के साथ संवाद में बहुत सहज महसूस करता रहा है। यह सोनिया गांधी ने अपनी सहज उपलब्धता और संवाद की स्थिति से संभव बनाया था। एक ऐसा ध्रुव बना था, जहां बैठ विपक्ष सहज महसूस करता था। 2019 करीब आते देख यह और गहरे अर्थ दे रहा है। 
 

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