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भारतीय भाषाओं के उभार का वक्त

पिछले दिनों बेंगलुरु में एक मेट्रो स्टेशन के सूचनापट पर हिंदी के प्रयोग को लेकर जब विवाद खड़ा करने की कोशिश की गई, तो मुझे पुराना मुहावरा याद आ गया- बासी कढ़ी का उबाल। वहां जो लोग राजनीतिक रोटियां...

भारतीय भाषाओं के उभार का वक्त
शशि शेखरSun, 10 Sep 2017 07:21 PM
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पिछले दिनों बेंगलुरु में एक मेट्रो स्टेशन के सूचनापट पर हिंदी के प्रयोग को लेकर जब विवाद खड़ा करने की कोशिश की गई, तो मुझे पुराना मुहावरा याद आ गया- बासी कढ़ी का उबाल। वहां जो लोग राजनीतिक रोटियां सेंकने के लिए भाषाई नफरत का अलाव जलाना चाहते थे, वे पुन: असफल हो गए हैं। 

बेंगलुरु सर्वाधिक तेजी से उभरा महानगर है। एक निश्चित भूभाग में इंसानों की बड़ी बसावट तभी महानगर का स्वरूप ले पाती है, जब उनमें सह-अस्तित्व की भावना हो। बेंगलुरु ने हमेशा इस सिद्धांत का पालन किया। इस बार भी वहां के निवासी एक-दूसरे के समादर के मामले में सौ में सौ नंबर पाने के हकदार साबित हुए हैं। राजनीति की ओछी हरकतें तभी समाज पर असर डाल पाती हैं, जब वह खुद इनसे प्रभावित होना चाहता है। आप याद कर सकते हैं,बरसों पहले शिवसेना ने किस तरह दक्षिण भारतीयों और हिंदी भाषियों को जलील करने की कोशिश की थी, पर वह सिरे से नाकाम रही। कोलकाता और चेन्नई में भी कभी हिंदी विरोध का दावानल फूटा करता था, पर अब वह अतीत का किस्सा है। राजनेता बंबई को मुंबई, बंगलोर को बेंगलुरु, मद्रास को चेन्नई, कलकत्ता को कोलकाता या गुड़गांव को गुरुग्राम बना सकते हैं, मगर सिर्फ बोर्ड पर नया नाम पोत देने से शहरों की आत्मा नहीं बदला करती। 

हम चाहें, तो इस नेक प्रवृत्ति पर इतरा सकते हैं।

आगामी 14 सितंबर को हम ‘हिंदी दिवस’ मनाने जा रहे हैं। यह ठीक है कि हिंदी को राजभाषा का आधिकारिक दर्जा हासिल है और यह देश के सबसे बडे़ भूभाग की साझी मिल्कियत है, इसके बावजूद मुल्क का हर नागरिक इसे समझने-बोलने में नाकाम है। कुछ लोग इसे हमारे राष्ट्रीय चरित्र की असफलता कहते हैं, मगर मैं अपनी आदत के मुताबिक कुछ सकारात्मक बिंदुओं पर चर्चा करने की इजाजत चाहूंगा। यहां मसला सिर्फ हिंदी नहीं, समस्त भारतीय भाषाओं के विकास और उनमें समानता के सूत्र तलाशने का है। इसी में सबकी भलाई निहित है। 
बतौर उदाहरण एक निजी अनुभव आपसे बांटता हूं। 

कुछ माह पूर्व नोएडा में मेरे फ्लैट की घंटी बजी, पत्नी ने दरवाजा खोला। सामने श्याम वर्ण का नौजवान खड़ा था। उसने दक्षिण भारतीय अंदाज की अंग्रेजी में पूछा कि क्या आपके यहां से ‘एसेफोटिडा’ मिल जाएगी? यह आम प्रचलन से परे का शब्द है, लिहाजा वह समझ नहीं सकीं। संवाद की शुरुआती जद्दोजहद के बाद उनकी समझ में आया कि युवक पड़ोस के फ्लैट में रहता है और उसे भोजन पकाने के लिए किसी मसाले की जरूरत है, पर वह मसाला है क्या? इस जटिल सवाल से मुक्ति पाने के लिए वह उसे रसोई में ले गईं और मसालदानी आगे बढ़ा दी। वांछित सामग्री अभी तक अबूझ थी। श्रीमतीजी ने इस बार खाद्य सामग्री से भरी समूची अलमारी खोल दी। युवक की आंखें चमकने लगीं और उसने एक डिब्बी की ओर इशारा किया। वह हींग चाहता था।

चलते वक्त उसने कृतज्ञतापूर्वक प्रणाम के साथ ‘हींग’ शब्द का कई बार उच्चारण किया। बाद के दिनों में उसने बताया कि कुछ साल पहले वह तमिलनाडु से नौकरी के लिए ‘सिलिकॉन वैली’ गया था। उसकी अमेरिकी कंपनी अब भारत में जड़ें जमाना चाहती है। इसी मकसद से उसे नोएडा भेजा गया है। वह चंद महीने हमारे पड़ोस में रहा और हर मुलाकात के साथ हम उसके हिंदी ज्ञान में बढ़ोतरी पाते। बाद में, उसकी मां नोएडा आईं। पुत्र के प्रति हमारे वत्सल व्यवहार का शुक्रिया अदा करने के लिए वह हमारे घर भी आईं। श्रीमतीजी ने उनके जाने के बाद बताया कि वह सिर्फ तमिल जानती थीं और मैं हिंदी, पर कुछ देर में हमने संवाद के साझा सूत्र तलाश लिए थे। दोनों महिलाओं ने एक-दूसरे से खाना पकाने की विधि के अलावा तमाम जानकारियां साझा कीं। आज हमारे घर में अगर स्वादिष्ट सांभर बनता है, तो यह उसी मेल-मिलाप की सौजन्यपूर्ण भेंट है। 

पता नहीं, चेन्नई स्थित उनके घर में दाल-रोटी पकती है या नहीं?

यह मिलना-जुलना 1991 के आर्थिक उदारीकरण की बड़ी देन है। इससे हिन्दुस्तान में कॉरपोरेटीकरण को बढ़ावा मिला और नई तकनीक के आगमन से बेंगलुरु, हैदराबाद और गुरुग्राम, नोएडा जैसे ‘हब’ विकसित हुए। ऐसे शहर अमेरिका या यूरोपीय महानगरों की तरह अपने मूल बाशिंदों से ज्यादा बाहर से आई प्रतिभाओं के चलते आबाद हैं। राष्ट्रीय एकता का जो काम शंकराचार्य जैसे समाज सुधारकों ने सदियों पूर्व धर्म के जरिए शुरू किया था, उसे आर्थिक उदारवाद ने अनजाने ही आगे बढ़ा दिया है। इन उभरते महानगरों का विकास यह भी जताता है कि हमें अपने मानसिक अवरोधों से मुक्ति पाने की कितनी जरूरत है? साझी संस्कृति भावुक नारे से असलियत तक की यात्रा तभी पूरी कर सकेगी, जब अधिक से अधिक लोग मूल स्थान छोड़कर देश के दूसरे हिस्सों में बसना शुरू करें।

हर नया आगंतुक अपने साथ अपनी संस्कृति के मूल तत्व लेकर आता है और जहां जा बसता है, वहां उसके पौधे रोपता चलता है। 
आप गौर करें, तो पाएंगे कि इधर हिंदी ने अन्य भाषाओं के शब्द बड़ी तेजी से ग्रहण किए हैं। यही हाल अन्य भारतीय भाषाओं का है। जरूरत है, तो बस इसमें तेजी लाने की, क्योंकि भाषा अलगाव के अवरोधों को सबसे पहले खत्म करने की क्षमता रखती है। मेरी पत्नी और तमिलनाडु की उस महिला की लंबी बातचीत इसका उदाहरण है। उल्लेखनीय है कि लोगों को एक-दूसरे से जोड़ने में देश के सिने उद्योग ने भी बड़ी भूमिका अदा की है। बॉलीवुड की फिल्मों, गीत और संवादों ने दक्षिण में अच्छी-खासी दखल बनाई है। वहां के लोग हमारे सिने सितारों से उतना ही प्यार करते हैं, जितना रजनीकांत, कमल हासन, मोहन बाबू, रेखा, श्रीदेवी अथवा हेमा मालिनी ने उत्तर में पाया। अब तो तमाम दक्षिण भारतीय भाषाओं की फिल्में हर रोज डब होकर हिंदी में और मुंबइया सिनेकृतियां दक्षिण में दिखाई जाती हैं।
इसने राजनीतिज्ञों द्वारा रोपे गए अलगाव और घृणा को काफी कुछ कम किया है। बेंगलुरु इसका ताजातरीन उदाहरण है।

यहां यह भी ध्यान देने की बात है कि इधर के वर्षों में तकनीक ने नई संभावनाओं के दरवाजे खोले हैं। प्राय: दो साल पहले गूगल इंडिया ने पाया कि हिंदी में ‘कंटेंट कंजम्शन’ साल-दर-साल 94 फीसदी की रफ्तार से बढ़ रही है, जबकि इसके मुकाबले अंग्रेजी में यह बढ़ोतरी 19 प्रतिशत है। माइक्रोसॉफ्ट के एक सर्वेक्षण का कहना है कि स्थानीय भाषाओं में इंटरनेट पर सामग्रियों की तलाश करने वालों की तादाद तेजी से बढ़ रही है। इंटरनेट पर देशज भाषाओं का विस्तार यकीनन उन दुराग्रहों को दूर करेगा, जो भारतीय भाषाओं में समानता-सूत्र स्थापित करने की राह में रोड़ा साबित हुए हैं। यह एक सुखद बदलाव का संकेत है। 

जान लें, हिंदी भी तभी बुलंदी पर पहुंच पाएगी, जब हम उसके कपाट सावधानीपूर्वक अन्य भारतीय भाषाओं के लिए खोलेंगे। शुरुआत हो चुकी है, चाहें तो आप भी इस यज्ञ में हिस्सा ले सकते हैं। 

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@shekharkahin 
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