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हमारे शहर हैं या गैस चैम्बर!

नोएडा से नई दिल्ली जाते वक्त हमेशा की तरह यमुना के ऊपर से गुजर रहा था, पर उस दिन न जाने कैसे होंठों पर अथर्ववेद की यह ऋचा तिरने लगी- पृथिवी शान्तिरन्तरिक्षं शान्तिद्र्यौ: शान्तिराप: शान्तिरोषधय:...

हमारे शहर हैं या गैस चैम्बर!
शशि शेखरSat, 18 Nov 2017 07:23 PM
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नोएडा से नई दिल्ली जाते वक्त हमेशा की तरह यमुना के ऊपर से गुजर रहा था, पर उस दिन न जाने कैसे होंठों पर अथर्ववेद की यह ऋचा तिरने लगी-

पृथिवी शान्तिरन्तरिक्षं शान्तिद्र्यौ: शान्तिराप: शान्तिरोषधय: शान्तिर्वनस्पतय: शान्तिर्विश्वे मे देवा: शान्ति: सर्वे मे देवा: शान्ति: शान्ति: शान्ति: शान्तिभि:।

अर्थात् पृथ्वी कल्याणकारिणी हो, अंतरिक्ष कल्याणकारी हो, स्वर्गलोक कल्याणकारी हो, जल कल्याणकारी हो, औषधियां कल्याणकारिणी हों, वनस्पति जगत कल्याणकारी हो, सभी देवता कल्याणकारी हों, कल्याण के द्वारा मंगलकारी हों। 

ऋचा पूरी होने से पहले ही सदानीरा की बदहाली मन को उदासी से भर देती है। यमुना के पाट दिल्ली में बहुत चौड़े तो पहले भी नहीं थे, पर गहराई इतनी थी कि कभी गालिब ने कलकत्ता तक जलयात्रा की शुरुआत यहीं से की थी। बचपन में सुना करते थे कि बृज में यमुना के कई घाट ऐसे हैं, जहां एक के ऊपर एक खड़े दर्जन भर हाथी डूब जाएं। यह दुर्भाग्य नहीं, तो और क्या है कि अब यह महान नदी उत्तर भारत के सबसे बड़े नाले में तब्दील हो गई है? गई गरमियों में आगरा गया था। यमुना उन दिनों इतनी क्षीण थी कि तमाम बच्चे एक-दूसरे को पकड़कर नदी के गंदले जल को पार करते दिखाई पडे़। मन में क्षोभ उभरा- क्या यह वही यमुना है, जिसमें कभी एक के ऊपर एक खड़े दर्जन भर हाथी डूब जाते थे? कभी ऐसा रहा होगा और तभी हमारे पुरखों में यह कहने का आत्म-विश्वास उपजा होगा कि जब गंगा-यमुना सूख जाएंगी, तो प्रलय हो जाएगा। यमुना तो सूख चली और गंगा में आठ महीने टापू नजर आते हैं। ऊपर से हर ओर पसरी जहरीली हवा और धुंध। 

प्रकृति-पूजकों के देश का यह हाल!
इसीलिए आला अदालत और राष्ट्रीय हरित अधिकरण सहित तमाम सामाजिक संस्थाएं एक सुर से चिल्ला रही हैं कि यह मौसम का आपातकाल है, सरकारें चेत जाएं। पर नहीं, केंद्र और राज्य सरकारों के आला नेता मिल-बैठकर फैसला लेने की बजाय गेंद एक-दूसरे के पाले में डाल रहे हैं। क्या वे नहीं जानते कि अगर यही हाल रहा, तो कुछ सालों में कुदरत हममें से किसी को भी नहीं बख्शेगी? उसकी नजर और निजाम में राजा-रंक एक समान हैं। ऐसे में, प्रश्न उठने लाजिमी हैं- भारत में प्रदूषण चुनावी मुद्दा क्यों नहीं बनता? हम कब तक विकास के नाम पर विनाश को न्योतते रहेंगे?

इन सवालों पर गौर फरमाना इसलिए जरूरी हो गया है, क्योंकि अब हालात हद से ज्यादा बिगड़ चुके हैं। गुजरे बुधवार को दुनिया के 184 देशों के करीब 15 हजार वैज्ञानिकों ने एक स्वर से चेतावनी दी कि अगर फौरन जरूरी कदम नहीं उठाए गए, तो धरती नाम का यह ग्रह ऐसे नुकसान का शिकार हो जाएगा, जिसकी भरपाई नामुमकिन होगी। इन वैज्ञानिकों ने ‘बायोसाइंस’ जर्नल के आर्टिकल ‘वल्र्ड साइंटिस्ट्स वॉर्निंग टु ह्यूमनिटी : अ सेकेंड नोटिस’ पर दस्तखत किए हैं। वैज्ञानिकों के मुताबिक, पहली चेतावनी 25 वर्ष पहले जारी की गई थी, पर उसकी अनदेखी कर जरूरी पेड़ों की कटाई, ओजोन परत में छेद और मौसमी बदलावों पर आवश्यक कदम नहीं उठाए गए। हालात बद से बदतर होते चले गए। नतीजतन, ताजा पानी की मात्रा में 26 फीसदी की गिरावट के साथ 30 लाख एकड़ जंगलों का सफाया हो गया। इस एक-चौथाई सदी के दौरान स्तनधारी जीवों और पक्षियों की संख्या में 20 प्रतिशत तक की कमी हो गई। 

मनुष्य के लिए ये जीव, जंगल और जल कितने जरूरी हैं, बताने की जरूरत नहीं।
विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक, दुनिया भर में हर साल करीब सवा करोड़ लोग पर्यावरण के क्षरण की वजह से अकाल काल के गाल में समा जाते हैं। इनमें से 65 लाख तो सिर्फ वायु प्रदूषण की वजह से मारे जाते हैं। यह आंकड़ा विश्व-भर में होने वाली कुल मौतों का 11.6 फीसदी है। यहां यह जान लेना जरूरी है कि पृथ्वी की 92 प्रतिशत आबादी ऐसे इलाकों में सांस ले रही है, जहां की वायु उनकी सेहत के लिए सुरक्षित नहीं रह बची है। यही कारण है कि सन 2012 में चीन में करीब 10 लाख लोग वायु प्रदूषण से जुड़ी बीमारियों से मारे गए, वहीं हमारे देश में यह आंकड़ा छह लाख के करीब था। दूसरों के दुख को खुद के लिए सांत्वना मानने वाले चाहें तो राहत की सांस ले सकते हैं कि चीन के हालात हमसे बदतर हैं। हालांकि, उन्हें जान लेना चाहिए कि कुदरत देशों की सरहदें नहीं पहचानती। भरोसा न हो, तो उत्तर भारत और पाकिस्तान के प्रमुख शहरों पर नजर डाल देखिए। 
दोनों ओर एक सी बदहाली पसरी हुई है।

वायुमंडल संबंधी परिस्थितियों पर नजर रखने वाली अमेरिका की शीर्ष संस्था ‘नेशनल ओशनिक ऐंड एटमोस्फेरिक एडमिनिस्ट्रेशन’ के  वैज्ञानिकों ने दावा किया है कि इन इलाकों को अगले कई महीनों तक धुंध भरे खतरनाक प्रदूषण का सामना करना पडे़गा, अभी तो डरावने मौसम की शुरुआत भर है। उनका निष्कर्ष है कि सर्दी और स्थिर हवाओं का संयोग प्रदूषण को और विकराल साबित करेगा। इससे सारा इलाका खतरनाक धुंध की चादर में लिपट जाएगा। हवाई और ट्रेन सेवाएं मौसम की मार से इन्हीं दिनों छितराई हुई हैं। सड़कों पर धुंध के चलते आए दिन दुर्घटनाएं हो रही हैं। अगर यह स्थिति लंबी खिंची तो? सोचकर मन कांप उठता है।

जो लोग दिल्ली और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र की जहरीली हवा पर स्यापा कर रहे हैं, उन्हें बताना जरूरी है कि उनके चारों ओर गैस चैम्बर उभर आए हैं। पिछले साल दुनिया के जिन 20 शहरों को सर्वाधिक प्रदूषित आबोहवा वाला माना गया, उनमें ग्वालियर, इलाहाबाद, पटना, रायपुर, दिल्ली, लुधियाना, कानपुर, खन्ना, फिरोजाबाद और लखनऊ शामिल हैं, यानी सर्वाधिक प्रदूषित शहरों में आधे तो उत्तर भारत में ही हैं। 

आप इसे प्रकृति का आपातकाल नहीं, तो क्या कहेंगे? 
यही वजह है कि देश की आला अदालत से लेकर आम आदमी तक केंद्र और राज्य सरकारों को बड़ी उम्मीद से देख रहे हैं, पर हो क्या रहा है? दिल्ली, हरियाणा और पंजाब के मुख्यमंत्री लंबे समय तक ‘ट्विटर-वार’ में व्यस्त रहे। कई दिन बाद दिल्ली और हरियाणा के मुख्यमंत्री मिले भी, पर पंजाब के अमरिंदर सिंह कन्नी काट गए। क्या राजनीतिक वैमनस्य और निजी स्वार्थ उन लोगों की जिंदगियों से अधिक महत्वपूर्ण हैं, जिनके वोटों पर आप राज करते हैं? हिटलर ने उन यहूदियों के लिए गैस चैम्बर बनाए थे, जिनसे वह नफरत करता था। इसी के चलते इतिहास ने उसे नाबदान में डाल दिया, जहां सिर्फ सिरफिरे खलनायकों का बसेरा है। हमारे हुक्मरानों ने प्रकृति के दोहन में भागीदारी निभाकर तमाम छोटी-बड़ी आबादियों को गैस चैम्बर में तब्दील कर दिया। कानून भले ही उनकी अनदेखी करे, पर काल के इंसाफ से आजतक कोई नहीं बचा है, आगे भी नहीं बच सकेगा।

भूले नहीं। हम उन लोगों के वंशज हैं, जो प्रकृति के तत्वों में कल्याण ढूंढ़ते आए हैं। आज वही कल्याणकारी तत्व अपने कल्याण के लिए हमारी ओर टकटकी लगाए हैं। अब यह बताने की जरूरत तो नहीं कि हम उनसे हैं, वे हमसे नहीं और उनकी रक्षा में ही हमारी सुरक्षा है।

@shekharkahin 
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