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घाटी की नई उम्मीद

ऐसे हालात में जब जम्मू-कश्मीर की चर्चा महज नकारात्मक खबरों के लिए ही ज्यादा हो, वहां की कला-संस्कृति-विरासत और खूबसूरती की चर्चा भी जुबान पर कम ही आती हो, वहां के 14 युवाओं का सिविल सेवाओं के लिए चयन...

घाटी की नई उम्मीद
हिन्दुस्तानThu, 01 Jun 2017 07:20 PM
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ऐसे हालात में जब जम्मू-कश्मीर की चर्चा महज नकारात्मक खबरों के लिए ही ज्यादा हो, वहां की कला-संस्कृति-विरासत और खूबसूरती की चर्चा भी जुबान पर कम ही आती हो, वहां के 14 युवाओं का सिविल सेवाओं के लिए चयन भरोसा जगाता है कि सब कुछ नकारात्मक ही नहीं है। जम्मू-कश्मीर ने हमें यह भरोसा बार-बार दिया है। कभी इन्हीं परीक्षाओं में पिछले साल दूसरी रैंकिंग पाने वाले अतहर आमिर उल शफी के रूप में तो कभी ऑफ स्पिनर परवेज रसूल जैसे क्रिकेट सितारे के रूप में। कभी ‘दंगल’ की  जायरा नसीम के रूप में जो फिल्म की शूटिंग के साथ-साथ पढ़ाई करती है और घाटी की अशांति के सबसे लंबे दौर में भी दसवीं बोर्ड की परीक्षा में 92 प्रतिशत अंक ले आती है। यह उसी दौर की परीक्षाएं थीं जिन्हें आयोजत कराना भी खासा चुनौती पूर्ण काम बन गया था, लेकिन इतने विपरीत हालात के बावजूद उत्साह से लबरेज 99 प्रतिशत बच्चे इन परीक्षाओं में न सिर्फ शामिल हुए, बल्कि अच्छे नतीजे भी दिए। 

दरअसल यह कश्मीर की नई करवट है, जो पिछले कुछ साल में दिखाई दी है। हमारे राजनेता और नियामक इस नई करवट का अनुभव कब कर पाते हैं यह अलग बात है। यह करवट बताती है कि अपने सौंर्दर्य के साथ केसर और सेब के लिए भी अपना लोहा मनवा लेने वाला कश्मीर अब अपनी मेधा का लोहा मनवाने पर अमादा है। उसके अंदर की यह बेचैनी उन घावों से निकली टीस का नतीजा है जो इसे दशकों से सालती आ रही है। यह बेचैनी उन छलावों से बाहर आने की भी है जो अब तक इसने झेले हैं। यह वही कश्मीर है जहां  न तो वर्षों से पूरी तरह से स्कूल खुल पाए, न ठीक से पढ़ाई ही हुई। लेकिन यहां के बच्चों और युवाओं में विपरीत हालात का शिकार होने के बावजूद पढ़ने, कुछ नया करने, अपना निजाम खुद गढ़ने-बदलने की जबर्दस्त जिजीविषा है। ये आतंक और खौफ के मंजर से खौफजदा नहीं अपनी मेधा और उसके जरिए होने वाले बदलाव के प्रति आश्वस्त हैं। यह आश्वस्ति कट्टरपंथियों के मसूंबों पर पानी फेर पाने की है। यह सब उसी कश्मीर का सच है जहां के सरकारी स्कूलों की जमीनी रिपोर्ट खासी निराशाजनक है। एक साल पहले की यह सर्वे रिपोर्ट बताती है कि किस तरह वहां माहौल की आड़ लेकर सरकारों ने कुछ नहीं किया और शैक्षणिक ढांचा पूरी तरह ध्वस्त होने दिया। हजारों स्कूलों में मूलभूत सुविधाएं तक नहीं दिखीं। 62.58 प्रतिशत स्कूलों के पास कोई विकास योजना नहीं थी। साढ़े सात प्रतिशत के पास प्लान था तो वे इसे दिखा नहीं सके। महज 29.7 फीसदी स्कूल ही थे जो प्लान तो दिखा सके, लेकिन ये भी बहुत आश्वस्त नहीं करते। सरकार की पहल पर ‘प्रथम’ की यह सर्वेक्षण रिपोर्ट हतप्रभ करने वाली है। 

लेकिन सारे विपरीत हालात और सरकारों के हाथ पर हाथ धरे बैठे रहने के बावजूद यह सच उत्साहवर्धक है कि हमारे युवा अपनी ही नहीं कश्मीर की भी सूरत बदलने को बेचैन हैं। पढ़ाई और प्रतियोगी परीक्षाओं में इस तरह अव्वल निकलना यही बता रहा है। वल्र्ड किक बॉक्सिंग चैंपियनशिप में दुनिया से अपना लोहा मनवाने वाली बांदीपुरा की नौ साल की तजामुल इस्लाम इसी कड़ी में है जो राज्य स्तरीय मुकाबले में स्वर्ण जीतने के बाद कहती है कि वह प्रतिद्वंद्वी के डील डौल से डर गई थी, लेकिन युक्ति से मुकाबला जीत लिया। उसने मान लिया था कि डील-डौल से कोई फर्क नहीं पड़ता, प्रदर्शन कर बेस्ट दिखाने की जरूरत है। उसने वही कर दिखाया। जम्मू-कशमीर का हर युवा अब यही करने-दिखाने को बेचैन है। यह बेचैनी ही यहां की सूरत भी बदलेगी और सीरत भी।

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