नमस्कार, मैं नारायण दत्त बोल रहा हूं
वह 18 अक्तूबर, 2007 की मरियल दोपहर थी। अचानक मेरे मोबाइल फोन की घंटी बजी। कॉल रिसीव करते ही आवाज आई- ‘नमस्कार, मैं हैदराबाद से नारायण दत्त बोल रहा हूं।’ हैदराबाद से नारायण दत्त! दो सेकंड...
वह 18 अक्तूबर, 2007 की मरियल दोपहर थी। अचानक मेरे मोबाइल फोन की घंटी बजी। कॉल रिसीव करते ही आवाज आई- ‘नमस्कार, मैं हैदराबाद से नारायण दत्त बोल रहा हूं।’ हैदराबाद से नारायण दत्त! दो सेकंड की चुप्पी के बाद दूसरा वाक्य था- ‘मैं हैदराबाद से नारायण दत्त तिवारी बोल रहा हूं। आज मेरा जन्मदिन है। सोचा, आपका आशीर्वाद ले लूं।’ मैं पानी-पानी, समझ नहीं आया कि क्या बोलूं?
सकपकाए स्वर में उन्हें बधाई दी। एक-डेढ़ मिनट की बातचीत का मर्म देर रात तक समझ नहीं आया। उन्होंने फोन क्यों किया था? क्या वह कोई संदेश दे रहे थे या यह एक बुजुर्ग का कौतुक भर था? इसके पहले मैंने कभी उन्हें जन्मदिन की बधाई नहीं दी थी। फिर अचानक ऐसा क्यों? दोस्तों और दुश्मनों को अचानक चौंका देना तिवारी जी का प्रिय शगल था। आज के नेता लोगों को वश में करने के लिए कभी फुफकारते, तो कभी पुचकारते हैं। इसके विपरीत नारायण दत्त तिवारी की विनम्रता ही उनका हथियार थी। इससे सामने वाला निरुत्तर ही नहीं, नतमस्तक हो जाता था।
वर्षों पहले अक्तूबर की उस मरियल दोपहर यह सोचा भी न जा सकता था कि अपनी रुखसती के लिए वह उसी तारीख को चुनेंगे, जिस दिन वह जन्मे थे।
मेरी उनसे पहली मुलाकात जद्दोजहद भरे माहौल में हुई थी। 2002 में मैंने टेलीविजन छोड़ एक समाचारपत्र की ओर रुख किया था। कार्यभार ग्रहण करने से पूर्व तय हो गया था कि संचालक गण मुझे ‘फ्री हैंड’ देंगे। तिवारी जी उन दिनों उत्तराखंड के मुख्यमंत्री हुआ करते थे। वहां से प्रकाशित दो प्रमुखतम अखबारों के पहले पन्ने पर हर रोज उनकी तस्वीर होती। देहरादून के पहले दौरे में मैंने साथियों से आग्रह किया कि बिना पर्याप्त ‘न्यूज वैल्यू’ मुख्यमंत्री का फोटो प्रथम पृष्ठ पर आए दिन छापना पाठकों के साथ नाइंसाफी है।
साथियों ने सुझाव मान लिया, पर यह सूचना तिवारी जी तक भी पहुंचा दी। संपादकों के साथ अक्सर ऐसा होता है।
शायद कुछ नेताओं को भी यह बात अखरी। उन्होंने तिवारी जी के कान भरे। मुख्यमंत्री महोदय ने अखबार के डायरेक्टर को फोन कर इसकी शिकायत की, जो मुझ तक पहुंचा दी गई। मैंने उसे हवा में उड़ा दिया। कुछ दिनों बाद तिवारी जी ने बोर्ड के चेयरमैन को फोन किया। चेयरमैन ने उनका फोन काटते ही मुझे रिंग किया और कहा कि उनसे हमारे पारिवारिक संबंध हैं। वह एक संभ्रांत नेता हैं। उनकी खबरों को उचित ‘ट्रीटमेंट’ नहीं मिल रहा है। मैंने वजह बताई, तो वह चुप्पी लगा गए। हालात जस के तस बने रहे। कुछ दिनों बाद नारायण दत्त जी ने पुन: चेयरमैन को फोन कर कहा कि इस बार मैं आपसे कोई शिकायत नहीं कर रहा। मैं जानता हूं कि आप भी मेरी तरह बुजुर्ग और लाचार हो गए हैं। जैसे मेरी कांग्रेस में कोई नहीं सुनता, वैसे ही आपकी आपके अखबार में कोई नहीं सुनता। हम लोगों को इस समय-परिवर्तन का सम्मान कर अब संतोष भाव अपना लेना चाहिए।
तिवारी जी की विनम्रता हथियार का काम कर चुकी थी। आग-बबूला चेयरमैन ने मुझे तत्काल फोन लगाकर कहा कि क्या आप यह संदेश दे रहे हैं कि मेरी अपने ही अखबार में कोई हैसियत नहीं है। मैंने उनसे कहा कि मुझे दो दिन का समय दें, मैं ही तिवारी जी से बात कर लूंगा। चेयरमैन ‘फ्री हैंड’ के वायदे से बंधे थे। मुझे स्वीकृति मिल गई।
देहरादून के मुख्यमंत्री आवास में वह मुलाकात रोचक थी। वहां जाते ही मैंने उनसे कहा कि आप कभी नेशनल हेराल्ड से जुड़े थे। इस नाते आप मेरी पीढ़ी के ‘सुपर सीनियर’ हुए। क्या आपको लगता है कि आज का मीडिया वक्त के साथ बदल रहा है? तिवारी जी की विद्वता मुखरित हो चली। तमाम देशी-विदेशी समाचार माध्यमों का हवाला देते हुए उन्होंने कहा कि मैं मानता हूं कि अखबारों को नीरस और बोझिल नहीं होना चाहिए। पहले पेज पर कम से कम एक फोटो या खबर तो ऐसी होनी चाहिए, जो लोगों के ‘मूड’ को सुबह ही सुबह ‘फ्रेश’ कर सके।
मैंने मुस्कराते हुए उस दिन के अखबार के पहले पन्ने को दिखाते हुए कहा कि देखिए, आज हमने ऐश्वर्या राय का पुरस्कार प्राप्त करते हुए यह फोटो छापकर अच्छा किया न? उन्होंने जोरदार सहमति जताई। मौके का फायदा उठाते हुए मैंने कहा कि मैं अगर इस पर रोज बुजुर्ग नेताओं की तस्वीर छापूंगा, तो इस अखबार की क्या दशा बनेगी? उनके चेहरे पर एक क्षण को धूप-छांव पसरी। वह समझ गए कि उन्हें उनकी शिकायत का माकूल उत्तर मिल गया है। इसके बाद कभी उन्होंने किसी से मेरी कोई शिकायत नहीं की।
अप्रिय, पर न्यायसंगत तथ्यों से तालमेल बैठा लेना उनकी भली आदत थी। ऐसे मामलों में वह सत्तानायक की जगह समदर्शी हो जाते।
मैं जब भी उत्तराखंड जाता, उनसे मिलने के प्रयास करता। वह पर्याप्त समय देते। उस दौरान आजादी की लड़ाई, महापुरुषों, स्वतंत्रता के बाद के सफर, सामाजिक बदलावों, अंतरराष्ट्रीय मुद्दों आदि पर उनसे बहुत कुछ सीखने को मिला। वह एक चलता-फिरता विश्वविद्यालय थे।
हम नेताओं को महज उनकी राजनीति के आधार पर देखते हैं। उनकी विद्वता और संघर्ष अक्सर आम आदमी की नजर से ओझल रहते हैं। कई देशों में राजनेता सत्ता के कामकाज से मुक्त होने के बाद शैक्षिक संस्थाओं और सामाजिक गोष्ठियों में भाषण देते हैं। भारत में अभी इसका प्रचलन जोर नहीं पकड़ सका है। इससे नई पीढ़ी ‘लीडर्स की संघर्ष गाथा’ और सामयिक अंतद्वर्ंद्वों को समझने में नाकाम हो रही है।
अक्सर सोचता हूं कि क्या नारायण दत्त तिवारी उतना हासिल कर सके, जिसके वह हकदार थे? यकीनन, किस्मत ने उनके साथ कई बार नाइंसाफी की। राजीव गांधी की दुर्भाग्यजनक हत्या के बाद सभी मानकर चल रहे थे कि वह देश के प्रधानमंत्री होंगे, पर वह बहुत कम अंतर से लोकसभा का चुनाव हार गए। उनकी जगह पी वी नरसिंह राव को मौका मिला, जो राजनीतिक संन्यास की राह पर थे।
तिवारी जी के अंतिम वर्षों में ऐसी कुछ घटनाएं हुईं, जिन्होंने उनकी धवलता पर आघात पहुंचाया। मैं विनम्रतापूर्वक कहना चाहूंगा कि नामचीन हस्तियों की छवि को अक्सर उनकी कुछ निजी बातों से जोड़कर धूमिल करने का प्रयास किया जाता है। हमें उनके उस पक्ष को नजरअंदाज कर खुद को उनके अवदानों तक सीमित रखना चाहिए। हम किसी ‘बड़े’ आदमी को उसके निजी क्रिया-कलाप से नहीं, बल्कि उन वजहों से जानते हैं, जिनके कारण लाखों लोगों की जिंदगी में उजाला होता है।
नारायण दत्त तिवारी ऐसे ही लाइट हाउस थे। उनका निधन एक भरे-पूरे युग का अवसान है।