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हम कोरोना को भी हरा देंगे

साल 1983 में आगरा विश्वविद्यालय से मैंने एमडी, पैथोलॉजी की उपाधि ली थी। मेडिकल की अपनी पढ़ाई के आठ वर्षों में न तो कोरोना और न ही स्वाइन फ्लू जैसी बीमारियों के बारे में पढ़ने का अवसर मिला। ये उस दौर की...

हम कोरोना को भी हरा देंगे
एल एम उप्रेती, पूर्व निदेशक, चिकित्सा व स्वास्थ्य विभाग, उत्तराखंडThu, 19 Mar 2020 01:43 AM
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साल 1983 में आगरा विश्वविद्यालय से मैंने एमडी, पैथोलॉजी की उपाधि ली थी। मेडिकल की अपनी पढ़ाई के आठ वर्षों में न तो कोरोना और न ही स्वाइन फ्लू जैसी बीमारियों के बारे में पढ़ने का अवसर मिला। ये उस दौर की बीमारियां थीं भी नहीं। हमारी पढ़ाई के दौरान छोटी माता (स्मॉल पॉक्स) को लेकर खूब बातें होती थीं। हालांकि इसके लिए वैक्सीन पहले ही तैयार हो गई थी और वर्ष 1979 में विश्व को स्माल पॉक्स से मुक्त घोषित कर दिया गया था। स्मॉल पॉक्स के विषाणु के बाद जो विषाणु सबसे अधिक चर्चा में रहा, वह पोलियो वायरस था।

पोलियो रोग भी एक विश्वव्यापी समस्या के रूप में सामने आया और लगभग डेढ़ सौ वर्षों तक इसके प्रभाव से कितने ही लोग विकलांग हुए और बड़ी संख्या में मौतें भी हुईं। वैज्ञानिकों ने इसके विरुद्ध भी वैक्सीन तैयार की और धीरे-धीरे पोलियो का भी दायरा बहुत सिमट गया। पश्चिमी देश पोलियो से जल्दी मुक्ति पा गए। वर्ष 1995 में पल्स पोलियो टीकाकरण अभियान का प्रारंभ हुआ और वर्ष 2011 में भारत में पोलियो का अंतिम मामला प्रकाश में आया। अब भारत भी पोलियो से मुक्त है। पोलियो दुनिया में अब मात्र एक-दो देशों में ही बच गया है, यानी जल्द ही विश्व भी पोलियो मुक्त हो जाएगा। 


1980 के दशक में अनेक प्रतिभा संपन्न राष्ट्र अपनी मारक क्षमता को बढ़ाने की ओर विशेष प्रयास करते नजर आए। इनमें विषाणुमारक वायरसों की खोज भी अहम थी। इसी दौर में एचआईवी नामक विषाणु की भी उत्पत्ति हुई, जिसमें मनुष्य की प्रतिरोधक क्षमता को समाप्त कर देने की शक्ति थी। इसकी उत्पत्ति को लेकर अनेक मत हैं। उनमें से एक यह भी है कि इसे एक खास रणनीति के तहत किसी लैब में विकसित किया गया।

वर्ष 1983 से अब तक मैं स्वयं भी एड्स के खिलाफ जंग में अनेक प्रकार से जुड़ा रहा हूं और कह सकता हूं कि विकसित देशों से लेकर विकासशील देशों तक एड्स से गहरी चोट पहुंची। इसकी वजह से बड़ी संख्या में लोग अकाल मृत्यु को प्राप्त हुए। एड्स एक महामारी के रूप में सामने आई। चार दशकों तक आतंक का पर्याय बन चुके एड्स का प्रकोप अब धीरे-धीरे अवसान की ओर है। एचआईवी एक धीमा वायरस था। शरीर में प्रवेश के बाद वास्तविक लक्षण आने में कई वर्षों का समय लग जाता था। एक बार एचआईवी पॉजिटिव हो जाने के बाद मृत्यु होना निश्चित था। हालांकि यह अच्छी बात है कि विगत वर्षों में चिकित्सा जगत में एड्स के खिलाफ जंग में अनेक एंटीवायरस औषधियों की खोज कर ली गई और एड्स पर नियंत्रण हो रहा है। जागरूकता और सावधानी बढ़ी है। एड्स का आतंक अब पहले जैसा नहीं है। 


इसके अलावा विगत दशकों में उभरी बीमारियों में सार्स एक जानलेवा बीमारी थी। नवंबर 2002 से जुलाई 2003 के बीच दक्षिणी चीन से इसका प्रकोप शुरू हुआ। 37 देश इसकी चपेट में आ गए। 8,000 लोग संक्रमित हुए और इनमें से 775 लोगों की मौत हुई। सार्स एक प्रकार के कोरोना जैसे वायरस के कारण ही हुआ था। अप्रैल 2009 में स्वाइन फ्लू अमेरिका से पहली बार प्रारंभ हुआ और अप्रैल 2010 तक स्वाइन फ्लू के छह करोड़ मामले सामने आए। स्वाइन फ्लू ने सांस लेने के तंत्र को अपना शिकार बनाया। 


बीते दिसंबर में चीन के वुहान शहर में एनसीओवी-19, जिसे अब कोविड-19 का नाम दिया गया है, का पहला मामला सामने आया। यह अत्यंत घातक विषाणु है। यह श्वास तंत्र का विषाणु है, जो श्वसन-तंत्र की कोशिकाओं में बहुत जल्दी विकसित होता है। इसके संक्रमण से सांस लेने में परेशानी होने लगती है और न्यूमोनिया हो जाता है। एक बार न्यूमोनिया विकसित हो जाने पर समस्या बहुत अधिक बढ़ जाती है, क्योंकि इस विषाणु के लिए न एंटीवायरस है, न दवा, न ही वैक्सीन। मात्र तीन महीने में चीन से हांगकांग, इंडोनेशिया, इटली, ईरान समेत 150 से अधिक देशों में यह फैल गया है। 


नया विषाणु जब शरीर में प्रवेश करता है, तो इसके विरुद्ध कोई प्रतिरोधक क्षमता यदि शरीर में नहीं होती है, तो शरीर में प्रवेश के साथ ही यह जल्दी ही अपने जैसे अनगिनत नए विषाणु बनाने लगता है। जिनकी रोग प्रतिरोधक क्षमता अच्छी होती है, उनका शरीर इस रोग का मुकाबला बेहतर तरीके से कर लेता है। यह विषाणु शरीर में नाक, आंख व मुंह से प्रवेश करता है। हवा के माध्यम से फोमाइट, जो खांसने से लगभग एक या दो मीटर दूर तक जा सकते हैं, संक्रमण का मुख्य कारण होते हैं। प्रवेश के बाद शरीर में इन वायरस के विरुद्ध एंटीबॉडी का निर्माण होता है, तब ये वायरस शरीर में समाप्त होते हैं, किंतु तब तक ये सांस के तंत्र को अत्यधिक हानि पहुंचा चुके होते हैं। इस विषाणु के कारण मृत्यु दर तीन से पांच प्रतिशत तक आंकी गई है। 


संचार माध्यमों के विकास के साथ ही, रोगों की रोकथाम तथा चिकित्सा के क्षेत्र में भी अद्वितीय प्रगति हुई है। संक्रामक रोगों को नियंत्रित करने में वैज्ञानिकों को बड़ी सफलताएं मिली हैं। ऐसा एंटीबायोटिक की खोज से ही संभव हो सका है। प्लेग, हैजा जैसी बीमारियों पर नियंत्रण हुआ है। हालांकि इसका एक अन्य पक्ष भी है, एंटीबायोटिक के अत्यधिक प्रयोग के कारण अनेक जीवाणु एंटीबायोटिक के प्रहार को सहन करने में सक्षम होने लगे हैं, जिन्हें अब सुपरबग कहा जाने लगा है। तब यह भी कहा जाने लगा है कि इन सुपरबग का प्रयोग जैविक हथियारों के रूप में किया जा सकता है।


बहरहाल, चिकित्सा विज्ञान ने लगभग सभी बड़ी बीमारियों को पराजित किया है। आज प्राथमिकता कोरोना वायरस से बचाव की है। हर आदमी की जिम्मेदारी है कि वह खुद और दूसरों को संक्रमण से बचाने में अपना योगदान दे। रोग की रोकथाम या उपचार के क्षेत्र में सकारात्मक प्रयोग हो रहे हैं। मेडिकल साइंस जल्द इसका भी प्रभावी इलाज तलाश लेगी और पहले की तरह ही इस बीमारी को भी हम हरा सकेंगे।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

 

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