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जमानत और सवाल

मालेगांव विस्फोट कांड के आरोपी नंबर नौ लेफ्टिनेंट कर्नल श्रीकांत पुरोहित को सुप्रीम कोर्ट से जमानत मिलना कोई ऐसी खबर नहीं है, जिस पर आश्चर्य जताया जाए। अप्रैल में इसी कांड की प्रमुख अभियुक्त साध्वी...

जमानत और सवाल
हिन्दुस्तानMon, 21 Aug 2017 10:43 PM
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मालेगांव विस्फोट कांड के आरोपी नंबर नौ लेफ्टिनेंट कर्नल श्रीकांत पुरोहित को सुप्रीम कोर्ट से जमानत मिलना कोई ऐसी खबर नहीं है, जिस पर आश्चर्य जताया जाए। अप्रैल में इसी कांड की प्रमुख अभियुक्त साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर को जमानत मिलने के बाद यह लगभग तय हो गया था कि पुरोहित भी जल्द ही बाहर आ जाएंगे। मुंबई उच्च न्यायाल ने प्रज्ञा ठाकुर को जमानत देते हुए कहा था कि प्रथम दृष्टि में उनके खिलाफ कोई आरोप नहीं बनता, पर उसी अदालत ने पुरोहित को जमानत देने से इनकार कर दिया था। सो अब उन्हें भी सुप्रीम कोर्ट से जमानत मिल गई है। लेकिन इसके साथ कई महत्वपूर्ण सवाल उठ खड़े हुए हैं, जिनके जवाब देश की शीर्ष जांच एजेंसियों को ही नहीं, पूरे देश को ढूंढ़ने चाहिए। मालेगांव विस्फोट 2008 में हुआ था, तब से अब तक पूरे नौ साल हो गए हैं और सच यही है कि इस मामले में अभी आरोप पत्र को अंतिम रूप नहीं दिया जा सका है। विस्फोट के बाद मामले की जांच का काम आतंकवाद विरोधी दस्ते को दिया गया, था। उसने शुरुआती जांच के बाद आरोप पत्र दखिल कर दिया था। लेकिन उसके तीन साल बाद यह ही जांच राष्ट्रीय जांच एजेंसी यानी एनआईए के हवाले कर दी गई, जिससे लगभग सारा काम नए सिरे से शुरू हुआ, जो अब तक जारी है। लेकिन इस बीच यह धारणा भी लगातार व्यक्त की जा रही है कि केंद्र में सरकार बदलने के बाद जांच एजेंसियों का रवैया इस मामले में बदल गया है। इस मामले में सरकारी वकील रहीं रोहिणी सलियन ने तो इसके लिए जांच एजेंसियों पर बाकायदा आरोप लगाया था। सच जो भी हो, जांच एजेंसियों को इस मामले में अपना पक्ष रखना चाहिए। उन्हें यह बताना ही चाहिए कि जिन्हें इतने साल तक जमानत नहीं लेने दी गई, उनकी जमानत का विरोध करना अचानक क्यों बंद कर दिया गया?

इस मामले में तो अभी आरोपियों को जमानत ही मिली है, हमने पिछले दिनों आतंकवादी घटनाओं के ऐसे कई मामले भी देखे हैं, जिनमें पूरा मामला चलने के बाद आरोपी अदालत से बरी हो गए। अदालत ने उन्हें किसी भी तरह से दोषी नहीं पाया। यह दोनों ही तरह से जांच एजेंसियों की विफलता है। अगर वे वाकई दोषी थे, तो एजेंसी अपने आरोप क्यों नहीं साबित कर पाई? और अगर वे निर्दोष थे, तो इन सबके कारण मान-सम्मान और आर्थिक स्तर पर हुए उनके नुकसान की भरपाई कैसे होगी? इसकी पूरी तरह भरपाई तो नहीं हो सकती, लेकिन हमें क्षतिपूर्ति की कोई व्यवस्था तो बनानी चाहिए। बेहतर हो कि इस क्षतिपूर्ति का भार जांच एजेंसी के कंधों पर भी डाला जाए, जो उसे जिम्मेदार बनाने का काम भी करेगा। यही सवाल मालेगांव विस्फोट के मामले में भी उठने लगे हैं।

मालेगांव विस्फोट एक ऐसा कांड था, जिसका पूरा सच हम अभी भी नहीं जानते, लेकिन एक बात तो साफ है कि शुरुआत से ही इस मामले का राजनीतिक इस्तेमाल हो रहा था। एक तरफ इसके लिए ‘भगवा आतंकवाद’ जैसे शब्द गढ़े गए थे, तो दूसरी तरफ जांच एजेंसियों के दुरुपयोग के तर्क भी दिए गए। सच जो भी हो, लेकिन आतंकवाद जैसे संवेदनशील मसले में भी जांच एजेंसियों के लिए इस तरह की धारणा बन जाए, तो यह हर तरह से दुर्भाग्यपूर्ण है। आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई देश और मानवता के खिलाफ खड़े लोगों से लड़ाई है। इसमें दलगत राजनीति आड़े नहीं आनी चाहिए। इसके लिए बनी जांच एजेंसियों को पूरी तरह स्वतंत्रता और स्वायत्तता मिलनी चाहिए। और इन विशेष जांच एजेंसियों का हश्र भी वही नहीं होना चाहिए, जो सीबीआई का हुआ। आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई हम किसी ‘पिंजरे के तोते’ के भरोसे नहीं लड़ सकते।

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