महाराष्ट्र की चिंता
महाराष्ट्र की राजनीति में आरोप-प्रत्यारोप की बाढ़ स्वाभाविक, किंतु विचारणीय है। आरोप-प्रत्यारोप की सिलसिला इस तरह आगे बढ़ रहा है कि नेताओं की एक-दूसरे के प्रति घृणा सामने आने लगी है। गुरुवार को एक...
महाराष्ट्र की राजनीति में आरोप-प्रत्यारोप की बाढ़ स्वाभाविक, किंतु विचारणीय है। आरोप-प्रत्यारोप की सिलसिला इस तरह आगे बढ़ रहा है कि नेताओं की एक-दूसरे के प्रति घृणा सामने आने लगी है। गुरुवार को एक कार्यक्रम को संबोधित करते हुए शिंदे की शिव सेना के सदस्य और मंत्री तानाजी सावंत ने यहां तक कह दिया कि कैबिनेट की बैठकों में एनसीपी के सहयोगियों के साथ बैठने के बाद उन्हें उबकाई जैसा महसूस होता है। सावंत ने यह भी कहा कि वह एक कट्टर शिव सैनिक हैं और उनकी एनसीपी के नेताओं से कभी नहीं बनी। राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता अपनी जगह है, पर ऐसे उद्गार सत्ता के कैसे चेहरे सामने लाते हैं? क्या लोकतंत्र में अलग-अलग राजनीतिक दलों के नेताओं के बीच ऐसी घृणा और उसके सार्वजनिक इजहार को सहजता से लेना चाहिए? यह बहुत दुखद है कि महाराष्ट्र में पार्टियों में भयंकर टूट-फूट के बाद ऐसे गठबंधन बने हैं, जिनमें परस्पर सम्मान का न्यूनतम भाव भी नहीं है। ऐसी घृणा के बावजूद साथ मिलकर सरकार चलाने की भला कौन प्रशंसा कर सकता है?
जाहिर है, महाराष्ट्र के सत्ता पक्ष में जब ऐसी घृणा है, तो उसके दुष्प्रभाव चुनाव में भी दिखाई देंगे। सत्ताधारी संगठन जब जमीन पर उतरकर काम करेगा, तब लोगों का विश्वास जीतने में जरूर समस्या आएगी। सत्ताधारी गठबंधन, जिसे महायुति कहा जाता है, के बड़े नेताओं को अपने स्तर की अवश्य चिंता करनी चाहिए। कोई आश्चर्य नहीं, शिव सेना मंत्री तानाजी सावंत की घृणा भरी टिप्पणी के बाद वहां माहौल खराब हुआ है। सरकार में शामिल अजित पवार की राकांपा के प्रवक्ता और विधान परिषद सदस्य अमोल मिटकारी ने सावंत के बयान की कड़ी निंदा करते हुए कहा है कि गठबंधन धर्म निभाने के लिए ही हम चुप हैं। शरद पवार की राकांपा ने साफ कह दिया है कि भाजपा के लिए अजित पवार की पार्टी को महायुति से बाहर निकालने का समय आ गया है। विगत दिनों से लगातार यह कयास लगाया जा रहा है कि अजित पवार किसी भी समय इस गठबंधन से बाहर आ सकते हैं। महायुति में भीतरखाने बेचैनी का आलम है, जिसे दूर करने की कोशिशें कामयाब नहीं हो रही हैं। अब चूंकि चुनावी बिगुल बज चुका है, इसलिए इस बेचैनी का तत्काल कोई समाधान नहीं है। दरअसल, एक-दूसरे के खिलाफ चुनाव लड़ने वाले नेता जब किसी एक सरकार में शामिल हो जाते हैं, तब ऐसी स्थिति का बनना स्वाभाविक है। आज महाराष्ट्र गठबंधन के शौकीन दलों के लिए एक सबक बन गया है।
महाराष्ट्र की राजनीति में इन दिनों छत्रपति शिवाजी की प्रतिमा के गिरने का विवाद भी चरम पर है। सिंधुदुर्ग जिले में छत्रपति की प्रतिमा का गिरना एक बड़ा राजनीतिक मुद्दा बन गया है। अनेक वर्गों में गुस्सा चरम पर है, जिसका असर प्रधानमंत्री व मुख्यमंत्री के बयानों में दिख रहा है। इस मामले में पहली गिरफ्तारी भी हो गई है। छत्रपति चूंकि महाराष्ट्र के मान-सम्मान से जुडे़ हैं, इसलिए यह मामला चुनाव में भी असर दिखा सकता है। सियासी फायदे को देखते हुए उद्धव ठाकरे की शिव सेना की ओर से सरकार को जूते मारो आंदोलन की बात कही जा रही है। जूते मारो जैसा जुमला महाराष्ट्र की राजनीति में पहले भी इस्तेमाल हुआ है। जिस भी पार्टी ने इसका इस्तेमाल किया है या जो पार्टी इसका इस्तेमाल करना चाहती है, उसे भविष्य की राजनीति और उसमें अपने योगदान के बारे में जरूर सोच लेना चाहिए।