दौड़ में दागी
पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में सत्ता की दावेदार पार्टियों ने अपने प्रचार में पूरी ताकत झोंक दी है, तो यह स्वाभाविक ही है, क्योंकि मध्य प्रदेश में मतदान में जहां दो दिन बचे हैं, वहीं राजस्थान...

पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में सत्ता की दावेदार पार्टियों ने अपने प्रचार में पूरी ताकत झोंक दी है, तो यह स्वाभाविक ही है, क्योंकि मध्य प्रदेश में मतदान में जहां दो दिन बचे हैं, वहीं राजस्थान में आठ दिन और तेलंगाना में महज एक पखवाड़ा रह गया है, पर इन चुनावों का एक पहलू ऐसा है, जिसे स्वाभाविक नहीं होना चाहिए था, बल्कि आईंदा नहीं बनने देना चाहिए। इन चुनावों से जुडे़ ‘एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स’ (एडीआर) के विश्लेषण हैरान करने वाले तथ्य सामने ला रहे हैं। ताजा विश्लेषण मध्य प्रदेश से जुड़ा है। जिस प्रदेश की 25 फीसदी से भी अधिक ग्रामीण आबादी गरीबी रेखा के नीचे गुजर-बसर कर रही है, इससे भी कहीं बड़ी संख्या मुफ्त अनाज कार्यक्रम की मोहताज है, उस प्रदेश की नुमाइंदगी के लिए भाजपा और कांग्रेस ने भारी तादाद में करोड़पतियों को मैदान में उतारा है। एडीआर की रिपोर्ट के मुताबिक, भाजपा के 87 प्रतिशत प्रत्याशी मालदार हैं, तो वहीं कांग्रेस ने 86 फीसदी अमीर प्रत्याशियों पर अपना दांव लगाया है। यहां तक कि आम आदमी की आवाज बनने का दावा करने वाली आम आदमी पार्टी के 59 प्रतिशत उम्मीदवार करोड़पति हैं। साफ है, यह तस्वीर समाज और सियासत के बीच की दूरी ही दर्शाती है, जहां धन-बल प्रत्याशियों की योग्यता का अनिवार्य पैमाना बनता जा रहा है।
इससे भी परेशानकुन आंकड़ा दागी प्रत्याशियों का है। पिछली बार के मुकाबले इस बार भाजपा और कांग्रेस, दोनों ने कहीं बढ़कर दागी लोगों को अपना उम्मीदवार बनाया है। भाजपा के जहां 28.2 फीसदी उम्मीदवार आपराधिक मुकदमों का सामना कर रहे हैं, तो वहीं कांग्रेस ने 52.6 प्रतिशत दागी प्रत्याशी उतारे हैं। निस्संदेह, इनमें से काफी सारे लोगों के खिलाफ राजनीतिक प्रतिशोध या विद्वेषवश मुकदमे कायम हुए होंगे और वे न्यायिक प्रक्रिया में आगे पाक-दामन करार दिए भी जाएं, पर सवाल यह है कि यह तस्वीर सुधरती हुई क्यों नहीं दिख रही? क्या मध्य प्रदेश में या किसी अन्य सूबे में साफ-सुथरी छवि के राजनेताओं की कमी पड़ती जा रही है? जब विधायी संस्थाओं में दागियों की संख्या बढ़ती जाएगी, तो फिर समाज के अपराधी तत्वों को इससे क्या संदेश जाएगा? पार्टियां यह कहकर अपने दायित्व से बच नहीं सकतीं कि वे जनता द्वारा निर्वाचित हैं। उन्होंने विकल्प ही दागी दिए थे। मतदाता सिर्फ प्रत्याशी को वोट नहीं करते, वे पार्टी और उसके नेतृत्व के आधार पर भी चयन करते हैं।
यह तस्वीर चुनाव आयोग और देश की न्यायपालिका पर भी एक टिप्पणी है। दरअसल, जन-प्रतिनिधियों के खिलाफ मुकदमों के निपटारे में देरी ने राजनीतिक दलों को यह हौसला दिया है कि वे जिताऊ के नाम पर दागियों को भी गले लगा लें। उनकी यह दलील अपनी जगह वाजिब है कि सिर्फ मुकदमा दर्ज कर दिए जाने से पार्टी कार्यकर्ताओं के संविधान प्रदत्त नागरिक अधिकारों को स्थगित नहीं किया जा सकता! निस्संदेह, हमारी अदालतों पर मुकदमों का भारी बोझ है, पर क्या वे जन-प्रतिनिधियों पर दर्ज हत्या, जानलेवा हमले, बलात्कार, अपहरण व आर्थिक धोखाधड़ी जैसे संगीन मामलों के त्वरित निपटारे की व्यवस्था नहीं कर सकतीं? सुप्रीम कोर्ट ने हाल में उच्च न्यायालयों को अलग पीठ गठित करने का निर्देश तो दिया है, पर जजों की कमी की शिकायत के बीच व्यावहारिक चुनौतियां भी हैं। भारतीय लोकतंत्र को यदि इन लांछनों से मुक्त करना है, तो चुनावी विषमताओं व दागियों से इसकी मुक्ति का रास्ता निकालना होगा।
