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बदलते माहौल में

इंसान और कुदरत का रिश्ता भी बहुत अजीब है। कभी इंसान कुदरत को बदलने पर तुल जाता है, तो कभी खुद कुदरत ही इंसान को बदल डालती है। बेशक, ज्यादा बड़ी कामयाबी कुदरत के हाथ ही लगती है। कुदरत इस काम को कैसे...

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हिन्दुस्तानSun, 29 Apr 2018 09:11 PM
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इंसान और कुदरत का रिश्ता भी बहुत अजीब है। कभी इंसान कुदरत को बदलने पर तुल जाता है, तो कभी खुद कुदरत ही इंसान को बदल डालती है। बेशक, ज्यादा बड़ी कामयाबी कुदरत के हाथ ही लगती है। कुदरत इस काम को कैसे अंजाम देती है, इसका सबसे अच्छा उदाहरण पिछले दिनों बजाऊ जनजाति के एक अध्ययन से हुआ। इंडोनेशिया, मलेशिया और फिलीपींस जैसे देशों में रहने वाले बजाऊ लोग अपना सारा जीवन समुद्र की लहरों पर ही गुजार देते हैं। वे जमीन पर नहीं, नावों पर ही सारा जीवन गुजार देते हैं। उनके समुदाय को एक तरह का समुद्री कबीला माना जाता है और उन्हें ‘बोट पीपुल’ या नौका समुदाय भी कहा जाता है। वे अपने खाने-पीने के साधन समुद्र से ही जुटाते हैं और इसी से मिली चीजों का कारोबार करते हैं। वे जब समुद्र में डुबकी लगाते हैं, तो अपने शिकार को पकड़ने के बाद ही बाहर निकलते हैं। किसी भी आम इंसान के लिए यह करना आसान नहीं। पिछले दिनों जब वैज्ञानिकों ने इसका रहस्य जानने की कोशिश की, तो पता पड़ा कि बजाऊ लोगों के शरीर में पाई जाने वाली पित्ती या स्प्लीन आम इंसानों के मुकाबले काफी बड़ी होती है, जिससे वह उनके शरीर में दस फीसदी अतिरिक्त ऑक्सीजन की आपूर्ति करती है। इससे उन्हें काफी देर तक सांस लेने की जरूरत नहीं पड़ती और वे काफी लंबी डुबकी लगा लेते हैं। यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया बर्कले के प्रोफेसर रासमस नीलसन के अनुसार, समुद्र ने उनके शरीर को आनुवंशिक रूप से बदल दिया है।

बजाऊ जनजाति के लोग ऐसा अकेला उदाहरण नहीं हैं। तिब्बत वासियों और नेपाल के शेरपाओं पर हुए एक अध्ययन में यह पाया गया था कि उनकी शरीर-रचना काफी ऊंचाई पर रहने के लिए सबसे ज्यादा अनुकूल है। जिस पहाड़ी ऊंचाई पर बहुत से लोग ‘अल्टीट्यूट सिकनेस’ के शिकार हो जाते हैं, वहां ये लोग बहुत आराम से तेजी के साथ आते-जाते रहते हैं। वहां भी वैज्ञानिकों ने यही पाया कि उनकी कोशिकाओं में पाया जाने वाला माइटोकॉन्ड्रिया और उनके फेफड़े पूरी तरह बदल चुके हैं। वे इस तरह से बन चुके हैं कि वायु के कम दबाव में भी जरूरत के मुताबिक ऑक्सीजन सोख लेते हैं और पूरे शरीर में ऑक्सीजन और हर कोशिका में ऊर्जा की ज्यादा आपूर्ति करते हैं। यही वजह है कि दुनिया का कोई भी एवरेस्ट शिखर अभियान शेरपाओं की मदद के बगैर पूरा नहीं हो पाता। वे इन अभियान दलों के लिए सामान उठाने से लेकर खाना बनाने तक के सारे काम करते हैं। एवरेस्ट शिखर पर सबसे पहले पहुंचने वाले मानव शेरपा तेनजिंग को कौन भूल सकता है? तीन साल पहले नेपाल के एक नौजवान शेरपा ने 24 घंटे के भीतर ही एवरेस्ट शिखर पर पहुंचकर वापस आने का रिकॉर्ड बनाया था। पहाड़ पर जीने वालों की जिंदगी को खुद पहाड़ ने ही झुककर आसान बना दिया है।

इन दोनों ही उदाहरणों में एक अच्छा संदेश भी छिपा है। इन दिनों जब पर्यावरण बदलाव की चिंता हर माथे पर लकीरें खींच रही हैं, ये उदाहरण बता रहे हैं कि ज्यादा परेशान होने की जरूरत नहीं है। कुदरत अकेले नहीं बदलती, वह अपने साथ चलने वालों को बदलती चलती है। समस्या सिर्फ उनकी है, जो इस बदलाव से इनकार कर देते हैं। जैसे कि रेप्टाइल समूह के वे सारे पशु, जो नहीं बदल सके, लुप्त हो गए। आज उन्हें हम डायनासोर के नाम से जानते हैं। 

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