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आलस्य का विकास

कहते हैं कि किसी भी विचार का हमेशा ही एक विपरीत विचार होता है, जो मूल विचार को लगातार भ्रमित करता रहता है। भले ही यह बात मजाक में ही कही जाती हो, लेकिन इसके समर्थन में ढेर सारे उदाहरण भी दिए जा सकते...

आलस्य का विकास
हिन्दुस्तानSun, 26 Aug 2018 10:59 PM
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कहते हैं कि किसी भी विचार का हमेशा ही एक विपरीत विचार होता है, जो मूल विचार को लगातार भ्रमित करता रहता है। भले ही यह बात मजाक में ही कही जाती हो, लेकिन इसके समर्थन में ढेर सारे उदाहरण भी दिए जा सकते हैं। विज्ञान में भी, सामाजिक विज्ञान में भी और दर्शनशास्त्र में भी। जैसे कि एक विचार लंबे समय से समाज, विज्ञान और दर्शन सभी जगह रहा है, जिसे हम ‘सर्वाइवल ऑफ फिटेस्ट’ कहते हैं, यानी वही बच पाता है, जो बदलते हालात के हिसाब से खुद को ढालने में सबसे उपयुक्त और सबसे सक्रिय होता है। आखिर में वही बच पाता है। प्रकृति तो खैर इसका सबसे अच्छा उदाहरण मानी जाती है, कॉरपोरेट क्षेत्र की सारी चूहा दौड़ भी इसी सिद्धांत को सिर माथे रखती है। लेकिन अब इसका एक विपरीत सिद्धांत भी सामने आ गया है, जो कहता है कि आखिर में वही बच पाता है, जो सबसे ज्यादा आलसी होता है। यह नतीजा कुछ जंतु विज्ञानियों ने निकाला है, जो वर्तमान सीप-घेंघों और उनके पूर्वजों का अध्ययन कर रहे थे। उन्होंने पाया कि सीप-घेंघों की वे प्रजातियां हमेशा के लिए लुप्त हो गईं, जो बहुत ज्यादा सक्रिय थीं, यानी जिनके शरीर में ऊर्जा की खपत ज्यादा होती थी, जबकि वे सारी प्रजातियां बच गईं, जो चुपचाप पड़ी रहती थीं और उन्हें ऊर्जा की बहुत कम जरूरत होती थी। इससे यूनिवर्सिटी ऑफ कैनसास के प्रोफेसर ब्रूस लिबरमैन इस नतीजे पर पहुंचे कि पुरानी सोच को अब बदल दिया जाना चाहिए।

यह बात तब कही गई है, जब दुनिया ऊर्जा की खपत कम करने की चुनौती से जूझ रही है। कुछ क्रूर किस्म की भविष्यवाणियां तो यह भी कहती हैं कि अगर हम ऊर्जा की खतप को कम नहीं कर सके, तो हमारा और इस धरती का अंत तय है। ऊर्जा की खपत और सक्रियता का रिश्ता बहुत आसानी से समझा जा सकता है। इस समय हमारे जो खिलाड़ी एशियाड में प्रदर्शन कर रहे हैं, उन्हें खेलते और अभ्यास करते समय बहुत ज्यादा ऊर्जा की जरूरत होती है, इसलिए उनकी खुराक व खुराक के लिए प्रकृति पर निर्भरता भी बहुत ज्यादा होती है। इसके विपरीत बुजुर्ग लोगों को दवाइयों की भले ही बहुत जरूरत पड़ती हो, लेकिन उन्हें खुराक की जरूरत बहुत कम होती है। यहां सोचने की बात यह है कि सीप-घोंघों के विकास से निकले नतीजे को क्या आधुनिक मानव सभ्यता पर भी उसी तरह लागू किया जा सकता है? वह भी तब, जब उस युग के घोंघों और इस युग के इंसान की स्थितियां पूरी तरह से अलग हैं? हमारी पूरी सभ्यता सक्रियता, कर्म और उत्पादकता से विकसित हुई है। इसीलिए दुनिया के सभी समाजों में श्रम का महिमा मंडन किया जाता है और आलस्य को एक बुरी वृत्ति माना जाता है। 

हालांकि सीप-घोंघों वाले शोध के नतीजों को हमें एक और नजरिये से देखना होगा। जैसे सक्रियता जंतुओं का एक लक्षण है, वैसे ही एक जैविक लक्षण ही है। अगर दोनों ही प्रवृत्तियां एक ही जगह से उपजी हैं, तो एक को महान और दूसरे को निकृष्ट मानने का कोई कारण नहीं है। प्रकृति आज जिस जगह पहुंची है, उसके बारे में यह विश्लेषण कभी आसान नहीं होगा कि उसकी यात्रा में कितनी भूमिका सक्रियता की रही है और कितनी आलस्य? कितनी ऊर्जा की खपत की रही और कितनी ऊर्जा की बचत की रही है? आलस्य की भूमिका का यह विचार कितना भी अस्वीकार्य हो, लेकिन सोचने को तो बाध्य करता ही है।

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