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गहराता विवाद

रात ढाई बजे जिस तरह केंद्रीय जांच ब्यूरो यानी सीबीआई के निदेशक आलोक वर्मा को छुट्टी पर भेजा गया, वह बताता है कि इस संस्था के विवाद ने सरकार की भी नींद हराम कर दी है। इसका यह संदेश भी साफ है कि अंतत:...

गहराता विवाद
हिन्दुस्तानThu, 25 Oct 2018 12:20 AM
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रात ढाई बजे जिस तरह केंद्रीय जांच ब्यूरो यानी सीबीआई के निदेशक आलोक वर्मा को छुट्टी पर भेजा गया, वह बताता है कि इस संस्था के विवाद ने सरकार की भी नींद हराम कर दी है। इसका यह संदेश भी साफ है कि अंतत: उनकी इस जांच संस्था से छुट्टी तय है। आलोक वर्मा ने अपने सहयोगी और सीबीआई के विशेष निदेशक राकेश अस्थाना के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोपों की जो जांच बिठाई थी, उसे तो खत्म नहीं किया गया, लेकिन जांच करने वाली पूरी टीम बदल दी गई है। अभी तक सीबीआई मुख्यालय में सिर्फ विशेष निदेशक का दफ्तर ही सील किया गया था, मगर अब दोनों का दफ्तर सील कर दिया गया है। सरकार की सक्रियता और सख्त कार्रवाई बताती है कि सीबीआई निदेशक ने अपने सहयोगी और विशेष निदेशक के खिलाफ आरोप लगाते या जांच बिठाते समय केंद्र सरकार को भरोसे में नहीं लिया था। सरकार की इस सक्रियता के बाद बहुत सी चीजें अभी भी स्पष्ट नहीं हैं। खासकर यह कि निदेशक और विशेष निदेशक ने एक-दूसरे पर जो आरोप लगाए थे, सरकार की उन पर क्या राय है? दूसरे यह कि सीबीआई का नया तदर्थ नेतृत्व इनके बारे में क्या राय रखता है? 

बेशक सरकार इस मामले में हरकत में आ गई है, लेकिन पिछले तीन दिनों में देश की इस सर्वोच्च जांच एजेंसी में जो कीचड़ उछाल हुआ है, उसकी छींटें आने वाले कुछ समय तक खुद सरकार को परेशान करती रहेंगी। सबसे बड़ी बात है कि इस पूरे मामले ने विपक्षी दलों को एक बड़ा मुद्दा दे दिया है। और तो और, कुछ लोगों ने पूरे विवाद को रॉफेल लड़ाकू विमान की खरीद पर हो रहे हंगामे से जोड़कर भी पेश करना शुरू कर दिया है। सीबीआई की बची-खुची साख भी अब बहुत गहराई में गोते लगा रही है। एक के बाद एक उन ढेर सारे मामलों को गिनाया जाने लगा है, जिनमें सीबीआई नाकाम रही। यह बात भी लगातार सामने आ रही है कि पिछले तीन दिन में जो विवाद अचानक सतह पर आ गया, वह इस संस्था के भीतर तकरीबन एक साल से खदबदा रहा था। इसलिए यह सवाल तो पूछा ही जाएगा कि मामले को इस हद तक पहुंचने ही क्यों दिया गया? समय रहते इसे ठंडा क्यों नहीं किया गया? सीबीआई निदेशक और विशेष निदेशक ने एक-दूसरे के खिलाफ जो आरोप लगाए हैं, वे काफी संगीन किस्म के हैं और उनमें कितना सच है या कितना झूठ, यह अभी नहीं कहा जा सकता। लेकिन इससे यह बात तो साफ होती ही है कि देश की सबसे अहम और सर्वोच्च जांच संस्था में सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है।

बहुत सी दूसरी व्यवस्थाओं के साथ ही लोकतंत्र स्वायत्त संस्थाओं का तंत्र होता है। लोकतंत्र में जनता यह मानकर चलती है कि किसी भी संकट या किसी भी खतरे के समय ये संस्थाएं ही उसे सुरक्षा भी देंगी और न्याय भी। ताजा विवाद ने जनता के इस भरोसे को चकनाचूर कर दिया है। इस भरोसे को फिर से बहाल करना देश के लिए सबसे बड़ी चुनौती है। वह भी तब, जब सीबीआई की यह साख पिछले कुछ साल से लगातार और काफी तेजी से गिर रही है। पांच साल पहले सुप्रीम कोर्ट ने इस संस्था की कार्य-प्रणाली में सुधार का निर्देश दिया था, लेकिन सुधार की ओर कदम बढ़ाना तो दूर, उसकी उम्मीद बंधाने वाली कोई कोशिश तक नहीं हुई। अब अगर देरी हुई, तो हो सकता है कि आने वाले समय में सीबीआई अपना अर्थ ही खो बैठे।  

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