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भ्रष्ट आचरण के खिलाफ

आज जब पूरी दुनिया एक बार फिर भ्रष्टाचार विरोधी दिवस मना रही है, तो यह पुरातन सवाल भी एक बार फिर हमारे सामने खड़ा है कि वैश्विक स्तर पर इतनी शपथ और भारत के पैमाने पर इतने बड़े-बड़े भाषणों, संविधान की मूल...

 भ्रष्ट आचरण के खिलाफ
हिन्दुस्तानSat, 09 Dec 2017 01:41 AM
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आज जब पूरी दुनिया एक बार फिर भ्रष्टाचार विरोधी दिवस मना रही है, तो यह पुरातन सवाल भी एक बार फिर हमारे सामने खड़ा है कि वैश्विक स्तर पर इतनी शपथ और भारत के पैमाने पर इतने बड़े-बड़े भाषणों, संविधान की मूल आत्मा में प्रदत्त शर्त होने के बावजूद भ्रष्टाचार की यह बुराई अभी तक खत्म क्यों नहीं हुई? वैसे यह स्पष्ट कर देना जरूरी है कि अन्य तमाम दिवसों की तरह ही यह भी विदेश से आयातित एक दिवस है, जिसकी मंशा बहुत साफ है। यह 31 अक्तूबर, 2003 को भ्रष्टाचार के खिलाफ संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन की उस शपथ का प्रतिफल है, जिसमें विश्व के हर कोने में सामाजिक और संस्थानिक शुचिता के लिए भ्रष्टाचार विरोधी दिवस मनाने की घोषणा थी, और जिसे पहली बार 9 दिसंबर, 2006 को मनाया गया। माना गया होगा कि इस संकल्पना और परिकल्पना के बाद आमूल परिवर्तन आएगा और भ्रष्टाचार का सूचकांक धराशाई हो जाएगा, लेकिन हुआ क्या, यह सोचने-समझने और चिंता करने का विषय है।

यह हमारे देश में सांगठनिक रूप पा चुके भ्रष्टाचार का ही सुबूत है कि हमारा 5,000 करोड़ से ज्यादा धन स्विस बैंकों में जमा है और हम भारतीय हर साल करीब सवा हजार करोड़ से ज्यादा राशि घूस में देते हैं। नेशनल कौंसिल ऑफ अप्लाइड इकॉनामिक की रिसर्च भी बताती है कि भारत का औसत शहरी परिवार हर साल 4,400 रुपये और औसत ग्रामीण परिवार हर साल 2,900 रुपये घूस में खर्च करता है। सर्वे यह भी बताता है कि इस राशि का अधिकांश हिस्सा सामान्य कामकाज के अलावा शिक्षा क्षेत्र और पुलिस की जेब में जाता है। दिवस की रस्म अदायगी के बीच हमारे बीच से निकले घूसखोरी और काला धन के ये आंकड़े याद दिलाते हैं कि हमारे देश के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलनों का क्या हश्र हुआ? यह हमें 2011 की उन कई रातों और सुबहों की खुशनुमा याद भी दिलाता है, जब पूरा देश एक बिल्कुल नए तरह के आंदोलन की धुन पर झूम रहा था और लोग बड़ी उम्मीद से भविष्य निहारने लगे थे। लेकिन राजनीति के भ्रष्टाचार ने सारी उम्मीदें हड़प लीं। उस आंदोलन की पहल पर निकले जन लोकपाल बिल या व्हिसल ब्लोअर प्रोटेक्शन बिल का क्या हुआ, यह छिपा नहीं है। 

सच तो यही है कि हमारे देश में भ्रष्टाचार सही मायने में कभी मुद्दा रहा ही नहीं। व्हिसल ब्लो करने वालों या भ्रष्टाचार के खिलाफ सबको सचेत करने वालों का हमारे समाज और व्यवस्था ने क्या हश्र किया, इसे समझने के लिए बिहार में सड़क माफिया से टकराने वाले सत्येन्द्र दुबे और यूपी में पेट्रोल माफिया से टकराने वाले मंजूनाथ की हत्या से समझा जा सकता है। दरअसल, भ्रष्टाचार हमारे समाज में गहरे पैठ चुकी वह बुराई है, जिसकी जड़ें राजनीति के खाद-पानी से मजबूत होती रही हैं। दुर्भाग्य से यह खाद-पानी न बंद हुआ है और न ऐसी कोई उम्मीद दिखती है। हां, समय के साथ इसने रूप और रंग जरूर बदले हैं। दरअसल, भ्रष्टाचार एक ऐसा सवाल है, जो किसी महज संस्थागत प्रयास, कानून और भय से नहीं खत्म होने वाला। इसके खात्मे के लिए हमारी सोई हुई संवेदनाओं का जाग्रत होना जरूरी है, क्योंकि यही हमें लंबी लड़ाई के लिए प्रेरित कर पाएगा। वह जनाक्रोश जगा पाएगा, जो इस लड़ाई में विजय के लिए जरूरी है। भ्रष्टाचार के खिलाफ जनाक्रोश ही है, जो नहीं दिखाई दे रहा। यह सर्वव्यापी और सर्वग्रासी बनता जा रहा है और हम एक कृत्रिम लड़ाई में उलझे हुए हैं, जो हर दिन नई उम्मीद बंधा जाती है। हमें उम्मीदों की इस आपाधापी से बाहर निकलना होगा। सच है कि इसके लिए हमें अपनी ओढ़ी हुई जरूरतों से भी मुठभेड़ करना होगा। एक सीधी और आत्महंता होने की जिद जैसी मारक मुठभेड़।
 

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