नतीजे और निष्कर्ष
दिल्ली विधानसभा चुनाव के ताजा नतीजे क्या कह रहे हैं? नौ महीने पहले की बात है, जब दिल्ली के यही मतदाता अपने घरों से निकले थे, तब वे नरेंद्र मोदी को दिल्ली की सत्ता सौंपने के लिए पूरी तरह प्रतिबद्ध दिख...
दिल्ली विधानसभा चुनाव के ताजा नतीजे क्या कह रहे हैं? नौ महीने पहले की बात है, जब दिल्ली के यही मतदाता अपने घरों से निकले थे, तब वे नरेंद्र मोदी को दिल्ली की सत्ता सौंपने के लिए पूरी तरह प्रतिबद्ध दिख रहे थे। पूरी दिल्ली जैसे ‘अबकी बार तीन सौ पार’ के नारे वाली भारतीय जनता पार्टी के लक्ष्य में अपना ज्यादा से ज्यादा योगदान करने के लिए निकल पड़ी थी। उस लोकसभा चुनाव के नतीजों को अगर विधानसभावार देखें, तो कोई भी इस नतीजे पर पहुंच सकता था कि अब दिल्ली प्रदेश में भी भाजपा सरकार बनने से कोई नहीं रोक सकता। पर इस बार मतदाताओं ने कुछ और ही कहानी लिखने की ठान ली थी। नौ महीने बाद वही मतदाता इस बार जब घर से निकले, तो उन्होंने भाजपा को इकाई अंक में ही सीमित करके रख दिया। हालांकि इसमें कोई नई बात भी नहीं है, हुआ तो पिछली बार भी यही था। 2014 के लोकसभा चुनाव में दिल्ली के इन्हीं मतदाताओं ने भाजपा को भारी जीत दिलाई थी, लेकिन कुछ ही महीने बाद जब वे विधानसभा चुनाव के लिए वोट डालने निकले, तो उनकी पसंद आम आदमी पार्टी थी और उसके नेता थे अरविंद केजरीवाल। कई दूसरे राज्यों की तरह ही दिल्ली के मतदाताओं ने भी हर चुनाव में अपने विकल्पों को ठोक-बजाकर परखने का हुनर सीख लिया है।
दिल्ली विधानसभा चुनाव के नतीजे यह भी बता रहे हैं कि राजनीतिक पार्टियों को यह मानकर नहीं बैठना चाहिए कि वे जो सियासी हवाएं गढ़ेंगी, लोग उसी के थपेड़ों में बहते हुए मतदान केंद्रों तक पहुंच जाएंगे। भाजपा की कोशिश यही थी कि राष्ट्रवादी बयार दिल्ली को पूरी तरह अपने आगोश में ले ले। उसके पास इसका पूरा साजो-सामान भी था, और पूरी सेना भी। उसकी उम्मीद इसी पर टिकी थी और सारी रणनीति भी इसी हिसाब से बनी थी। उसे लगता था कि तीन तलाक, अनुच्छेद 370 से लेकर नागरिकता संशोधन कानून जैसे मुद्दे दिल्ली के चुनावी समर में जीत दिलाने के लिए पर्याप्त हैं। भाजपा ने दिल्ली के शाहीन बाग में चल रहे नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ धरने को भी बहुत बड़ा मुद्दा बनाया था, जबकि आप ने अपनी पूरी बाजी खुद को इस मुद्दे से दूर रखने में ही लगा दी थी। भाजपा की एकमात्र उम्मीद यही थी कि ये सारे मुद्दे मिलकर इस कदर ध्रुवीकरण करेंगे कि उसे जीतने से कोई रोक नहीं पाएगा। अब जब अंतिम नतीजे आए हैं और कांग्रेस उनमें कहीं नहीं है, तो हम यह कह सकते हैं कि ध्रुवीकरण तो हुआ, लेकिन वह भाजपा के पक्ष में नहीं गया। दिल्ली विधानसभा चुनाव के नतीजों ने भाजपा के ध्रुवीकरण वाले मुद्दों की सीमा भी बता दी है।
हर चुनाव में यह मानकर चला जाता है कि जिसकी सरकार होगी, उससे नाराज बहुत सारे ऐसे मतदाता भी होंगे ही, जो उसके खिलाफ वोट करेंगे। चुनाव शास्त्र की भाषा में इसे एंटी इन्कंबेंसी कहा जाता है। इस लिहाज से यही लगता था कि आप सरकार से नाराज लोग कुछ भी हो, भारी संख्या में उसके खिलाफ वोट करेंगे ही। चुनाव में आप को घाटा तो हुआ है, पर वह इतना नहीं कि किसी बड़ी नाराजगी को दिखाता हो। दिल्ली विधानसभा चुनाव के ताजा नतीजों ने यह बता दिया है कि एंटी इन्कंबेंसी कोई विज्ञान का ऐसा नियम नहीं, जिसका होना अवश्यंभावी हो। जमीनी काम से इसे मात देना कठिन नहीं।